अंगूर की आधुनिक खेती

अंगूर संसार के उपोष्ण कटिबंध के फलों में विशेष महत्व रखता है। हमारे देश में लगभग 620 ई.पूर्व ही उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में अंगूर की व्यवसायिक खेती एक लाभकारी उद्यम के रूप में विकसित हो गई थी लेकिन उत्तरी भारत में व्यवसायिक उत्पादन धीरे - धीरे बहुत देर से शुरू हुआ। आज अंगूर ने उत्तर भारत में भी एक महत्वपूर्ण फल के रूप में अपना स्थान बना लिया है और इन क्षेत्रों में इसका क्षेत्रफल काफी तेजी से बढ़ता जा रहा है। पिछले तीन दशकों में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अंगूर कि खेती ने प्रगति की है जिसके फलस्वरूप भारत में अंगूर के उत्पादन, उत्पादकता एवं क्षेत्रफल में अपेक्षा से अधिक वृद्धि होती जा रही है। 
उपयोग 
अंगूर एक स्वादिष्ट फल है। भारत में अंगूर अधिकतर ताजा ही खाया जाता है वैसे अंगूर के कई उपयोग हैं। इससे किशमिश, रस एवं मदिरा भी बनाई जाती है। 

मिट्टी एवं जलवायु 
अंगूर की जड़ की संरचना काफी मजबूत होती है। अतः यह कंकरीली,रेतीली से चिकनी तथा उथली से लेकर गहरी मिट्टियों में सफलतापूर्वक पनपता है लेकिन रेतीली, दोमट मिट्टी, जिसमें जल निकास अच्छा हो अंगूर की खेती के लिए उचित पाई गयी है। अधिक चिकनी मिट्टी में इसकी खेती न करे तो बेहतर है। अंगूर लवणता के प्रति कुछ हद तक सहिष्णु है। जलवायु का फल के विकास तथा पके हुए अंगूर की बनावट और गुणों पर काफी असर पड़ता है। इसकी खेती के लिए गर्म, शुष्क, तथा दीर्घ ग्रीष्म ऋतू अनुकूल रहती है। अंगूर के पकते समय वर्षा या बादल का होना बहुत ही हानिकारक है। इससे दाने फट जाते हैं और फलों की गुणवत्ता पर बहुत बुरा असर पड़ता है। अतः उत्तर भारत में शीघ्र पकने वाली किस्मों की सिफारिश की जाती है। 

किस्में 
उत्तर भारत में लगाई जाने वाली कुछ किस्मों की विशेषताएं नीचे दी जा रही हैं। 

परलेट 
यह उत्तर भारत में शीघ्र पकने वाली किस्मों में से एक है। इसकी बेल अधिक फलदायी तथा ओजस्वी होती है। गुच्छे माध्यम, बड़े तथा गठीले होते हैं एवं फल सफेदी लिए हरे तथा गोलाकार होते हैं। फलों में 18 - 19 तक घुलनशील ठोस पदार्थ होते हैं। गुच्छों में छोटे - छोटे अविकसित फलों का होना इस किस्म की मुख्य समस्या है। 

ब्यूटी सीडलेस 
यह वर्षा के आगमन से पूर्व मई के अंत तक पकने वाली किस्म है गुच्छे मध्यम से बड़े लम्बे तथा गठीले होते हैं। फल मध्यम आकर के गोलाकार बीज रहित एवं काले होते हैं। जिनमे लगभग 17 - 18 घुलनशील ठोस तत्त्व पाए जाते हैं। 

पूसा सीडलेस 
इस किस्म के कई गुण 'थाम्पसन सीडलेस' किस्म से मेल खाते हैं। यह जून के तीसरे सप्ताह तक पकना शुरू होती है। गुच्छे मध्यम, लम्बे, बेलनाकार सुगन्धयुक्त एवं गठे हुए होते हैं। फल छोटे एवं अंडाकार होते हैं। पकने पर हरे पीले सुनहरे हो जाते हैं। फल खाने के अतिरिक्त अच्छी किशमिश बनाने के लिए उपयुक्त है। 

पूसा नवरंग 
यह संकर किस्म भी हाल ही में भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित की गयी है। यह शीघ्र पकने वाली काफी उपज देने वाली किस्म है। गुच्छे मध्यम आकर के होते हैं। फल बीजरहित, गोलाकार एवं काले रंग के होते हैं। इस किस्म में गुच्छा भी लाल रंग का होता है। यह किस्म रस एवं मदिरा बनाने के लिए उपयुक्त है। 

प्रवर्धन 
अंगूर का प्रवर्धन मुख्यतः कटिंग कलम द्वारा होता है। जनवरी माह में काट छाँट से निकली टहनियों से कलमे ली जाती हैं। कलमे सदैव स्वस्थ एवं परिपक्व टहनियों से लिए जाने चाहिए। सामान्यतः 4 - 6 गांठों वाली 23 - 45 से.मी. लम्बी कलमें ली जाती हैं।कलम बनाते समय यह ध्यान रखें कि कलम का निचे का कट गांठ के ठीक नीचे होना चाहिए एवं ऊपर का कट तिरछा होना चाहिए। इन कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार की गयी तथा सतह से ऊँची क्यारियों में लगा देते हैं। एक वर्ष पुरानी जड़युक्त कलमों को जनवरी माह में नर्सरी से निकल कर खेत में रोपित कर देते हैं। 

बेलों की रोपाई 
रोपाई से पूर्व मिट्टी की जाँच अवश्य करवा लें। खेत को भलीभांति तैयार कर लें। बेल की बीच की दुरी किस्म विशेष एवं साधने की पद्धति पर निर्भर करती है। इन सभी चीजों को ध्यान में रख कर 90 x 90 से.मी. आकर के गड्ढे खोदने के बाद उन्हें 1/2 भाग मिट्टी, 1/2 भाग गोबर की सड़ी हुई खाद एवं 30 ग्राम क्लोरिपाईरीफास, 1 कि.ग्रा. सुपर फास्फेट व 500 ग्राम पोटेशीयम सल्फेट आदि को अच्छी तरह मिलाकर भर दें। जनवरी माह में इन गड्ढों में 1 साल पुरानी जड़वाली कलमों को लगा दें। बेल लगाने के तुंरत बाद पानी आवश्यक है। 

बेलों की सधाई एवं छंटाई 
बेलों से लगातार अच्छी फसल लेने के लिए एवं उचित आकर देने के लिए साधना एवं काट - छाँट की सिफारिश की जाती है। बेल को उचित आकर देने के लिए इसके अनचाहे भाग के काटने को साधना कहते हैं, एवं बेल में फल लगने वाली शाखाओं को सामान्य रूप से वितरण हेतु किसी भी हिस्से की छंटनी को छंटाई कहतें हैं। 
अंगूर की बेल साधने हेतु पण्डाल, बाबर, टेलीफोन, निफिन एवं हैड आदि पद्धतियाँ प्रचलित हैं। लेकिन व्यवसायिक इतर पर पण्डाल पद्धति ही अधिक उपयोगी सिद्ध हुयी है। पण्डाल पद्धति द्वारा बेलों को साधने हेतु 2.1 - 2.5 मीटर ऊँचाई पर कंक्रीट के खंभों के सहारे लगी तारों के जाल पर बेलों को फैलाया जाता है। जाल तक पहुँचने के लिए केवल एक ही ताना बना दिया जाता है। तारों के जाल पर पहुँचने पर ताने को काट दिया जाता है ताकि पार्श्व शाखाएँ उग आयें।उगी हुई प्राथमिक शाखाओं पर सभी दिशाओं में 60 सेमी दूसरी पार्श्व शाखाओं के रूप में विकसित किया जाता है। इस तरह द्वितीयक शाखाओं से 8 - 10 तृतीयक शाखाएँ विकसित होंगी इन्ही शाखाओं पर फल लगते हैं। 

छंटाई 
बेलों से लगातार एवं अच्छी फसल लेने के लिए उनकी उचित समय पर काट - छाँट अति आवश्यक है। छंटाई कब करें : जब बेल सुसुप्त अवस्था में हो तो छंटाई की जा सकती है, परन्तु कोंपले फूटने से पहले प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए। सामान्यतः काट - छांट जनवरी माह में की जाती है। 

कितनी छंटाई करें 
छंटाई की प्रक्रिया में बेल के जिस भाग में फल लगें हों, उसके बढे हुए भाग को कुछ हद तक काट देते हैं। यह किस्म विशेष पर निर्भर करता है। किस्म के अनुसार कुछ स्पर को केवल एक अथवा दो आँख छोड़कर शेष को काट देना चाहिए। इन्हें 'रिनिवल स्पर' कहते हैं। आमतौर पर जिन शाखाओं पर फल लग चुके हों उन्हें ही रिनिवल स्पर के रूप में रखते हैं। 
छंटाई करते समय रोगयुक्त एवं मुरझाई हुई शाखाओं को हटा दें एवं बेलों पर ब्लाईटोक्स 0.2 % का छिडकाव अवश्य करें। 
किस्म कितनी आँखें छोडें 
1 ब्यूटी सीडलेस 3 - 3 
2 परलेट 3-4 
3 पूसा उर्वसी 3-5 
4 पूसा नवरंग 3-5 
5 पूसा सीडलेस 8-10 

सिंचाई 
नवम्बर से दिसम्बर माह तक सिंचाई की खास आवश्यकता नहीं होती क्योंकि बेल सुसुप्ता अवस्था में होती है लेकिन छंटाई के बाद सिंचाई आवश्यक होती है। फूल आने तथा पूरा फल बनने (मार्च से मई ) तक पानी की आवश्यकता होती है। क्योंकि इस दौरान पानी की कमी से उत्पादन एवं हुन्वात्ता दोनों पर बुरा असर पड़ता है। इस दौरान तापमान तथा पर्यावरण स्थितियों को ध्यान में रखते हुए 7 - 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। फल पकने की प्रक्रिया शुरू होते ही पानी बंद कर देना चाहिए नहीं तो फल फट एवं सड़ सकते हैं। फलों की तुडाई के बाद भी एक सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए। 

खाद एवं उर्वरक 
अंगूर की बेल भूमि से काफी मात्र में पोषक तत्वों को ग्रहण करती है। अतः मिट्टी कि उर्वरता बनाये रखने के लिए एवं लगातार अच्छी गुणवत्ता वाली फसल लेने के लिए यह आवश्यक है की खाद और उर्वरकों द्वारा पोषक तत्वों की पूर्ति की जाये। पण्डाल पद्धति से साधी गई एवं 3 x 3 मी. की दुरी पर लगाई गयी अंगूर की 5 वर्ष की बेल में लगभग 500 ग्राम नाइट्रोजन, 700 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश, 700 ग्राम पोटेशियम सल्फेट एवं 50 - 60 कि.ग्रा. गोबर की खाद की आवश्यकता होती है। 

खाद कब दें 
छंटाई के तुंरत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में नाइट्रोजन एवं पोटाश की आधी मात्र एवं फास्फोरस की सारी मात्र दाल देनी चाहिए। शेष मात्र फल लगने के बाद दें। खाद एवं उर्वरकों को अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने के बाद तुंरत सिंचाई करें। खाद को मुख्य तने से दूर १५-२० सेमी गहराई पर डालें। 

कैसे करें फल गुणवत्ता में सुधार 
अच्छी किस्म के खाने वाले अंगूर के गुच्छे मध्यम आकर, मध्यम से बड़े आकर के बीजरहित दाने, विशिष्ट रंग, खुशबू, स्वाद व बनावट वाले होने चाहिए। ये विशेषताएं सामान्यतः किस्म विशेष पर निर्भर करती हैं। परन्तु निम्नलिखित विधियों द्वारा भी अंगूर की गुणवत्ता में अपेक्षा से अधिक सुधार किया जा सकता है। 

फसल निर्धारण 
फसल निर्धारण के छंटाई सर्वाधिक सस्ता एवं सरल साधन है। अधिक फल, गुणवत्ता एवं पकने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव छोड़ते हैं। अतः बेहतर हो यदि बाबर पद्धति साधित बेलों पर 60 - 70 एवं हैड पद्धति पर साधित बेलों पर 12 - 15 गुच्छे छोड़े जाएं। अतः फल लगने के तुंरत बाद संख्या से अधिक गुच्छों को निकाल दें। 

छल्ला विधि 
इस तकनीक में बेल के किसी भाग, शाखा, लता, उपशाखा या तना से 0.5 से.मी. चौडाई की छाल छल्ले के रूप में उतार ली जाती है। छाल कब उतारी जाये यह उद्देश्य पर निर्भर करता है। अधिक फल लेने के लिए फूल खिलने के एक सप्ताह पूर्व, फल के आकर में सुधार लाने के लिए फल लगने के तुंरत बाद और बेहतर आकर्षक रंग के लिए फल पकना शुरू होने के समय छाल उतारनी चाहिए। आमतौर पर छाल मुख्य तने पर 0.5 से.मी चौडी फल लगते ही तुंरत उतारनी चाहिए। 

वृद्धि नियंत्रकों का उपयोग 
बीज रहित किस्मों में जिब्बरेलिक एसिड का प्रयोग करने से दानो का आकर दो गुना होता है। पूसा सीडलेस किस्म में पुरे फूल आने पर 45 पी.पी.एम. 450 मि.ग्रा. प्रति 10 ली. पानी में, ब्यूटी सीडलेस मने आधा फूल खिलने पर 45 पी.पी.एम. एवं परलेट किस्म में भी आधे फूल खिलने पर 30 पी.पी.एम का प्रयोग करना चाहिए। जिब्बरेलिक एसिड के घोल का या तो छिडकाव किया जाता है या फिर गुच्छों को आधे मिनट तक इस घोल में डुबाया जाता है। यदि गुच्छों को 500 पी.पी.एम 5 मिली. प्रति 10 लीटर पानी में इथेफ़ोन में डुबाया जाये तो फलों में अम्लता की कमी आती है। फल जल्दी पकते हैं एवं रंगीन किस्मों में दानों पर रंग में सुधार आता है। यदि जनवरी के प्रारंभ में डोरमैक्स 3 का छिडकाव कर दिया जाये तो अंगूर 1 - 2 सप्ताह जल्दी पक सकते हैं। 

फल तुड़ाई एवं उत्पादन 
अंगूर तोड़ने के पश्चात् पकते नहीं हैं, अतः जब खाने योग्य हो जाये अथवा बाजार में बेचना हो तो उसी समय तोड़ना चाहिए। शर्करा में वृद्धि एवं तथा अम्लता में कमी होना फल पकने के लक्षण हैं। फलों की तुडाई प्रातः काल या सायंकाल में करनी चाहिए। उचित कीमत लेने के लिए गुच्छों का वर्गीकरण करें। पैकिंग के पूर्व गुच्छों से टूटे एवं गले सड़े दानों को निकाल दें। अंगूर के अच्छे रख - रखाव वाले बाग़ से तीन वर्ष पश्चात् फल मिलना शुरू हो जाते हैं और 2 - 3 दशक तक फल प्राप्त किये जा सकते हैं। परलेट किस्म के 14 - 15 साल के बगीचे से 30 - 35 टन एवं पूसा सीडलेस से 15 - 20 टन प्रति हैक्टेयर फल लिया जा सकता है। 

बीमारियाँ एवं कीट 
बीमारियाँ 
उत्तरी भारत में अंगूर को मुख्यतः एन्थ्रक्नोज एवं सफ़ेद चुरनी रोग ही मुख्य बीमारियाँ हैं। एन्थ्रक्नोज बहुत ही विनाशकारी रोग है। इसका प्रभाव फल एवं पत्ती दोनों पर होता है। पत्तों की शिराओं के बीच जगह - जगह टेढ़े-मेढ़े गहरे भूरे दाग पद जाते हैं। इनके किनारे गहरे भूरे या लाल रंग के होते हैं। परन्तु मध्य भाग धंसा हुआ हलके रंग का होता है और बाद में पत्ता गिर जाता है। आरम्भ में फलों पर धब्बे हल्के रंग के होते हैं परन्तु बाद में बड़ा आकर लेकर बीच में गहरे हो जाते हैं तथा चारों ओर से लालिमा से घिर जाते हैं। इस बीमारी के नियंत्रण हेतु छंटाई के बाद प्रभावित भागों को नष्ट कर दे। कॉपर आक्सीक्लोराइड 0.2 % के घोल का छिड़काव करें एवम पत्ते निकलने पर 0.2 % बाविस्टिन का छिड़काव करें। वर्षा ऋतु में कार्बेन्डाजिम 0.2% का छिडकाव 15 दिन के अंतराल पर आवश्यक है। 

सफ़ेद चूर्णी रोग 
अन्य फफूंद बीमारियों की अपेक्षा यह शुष्क जलवायु में अधिक फैलाती है। प्रायः पत्तों, शाखाओं, एवं फलों पर सफ़ेद चूर्णी दाग देखे जा सकते हैं। ये दाग धीरे - धीरे पुरे पत्तों एवं फलों पर फ़ैल जाते हैं। जिसके कारण फल गिर सकते हैं या देर से पकते हैं। इसके नियंत्रण के लिए 0.2% घुलनशील गंधक, या 0.1% कैरोथेन के दो छिडकाव 10 - 15 दिन के अंतराल पर करें। 

कीट 
थ्रिप्स, चैफर, बीटल एवं चिडिया, पक्षी अंगूर को हानि पहुंचाते हैं। थ्रिप्स का प्रकोप मार्च से अक्तूबर तक रहता है। ये पत्तियों, शाखाओं, एवं फलों का रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम के लिए 500 मिली. मेलाथियान का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें। 
चैफर बीटल कीट रात में पत्तों को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त करता है, वर्षाकाल में 10 दिन के अंतराल पर 10 % बी.एच.सी. पावडर बुरक देना इस कीट के नियंत्रण हेतु लाभदायक पाया गया है। 
चिडिया अंगूर को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। फल पकने के समय चिडिया गुच्छे खा जाती है। अतः घर से आंगन में लगी बेल के गुच्छों को हरे रंग की मलमल की थैलियों से ढक देना चाहिए। बड़े - बड़े बगीचों में नाइलोन के जाल से ढक दें , ढोल बजाकर चिडियों से छुटकारा पाया जा सकता है। 

organic farming: 
जैविक खेती: