देशी पपीता: लाभदायक खेती

पपीता (केरिका पपाया) भारत में बहुतायत में उगाया जाता है। इसकी खेती भारत के अधिकांश राज्यों में की जाती है। इसके फल में 0.5 प्रतिशत प्रोटीन, 9.0 प्रतिशत कार्बोहाइडेªट , 0.1 प्रतिशत वसा तथा प्रचुर खनिज तत्व (आयरन, कैल्शियम तथा फास्फोरस), 25 प्रतिशत विटामिन-ए (अन्र्तराष्ट्रीय इकाई ), 70 मिलीग्राम विटामिन-सी प्रति 100 ग्राम फल में पाये जाते है।
इसके कच्चे फल से पपेन निकाला जाता है, जो च्युइन्गम बनाने, चमड़ा उद्योग तथा पाचक दवाईयां बनाने में किया जाता है। इसके पके फल लिवर एवं पाचनतंत्र की सक्रियता को बढ़ाते हैं साथ ही स्वादिष्ट एवं रूचिकर होते है।

भूमि एवं जलवायु:-

हल्की गर्मी धूप तथा पर्याप्त सिंचाई वाले क्षेत्रों में प्रचूर जीवांश वाली हल्की भूमि जैसे दोमट तथा मध्यम काली मिट्टी में पपीते की खेती की जा सकती है। जल जमाव वाली, पथरीली या कंकरीली भूमि में पपीते की खेती लाभदायक नहीं होती हैं।
पपीते में नर तथा मादा पौधे अलग-अलग होेते है मादा पौधो मे फूलों से बनने वाले फल अलग-अलग आकार तथा गुणों वाले होते हैं । कच्चे फल का छिलका हरा होता है, जो पकने पर पीला पड़ जाता है । इसका हल्का गूदा पीला या नारंगी रंग का होता है । फल में गहरे भूरे रंग के बीज अन्दरूनी दिवार से चिपके रहते हैं। बीजो को उचित अन्कुरण क्षमता हेतु सूखाने से पहले राख या बोरी से रगड़ कर साफ कर लेना चाहिए।

नर्सरी की तैयारी:-

लगभग 500 ग्राम बीज एक हैक्टेयर खेत के लिए पर्याप्त होते हैं। इससे लगभग 10000 रोप तैयार किये जाते हैं। खेत की 6 इंच गहरी जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा बना लें। मिट्टी से भूसा, खरपतवार, फसलों की जड़े, अधगले पत्तें एवं डंठल निकाल लें । अब 6ग6 फिट की दूरी पर क्यारियां तैयार कर इन्हंे समतल बना लें। बुआई हेतु स्वस्थ एवं परीपक्व बीजों का ही उपयोग करें। बीजों को आधा इंच गहरा, एक इंच (बीज से बीज की दूरी) तथा 3 इंच (कतार से कतार की दूरी) पर बोयें। बुआई पश्चात बीज की कतारों को मिट्टी से ढॅंक दंे। क्यारी के चारों ओर 6 इंच ऊंची मेड़ बनाये तथा फव्वारे से क्यारी की सिंचाई करें। पौधों को तेज धूप से बचाने के लिए क्यारी के ऊपर छप्पर बनाये । क्यारी की सिंचाई 2-3 दिनों के अन्तराल से फव्वारे द्वारा की जानी चाहिए। इस प्रकार बोये गये बीज 10 से 15 दिन में उग जाते है

बरसाती नर्सरी:-

बरसात की नर्सरी के लिए क्यारी को भूमि से 3-4 इंच ऊंचा उठा हुआ बनाया जाता है। त्वरित जल निकासी के लिए क्यारी के चारों ओर मेड़ न बनाकर ढलान रखी जाती है।

पौधों का पाॅलिथीन बैग में स्थानांतरणः-

इसके लिए 50 ग्राम गोबर की खाद (पूर्ण गली तथा छानी हुई) 2 ग्राम बी.एच.सी. धूल, 100 ग्राम बालू तथा आधा किलो भुरभुरी मिट्टी अच्छी तरह मिलाकर पाॅलिथीन बैग में भर लंे। इस बैग में 1-2 इंच की दूरी पर छोटे-छोटे छेद कर लेने उगने के एक सप्ताह बाद क्यारी से पौधों को पाॅलिथीन बैग में सावधानी पूर्वक रख देना चाहिए। इन पाॅलिथीन बैगों को किसी छप्पर के नीचे कतारों मे रखें तथा प्रतिदिन फव्वारे से हल्की सिंचाई करें। 10-15 दिन के बाद इन पौधों को पाॅलिथीन बैग से निकालकर खेत में बनाए गए गड्ढों में स्थानांतरित किया जाता हैं। भूमि में 2 गुणा 2 फीट वर्गाकार एवं ढाई फीट गहरे गड्ढे खोदें। इन खुले गड्ढों को 10-12 दिन धूप में सूखने दें। 2 गड्ढों के बीच की दूरी 6 फीट होनी चाहिए। प्रत्येक गड्ढे को भरने के लिए 15 किलो गोबर की खाद (गली तथा छनी हुई), आधा किलो नीम की खली, 50 ग्राम यूरिया तथा 100 ग्राम मिश्रित नत्रजन: स्फुर: पोटाश (12ः32ः16) खाद तथा गड्ढे से निकली हुई मिट्टी अच्छी तरह साफ करके एवं भुरभुरी मिट्टी को गड्ढों में भर लें। 10-15 दिनों बाद पौधांे को पाॅलिथीन बैग से निकाल कर मिट्टी भरे हुये गड्ढों में लगा दें।
पौधांे को बगीचे में लगाना:-
तीन स्वस्थ पौधों को पाॅलिथीन बैग से निकालकर गड्ढे में त्रिकोणाकार में लगायें। प्रत्येक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी एक फीट रहना चाहिए। प्रत्येक गड्ढे में तीन पौधे इसलिए लगाए जाते हैं, ताकि बगीचे में प्रत्येक 100 पौधों पर कम से कम दस नर पौधों को निषेचन के लिए अवश्य रखना चाहिए।
नर पौधों की बारम्बरता 50 प्रतिशत होती हैं। बाद में फिर उत्तम नर पौधों को ही रखना चाहिए व अन्य नर पौधों को उखाड़ देना चाहिए। अंत में केवल एक ही स्वस्थ पौधा प्रत्येक गड्ढे में रखना चाहिए।
उर्वरक:-
पौधे के बाहर गोलाकार (पत्तियों की छाया वाले) घेरे में 50 ग्राम यूरिया एवं 100 ग्राम मिश्रित खाद (एन.पी.के. 12ः32ः16) ) डाल दें। खाद की यह मात्रा प्रत्येक पौधे को क्यारी में लगाने के 30, 50 तथा 75 दिन के बाद ही डालें।
सिंचाई:-
मेड़, पौधे के चारों ओर गोलाई में बनाएं तथा प्रत्येक 15 दिन पर उचित सिंचाई करें। पौधों के ऊपर मिट्टी चढ़ाएं, ताकि पौधा जल के सीधे संपर्क में न आए पौधे के इर्द-गिर्द निंदाई, गुडा़ई करते रहना चाहिए।
पपीते के रोग एवं निदान: –
लाल मकड़ी: –
यह कीट पके फलों पर भूरे तथा खुरदरे धब्बे बनाते हैं। पत्तियां पीली होने लगती हैं। इस रोग से फलों को बचाने के लिए सल्फर व मेजिस्टर का छिड़काव करके इसका नियंत्रण किया जा सकता है।
एन्थ्रेक्रोज:-
यह रोग पत्तों तथा फल में हल्के गड्ढे बना देता है तथा अधपके फल गिरने लगते हैं। इस रोग से पत्तों व फल को बचाने के लिए बुरगन्डी मिक्सचर (5 कि.ग्रा. नीला थोथा व 6 किलोग्राम वाशिंग सोड़ा 450 लीटर पानी में) का उपयोग किया जाता हैं। इस मिश्रण को रोगग्रस्त पौधों की जड़ों में डाल देना चाहिए तथा तने के निचले हिस्से में लगा देना चाहिए ।
काॅलर राॅट:-
यह रोग भूमि जनित रोग है। जिसमें जल जमाव के कारण, जमीन के पास तना गलने लगता है। इसके बाद पत्तियां सूखने लगती है। इसकी रोकथाम के लिए पौधों के तने के आसपास जल-जमाव नहीं होने दें। इस रोग के नियंत्रण के लिए बोर्डो मिक्सचर (5 कि.ग्रा. नीला थोथा व 6 कि.ग्रा. चूना, 50 लीटर पानी में) या ब्लाइटाॅक्स या कैप्टाॅन ( 0.3 प्रतिशत) का उपयोग करें। इस मिश्रण को रोगग्रस्त पौधों की जड़ों में डाल देना चाहिए तथा तने के निचले हिस्से में लगा देना चाहिए ।
मोजैक:-
यह रोग विषाणु जनित होता है, जिसके कारण पत्तियां छोटी, घुमावदार व सिलवटदार हो जाती है। पत्ती के हरे तन्तुओं पर फफोले जैसी आकृतियां बन जाती है। इस रोग से पौधों की बढ़वार रूक जाती है तथा कुछ समय बाद पौधा मर जाता है। रोगी पौधों को शीघ्र निकाल कर उनको पानी देना चाहिए। पपीते के बगीचे के पास बेल वाले पौधों की खेती नहीं करना चाहिए। रोग के नियंत्रण के लिए सफेद रंग की मक्खी का नियंत्रण करना चाहिए। जिसके लिए मैलाथियान दवा (1 प्रतिशत) का छिड़काव 15-15 दिन के अंतराल से करना चाहिए।
उत्पादन:-
इस प्रजाति के पौधों से फल तोड़ना सुविधाजनक होता है, क्योंकि इसकी ऊंचाई मात्र 4-5 फीट होती है। प्रत्येक पौधे में 800 ग्राम से 1500 ग्राम तक के 40-50 फल लगते हैं। फलों को हल्का-पीला होने पर तोड़ लेना चाहिए तथा पूरा पकने के लिए कागज में लपेटकर 2-3 दिन के लिए रख दें। यह फल रूचिकर स्वाद और गंध वाले होते है।
देखभाल:- नर्सरी में कुछ पौधे बाद में खेत स्थानांतरण के लिए बचाकर रखें। बगीचे से अस्वस्थ पौधे निकालकर स्वस्थ पौधे लगाते रहना चाहिए। खरपतवारों की निंदाई करें तथा पौधों पर मिट्टी भी अवश्य चढ़ानी चाहिए। बगीचे को तेज हवाओं, रोग-कीट एवं जल-जमाव से बचाने के लिए यथासंभव उपाय करने चाहिए। बगीचे के पास में फूल वाले पौधों से परागण तथा बीज उत्पादन में सहायता मिलती है।

organic farming: 
जैविक खेती: