देश में अन्नदाता का कोई दर्जा है क्या ?
देश में नेता हो या अभिनेता या फिर कोई लेखक सभी के सभी आतंकवाद, प्रदूषण, धार्मिक उन्माद, सामाजिक अंतद्र्वंद और महंगाई जैसी समस्याओं के पीछे अपना ध्यान लगाये बैठे है जो बोलते है या लिखते है उन सभी का विषय in के अतिरिक्त कुछ भी नही होता अभी ताजा हाल सभी को पता है असहिष्णुता के पीछे काफी बहस बनी रही काफी दिनों तक यह मुद्दा चर्चा का विषय भी बना रहा लेकिन इन सभी मुद्दों के मध्य कृषि प्रधान देश में कृषि की समस्याओं का मुद्दा हमेशा गौण रह जाता हैं इस विषय पर कोई बात नही करता नही । नेता जी तो अपने भाषण में केवल चुनावी मुद्दों के लिए ही कृषि और किसान की बात करते हैं उसके बाद अपनी पुस्तक में से वह नाम 5 साल के लिए हटा देते है । किसान कितना भी परेशान क्यों न हो किसी वर्ग को उसकी चिंता तनिक भी नहीं है चिंता है तो सिर्फ ताजा मुद्दों की । यहाँ तक मीडिया भी हमारे किसानो की पूरी स्तिथि को प्रस्तुत नही करना चाहती है क्योकि उन्हें अपनी TRP बढ़ानी होती है । जो देश में हो रहा है उसे देश की अर्थव्यवस्था को कितना बल मिलेगा किसी फिल्म के हिट होने से कितने लोगों का जीवन स्तर सुधरेगा देश का किसान जो अन्नदाता कहलाता है उसकी ओर कोई नहीं देखता
विगत वर्ष देश के अनेक हिस्से सूखाग्रस्त रहे। मौसम वैज्ञानिकों की माने तो आने वाले समय में भी स्थिति कुछ अच्छी नहीं दिख रही है। भारत में कृषि पूरी तरह मानसून पर निर्भर करती है। पिछले दिनों अप्रत्याशित मानसून के कारण कृषि के क्षेत्र में भी संकट दिन-प्रतिदिन गहराता जा रहा हैं। यह संकट अपने साथ अनेक अन्य समस्याओं को भी उत्पन्न कर रहा है। जिसमें महंगाई एवं किसानों की बदहाली सबसे बड़ी समस्या हैं।
अप्रत्याशित मानसून के कारण विगत चार वर्षों से लगातार खरीफ की फसलें बुरी तरह प्रभावित हुई है। कृषि के क्षेत्र में बदहाली के अनेक अन्य उदाहरण भी मौजूद हैं। पिछले दिनों तमिलनाडु में हुई भारी बारिश इसका ताजा उदाहरण है।
भारतीय अर्थव्यस्था (जी॰डी॰पी॰) में लगभग 14 प्रतिशत का महत्वपूर्ण योगदान देने वाला, गंगा-जमुनी तहज़ीब को अपनी गोद मे खिलाने वाला एवं भारतीय संस्कृति को सीचने वाला कृषि व्यवसाय आज खतरे में है। हर रोज सैकड़ों किसान कृषि छोड़ रहे हैं। विडंबना यह है कि इतना महत्वपूर्ण तथ्य कभी खबर नहीं बनता लेकिन जब यही किसान लाचार होकर आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं तो यह खबर बन जाती है और कथित पत्रकार कैमरा लेकर पहुँच जाते हैं। सरकारी तंत्र डी॰डी॰ किसान जैसे चैनल किसानों के पुनरुत्थान के लिए शुरू तो कर देता है लेकिन फिर भी यह पहल जमीनी स्तर पर बहुत प्रभावी नहीं दिखती। इसके अनेक कारण हैं। किसानों से जुड़ी समस्यों पर चर्चा करने के लिए आप उन स्वयंभू किसानों को बुलाते हैं जिन्हें कई बार ये भी नहीं पता होता हैं कि खरीफ की फसल में कितने पानी की आवश्यकता होती है। ज़ाहिर सी बात है, इससे आप किसान की उस मूल वेदना तक नहीं पहुँच सकते हैं जो किसान खेतों को दिन भर अपने पसीने से सींचता है और उसी पसीने से इन ‘किसानों’ की बड़ी-बड़ी गाडि़यों का तेल भरा जाता है।
कृषि के क्षेत्र में सरकार को मुख्यतः दो स्तरों पर कार्य करने की आवश्यकता है। पहला सामाजिक और दूसरा आर्थिक स्तर पर। इससे कृषक और कृषि दोनों की दशा एवं दिशा में निश्चित रूप से बेहतरी होगी। आज कृषि प्रधान देश में कृषकों को दोयम दर्जा दिया जाता हैं। कृषकों को आज भी उपेक्षित रखा जाता है। इनकी समस्याएँ किसी पार्टी का एजेंडा नहीं बनती है। उन्हें मुख्यधारा में जोड़ने के ठोस प्रयास किए जाने चाहिए। दूसरा आर्थिक स्तर पर, सभी प्रतिकूल परिस्थितियों की मार झेलते हुए किसान जब अपने पसीने से सिंचित अन्न को लेकर बाज़ार मे जाता है तो उसे एक बार फिर जबरदस्त निराशा का सामना करना पड़ता है। यह कृषि कैसा व्यवसाय है जिसमें किसानों की उपज किस मूल्य पर बेची जाएगी, यह किसान स्वयं तय नहीं करते अपितु सरकारें एवं दलाल तय करते हैं?
निश्चित रूप से सरकारों ने कृषि की बदहाली की समस्या से निपटने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। पिछले दिनों मौजूदा सरकार ने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना को मंजूरी दी। इस योजना के तहत अगले पाँच वर्षों के दौरान 50 हज़ार करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य कृषि योग्य जमीन का विस्तार, सिंचाई का पानी बचाने वाली तकनीकी का विकास एवं सिंचाई मे निवेश को आकर्षित करना है। लेकिन इस योजना को क्रियान्वित करने के दौरान हमें कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है। सबसे पहली बात की वर्षा के असमान वितरण को ध्यान मे रखना होगा। दूसरी बात यह कि हमें वैश्विक तापवृद्धि जैसी समस्या को भी ध्यान मे रखने की आवश्यकता है। हम खेतों में कितना भी खाद दें लेकिन तथ्य यह है कि पौधे पोषक तत्वो के अपनी कुल जरूरत का 30 प्रतिशत ही खाद से बाकी वह प्रकृति से ही प्राप्त करते हैं, इसलिए पर्यावरण एवं मिट्टी कि उर्वरता को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त कृषि में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों इत्यादि के पानी में घुलने से पानी की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हो रही है तथा भूमिगत जल के अनियंत्रित दोहन से जलस्तर भी निरंतर गिरता जा रहा है। इन सभी समस्याओं से निपटने के बाद हमें खाद्य संरक्षण की भी उच्च तकनीकि व्यवस्था करनी होगी।
वैश्विक तापवृद्धि, जलस्तर के लगातार गिरने एवं वर्षा के आसमान वितरण इत्यादि को ध्यान मे रखते हुए ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए हम एक निश्चित फसल प्रणाली तय कर सकते हैं। किसानो को जल संरक्षण के लिए प्रेरित कर सकते हैं। छोटी सिंचाई परियोजनओं को बढ़ावा दे सकते हैं। सिंचाई की आधुनिक विधियों को प्रयोग मे लाया जा सकता है जिससे जल का दोहन कम हो। इन सभी छोटे-छोट प्रयासों से निश्चित रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था को पंख लगेगी और भारत अनाज शक्ति के रूप मे एक विकासित राष्ट्र बन सकेगा।