मानसून

मानसून मूलतः हिन्द महासागर एवं अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर आनी वाली हवाओं को कहते हैं जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में भारी वर्षा करातीं हैं। ये ऐसी मौसमी पवन होती हैं, जो दक्षिणी एशिया क्षेत्र में जून से सितंबर तक, प्रायः चार माह सक्रिय रहती है। इस शब्द का प्रथम प्रयोग ब्रिटिश भारत में (वर्तमान भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश) एवं पड़ोसी देशों के संदर्भ में किया गया था। ये बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से चलने वाली बड़ी मौसमी हवाओं के लिये प्रयोग हुआ था, जो दक्षिण-पश्चिम से चलकर इस क्षेत्र में भारी वर्षाएं लाती थीं। हाइड्रोलोजी में मानसून का व्यापक अर्थ है- कोई भी ऐसी पवन जो किसी क्षेत्र में किसी ऋतु-विशेष में ही अधिकांश वर्षा कराती है। यहां ये उल्लेखनीय है, कि मॉनसून हवाओं का अर्थ अधिकांश समय वर्षा कराने से नहीं लिया जाना चाहिये। इस परिभाषा की दृष्टि से संसार के अन्य क्षेत्र, जैसे- उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, उप-सहारा अफ़्रीका, आस्ट्रेलिया एवं पूर्वी एशिया को भी मानसून क्षेत्र की श्रेणी में रखा जा सकता है। ये शब्द हिन्दी व उर्दु के मौसम शब्द का अपभ्रंश है। मॉनसून पूरी तरह से हवाओं के बहाव पर निर्भर करता है। आम हवाएं जब अपनी दिशा बदल लेती हैं तब मॉनसून आता है।. जब ये ठंडे से गर्म क्षेत्रों की तरफ बहती हैं तो उनमें नमी की मात्र बढ़ जाती है जिसके कारण वर्षा होती है।

नामकरण एवं परिभाषामानसून से अभिप्राय है- 'वे हवाएँ, जिनकी दिशा ऋतु के अनुसार बदल जाती है।' हिन्द महासागर एवं अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर आनी वाली वे विशेष हवाएँ, जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में भारी वर्षा करातीं हैं। मानसून भारतीय कृषि और अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम है, इसके साथ ही भारत के लोक जीवन से भी गहरे जुड़ा है। यह गर्मी की तपिश से निजात दिलाता है और लोगों में उत्साह व खुशी का संचार करता है। भारत में मानसून हिन्द महासागर व अरब सागर की ओर से हिमालय की ओर आने वाली हवाओं पर निर्भर करता है। जब ये हवाएँ भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर पश्चिमी घाट से टकराती हैं तो भारत तथा आस-पास के देशों में भारी वर्षा होती है। ये हवाएँ दक्षिण एशिया में जून से सितम्बर तक सक्रिय रहती हैं। वैसे किसी भी क्षेत्र का मानसून उसकी जलवायु पर निर्भर करता है।

प्रकार
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की अर्थव्यवस्था अधिकांशत: कृषि पर ही निर्भर है। इसीलिए यह बहुत आवश्यक है कि पर्याप्त मात्रा में जल कृषि के लिए उपलब्ध हो। मानसून में होने वाली अच्छी वर्षा काफ़ी हद तक किसानों को समृद्ध बना देती है। भारत ही नहीं विश्व की कई प्रमुख फ़सलें मानसूनी वर्षा पर निर्भर हैं। भारत अगर छह ऋतुओं का देश है, तो मानसून उस चक्र की धुरी है। आज भी मानसून से होने वाली वर्षा, भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है। सकल घरेलू उत्पाद का 30 प्रतिशत कृषि से आता है, जबकि लगभग 67 प्रतिशत मज़दूरों की निर्भरता कृषि या इस पर आधारित उद्योगों पर ही है। मानसूनी हवाओं के दो प्रकार होते हैं-

गर्मी का मानसून, जो अप्रैल से सितम्बर तक चलता है।
जाड़े का मानसून, जो अक्टूबर से मार्च तक चलता है।
भारत में वर्षा करने वाला मानसून दो शाखाओं में बँटा होता है-

अरब सागर का मानसून
बंगाल की खाड़ी का मानसून
नाम तथा विस्तार
भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया में कृषि का आधार मानसून है। 'मानसून' शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के 'मौसिम' शब्द से हुई है। अरब के समुद्री व्यापारियों ने समुद्र से स्थल की ओर या इसके विपरीत चलने वाली हवाओं को 'मौसिम' कहा, जो आगे चलकर 'मानसून' कहा जाने लगा। मानसून का जादू और इसका जीवन–संगीत भारतीय उपमहाद्वीप में ही फैला हो, ऐसा नहीं है। वास्तव में, यह पृथ्वी पर सबसे बड़ी जलवायु संरचना है। भूगोल पर इसका विस्तार लगभग 10 डिग्री दक्षिणी अक्षांश से लेकर 25 डिग्री उत्तरी अक्षांश तक है। यद्यपि मानसून मुख्य रूप से दक्षिण और दक्षिण–पूर्व एशिया, मध्य अफ़्रीका तथा उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में पूर्ण विकसित रूप में मिलता है, किंतु अमेरिका और मेक्सिको के पश्चिमी भागों तक इसके तार जुड़े हैं। संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा एशिया में थाइलैंड, म्यांमार, लाओस तथा वियतनाम में मानसून का प्रभाव गर्मियों में स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है, जबकि हिन्द महासागर के विस्तृत जलराशि के चलते इंडोनेशियाई द्वीप समूहों पर इसका प्रभाव कम है। दक्षिणी चीन एवं फिलीपींस में जाड़े के दिनों में चलने वाली व्यापारिक पवनों का गर्मी के दिनों में गायब होना भी मानसूनी हवाओं के चलते ही है।

भौगोलिक तथ्य
प्रकृति के लय-ताल में बँधे मानसून चक्र को पृथ्वी और समुद्री जल के ऊपर वर्ष भर पड़ने वाली सौर ऊष्मा के फलस्वरूप होने वाले तापांतर के रूप में समझा जा सकता है। जलीय एवं स्थलीय भागों में सौर विकिरण को धारण करने की क्षमता अलग-अलग होती है। स्थल भाग की तुलना में, सूर्य की ऊष्मा समुद्री जल को अधिक देर से गर्म कर पाती है। जाड़े के पश्चात अप्रैल-मई में सूर्य की गर्मी पाकर, भारतीय प्रायद्वीप तथा दक्षिण-पूर्व एशिया का स्थलीय भाग, जहाँ खूब गर्म हो जाता है, वहीं हिन्द महासागर की विशाल जलराशि अपेक्षाकृत ठंडी होती है।

मानसूनी वर्षा में गुजरते वाहन
स्थलीय भाग में हवाएँ गर्म होकर ऊपर की ओर उठती हैं और निम्न दाब की स्थिति पैदा हो जाती है। तापांतर और निम्न दाब की स्थिति में अरब सागर और 'बंगाल की खाड़ी' में उच्चदाब की स्थिति वाली शीतल समुद्री पवन अपने साथ भारी नमी लिए आगे बढ़ती है। भारतीय प्रायद्वीप के पश्चिम में सहयाद्रि और उत्तर में हिमालय पर्वत जैसे रुकावट को पाकर मानसूनी हवाएँ ऊपर उठती हैं और शीतलन के पश्चात उसकी नमी से संघनित होकर वर्षा की बूँदों में बदल जाती है। अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में प्रायः एक साथ उठने वाली मानसूनी पवन के आगे बढने पर केरल के निकट पश्चिमी घाट और पूर्वी भारत के मेघालय में गारो-खासी की पहाड़ियों से टकराकर 2500 मिलीमीटर से भी अधिक वर्षा करती है।[1]
'बंगाल की खाड़ी' से चलने वाली शाखा पूर्वी एवं पूर्वोत्तर भारत, म्यांमार, भूटान और नेपाल में वर्षा करती है। दक्षिण-पूर्वी मानसून की दोनों शाखाएँ आगे बढने पर गंगा के मैदानी हिस्से में मिलकर पश्चिम भारत होते हुए पाकिस्तान की ओर बढ़ जाती है। दक्षिण-पूर्वी मानसून जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, उसकी नमी कम होती जाती है और वर्षा की मात्रा भी। सितम्बर के अंत में स्थिति उल्टी होने पर, हवाएँ अपना रुख बदल लेती हैं और मध्य भारत के मैदानों और 'बंगाल की ख़ाड़ी' के ऊपर से लौटते हुए वापसी में नमी से भर जाती हैं। उत्तर–पश्चिमी दिशा में बहती हुई, नमी से भरी ये मानसूनी हवाएँ लौटते समय भारत के तमिलनाडु, श्रीलंका तथा ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी भागों में सामान्य से भारी वर्षा करती हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण
मानसून की उत्पत्ति एवं इसकी भविष्यवाणी प्रारंभ से ही लोगों के लिए जिज्ञासा एवं खोज का विषय रहा है। ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर वर्षा के दिनों का अनुमान प्राचीन काल से ही भारतीय पंडितों द्वारा किया जाता रहा है। आने वाली मानसून से संभावित वर्षा का पूर्वानुमान कोई आसान काम नहीं है। वैज्ञानिक तरीके से 1884 से ही इस दिशा में प्रयास चल रहे हैं। भारतीय उप-महाद्वीप में मानसून की लंबी अवधि के लिए भविष्यवाणी की जिम्मेदारी 1875 में स्थापित 'भारत मौसम विभाग' निभा रहा है। मौसम विभाग द्वारा 16 क्षेत्रीय एवं वैश्विक राशियों का उपयोग कर 1988 में एक मॉडल विकसित किया गया, ताकि लंबी अवधि के लिए मानसून की भविष्यवाणी की जा सके। इन राशियों में तापमान से संबधित 6, वायुदाब क्षेत्र से संबधित 3, दबाव में भिन्नता की स्थिति के लिए 5 तथा हिमक्षेत्र से संबधित 2 राशि हैं। विभिन्न स्थानों पर लिए गए ताप, दाब, आर्दता जैसी स्थलीय, समुद्री एवं वायुमंडलीय भौतिक राशियों के मान पर आधारित सांख्यिकीय मॉडल की सहायता से संभावित मानसून की वर्षा का अनुमान लगाया जाता है। 'सुपर कंप्यूटर' का भी उपयोग कर, घात प्रतिगमन मॉडल की सहायता से प्राप्त वर्ष-मान 4 प्रतिशत संभावित त्रुटि सीमा के लिए स्वीकार्य होता है।

16 मई तक भारत में दस्तक देगा मानसून

16 मई तक भारत में दस्तक देगा मानसून

 इस बार मानसून अच्छा रहने के संकेत मिल रहे हैं. साथ ही मौसम विभाग का कहना है कि भारत में मानसून 16 या 17 मई तक भारत में दस्तक देगा. मौसम विभाग के अनुसार14 मई को श्रीलंका के पास बंगाल की खाडी में एक कम दबाव का क्षेत्र बन जाएगा. जिसके कारण तमिलनाडु के पास समुद्र में 30 से 40 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से हवाएं चलने की आशंका है. 16 मई तक कम दबाव का क्षेत्र और ज्यादा ताकतवर होकर डिप्रेशन में तब्दील हो जाएगा. 

पारा गिरानें से आई किसानों के चेहरों की मुस्कान

पारा गिरानें से आई किसानों के चेहरों की मुस्कान

लगातार दो बार कमज़ोर मानसून की मार झेलने के बाद और इस बार अधिक ठंड ना पड़ने के कारण परेशान किसानों ने लगता है उम्मीद का दमन छोड़ा नहीं है। मौजूदा समय में लगातार तापमान बढ़ने से किसानों को रबी की फसल को लेकर चिंता सताने लगी थी लेकिन जब तापमान में गिरावट आई और ठिठुरन बढ़ी तो उनके चेहरों पर रौनक लौट आई है। गौरतलब है कि गेहूं जैसी मुख्य फसलों के लिए ज्यादा सर्दी की जरूरत होती है। माना ये जाता है कि सर्दी जितनी अधिक होगी, गेहूं की पैदावार उतनी ही बेहतर होती है।

 

कमजोर मानसून की स्थिति को देखते हुए किसानों को सलाह

कमजोर मानसून  की स्थिति को देखते हुए किसानों को सलाह

विलंब से मानसून एवं अल्प वर्षा की स्थिति में कृषकों को खेती-किसानी को लेकर समसामयिक सलाह दी गई है। यदि फसल की बोनी के पश्चात प्राप्त अंकुरण 50 प्रतिशत से कम हो तथा यह स्थिति 15 जुलाई के पूर्व है, तो 15 जुलाई तक पुनः बोनी की जा सकती है। 15 जुलाई से 20 जुलाई के मध्य यदि बोनी की जानी है तो 10 प्रतिशत अधिक बीज दर का उपयोग करें।