आंकड़ों और प्रयोगों ने किया भारतीय कृषि का सत्यानाश

आंकड़ों और प्रयोगों ने किया भारतीय कृषि का सत्यानाश

भारत में ऋग्वैदिक काल से ही कृषि पारिवारिक उद्योग रहा है। लोगों को कृषि संबंधी जो अनुभव होते रहे हैं, उन्हें वे अपने बच्चों को बताते रहे हैं। उनके अनुभवों ने कालांतर में लोकोक्तियों और कहावतों का रूप धारण कर लिया, जो विविध भाषा-भाषियों के बीच किसी न किसी कृषि पंडित के नाम प्रचलित हैं। हिंदी भाषा-भाषियों के बीच ये 'घाघ' और 'भड्डरी' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके ये अनुभव आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य मे खरे उतरे हैं, लेकिन आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम विदेशियों की तरफ आकृष्ट होने लगे हैं।

 

1960 के बाद उच्च उपज बीज हाइब्रिड का प्रयोग शुरू हुआ। इससे सिंचाई, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ गया। खेती में सिंचाई की ज्यादा जरूरत पड़ने लगी। इसके साथ ही गेहूं और चावल के उत्पादन में काफी बढ़ोतरी हुई। इस कारण इसे हरित क्रांति भी कहा गया। पंजाब, हरियाणा और यूपी के किसानों ने खेती के आधुनिक तरीकों का सबसे पहले प्रयोग किया। हालांकि, आधुनिक कृषि विधियों ने प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन किया। अब इसके दुष्परिणाम भी दिखाई देने लगे हैं।

 

उर्वरकों के अधिक प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता कम हो गई है। नलकूपों से सिंचाई के कारण भूमिजल के निष्कासन से भूमिगत जलस्तर बहुत नीचे चला गया है। भारत में सिंचाई का मतलब खेती और कृषि गतिविधियों के प्रयोजन के लिए नदियों, तालाबों, कुओं, नहरों और अन्य कृत्रिम परियोजनाओं से पानी की आपूर्ति करना है। भारत जैसे देश में खेती करने की 64 फीसदी जमीन मानसून पर निर्भर होती है। यहां सिंचाई का आर्थिक महत्व है- उत्पादन में अस्थिरता को कम करना, कृषि उत्पादकता की उन्नति करना, मानसून पर निर्भरता को कम करना, बिजली और परिवहन की सुविधा को बढ़ाना, बाढ़ और सूखे की रोकथाम को नियंत्रण में करना।

 

आधे से भी कम लोग यानी सिर्फ 45 फीसदी लोग ही कृषि पर निर्भर रह गए हैं। यह हालत इसके खोखलेपन को बताती है। सह कृषि के रूप में बागवानी, मत्स्य पालन, पशुपालन, कुक्कुट पालन, मधुमक्खी पालन और फूड प्रोसेसिंग आदि अनेक कार्य शामिल हैं। इनसे न सिर्फ पारंपरिक खेती पर बोझ कम होता है, बल्कि वे उत्पादों में भिन्नता लाते हैं और कृषि के विकल्प भी बनते हैं। अफसोस है कि इनमें से अधिकांश पदों पर कृषि विशेषज्ञ नहीं, बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बैठे हुए हैं, जिन्हें खेती-बारी का कोई ज्ञान ही नहीं है।

 

कृषि आज भी देश की प्राथमिक आवश्यकता है। संसद में पेश ताजा आंकड़ों के अनुसार, देश के कुल 40 करोड़ 22 लाख श्रमिकों में करीब 57 फीसदी लोग कृषि में ही समायोजित हैं। स्थिति यह है कि देश में इस समय कोई किसान आयोग नहीं है। किसानों को जब तक उनकी जमीन पर खेती के बदले एक निश्चित आमदनी की गारंटी नहीं दी जाएगी तब तक कोई कि‍सानों का उत्‍साह नहीं बढ़ेगा। खेती से होने वाली आमदनी को बढ़ाने के प्रयास इस तरह किए जाने चाहिए कि किसान धीरे-धीरे सरकारी अनुदान से मुक्त होकर खेती पर निर्भर रह सकें। भारतीय कृषि सिर्फ खाद्यान्न उत्पादन योजना भर नहीं, बल्कि एक समृद्ध परंपरा रही है। इसे सामूहिक खेती के भरोसे भी नहीं छोड़ा जा सकता।

एक ऐसे समय में जब कृषि योग्य जमीन लगातार घट रही हो और उस पर निर्भर होने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही हो तो यह जरूरी हो जाता है कि कृषि की ढांचागत व्यवस्था को नए सिरे से पारिभाषित किया जाए। देश की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमें कृषि क्षेत्र में पांच फीसदी से अधिक विकास दर की आवश्यकता है, जबकि अभी हम इसके आधे से भी पीछे हैं। ताजा आंकलन बताते हैं कि चालू वर्ष में यह स्थिति बेहतर हो सकती है।

 

कृषि विशेषज्ञों का अनुमान है कि आने वाले 15 सालों में खाद्यान्न संकट और बढ़ सकता है। इसका मुकाबला करने के लिए कृषि क्षेत्र को सिर्फ पारंपरिक खेती के भरोसे ही नहीं छोड़ा जा सकता। इसमें समावेशी कृषि और दूध, फल और मांस जैसे कृषि आधारित कुटीर उद्योगों को शामिल किया जाना आवश्यक हो गया है। चालू बजट से पूर्व आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में कृषि के बारे में चौंकाने वाले तथ्य पेश करते हुए बताया गया है कि दो दशक के अंदर कृषि योग्य जमीन में 28 लाख हेक्टेयर की कमी आ चुकी है। देश की आबादी के बड़े हिस्से की कृषि पर निर्भरता को देखते हुए यह तथ्य चिंताजनक है।

 

भारतीय कृषि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां विविधीकरण संभव है। यहां यदि छह प्रकार की ऋतुएं हैं तो दर्जनों प्रकार की मिट्टी भी हैं, जो हर प्रकार की फसल के उत्पादन को सुगम बनाती है। भारतीय उप महाद्वीप को छोड़कर विश्व में कहीं भी यह संभव नहीं है। इसके बावजूद भारतीय कृषि अभी बहुत कुछ पारंपरिक तौर-तरीकों पर ही निर्भर है। हालांकि, पारंपरिक तरीकों ने कृषि को चिंतामुक्त और टिकाऊ बना रखा था, लेकिन छोटी होती जा रही जोत, आबादी की विस्मयकारी वृद्धि से उत्पन्न आवश्यकताएं और समाज में बढ़ते धन के महत्व के कारण किसान भी अब इस खेती के भरोसे नहीं रह सकता।

18वीं सदी के प्रख्यात जनगणक थॉमस मैल्थस ने एक दिलचस्प भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि आने वाले समय में भुखमरी को रोका नहीं जा सकता, क्योंकि आबादी ज्यामितीय तरीके से बढ़ रही है। साथ ही खाद्यान्न उत्पादन अंकगणितीय तरीके से बढ़ रही है। मैल्थस के उक्त अनुमान की चाहे जितनी तरीके से व्याख्या की जाए, लेकिन दुनिया भर में इन दिनों जिस तरह खाद्यान्न संकट दिख रहा है और जिस तरह से इसकी आड़ में मंहगाई बेरोकटोक बढ़ती जा रही है, उससे निपटने का आधारभूत तरीका कृषि और कृषि आधारित सहउत्पाद बढ़ाना ही हो सकता है।

 

भारतीय कृषि की एक विडंबना यह भी है कि यह देश का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इसके बावजूद यह अपने विशेषज्ञों पर नहीं, बल्कि उन नौकरशाहों पर निर्भर है, जिनके बारे में यह मान लिया गया है कि देश की सभी बीमारियों की एकमात्र दवा वही है। यह तथ्य चौंकाने वाले हैं कि महत्वपूर्ण कृषि नीतियां निर्धारित करने वाली कुर्सियों पर कृषि विशेषज्ञ नहीं बल्‍कि‍ आईएएस अधिकारी बैठे हुए हैं।

 

ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ एग्रीकल्चर एसोसिएशन के एक प्रवक्ता का दावा है कि देश में ऐसे एक हजार पदों पर नौकरशाह काबिज हैं। जिस अन्नसुरक्षा को लेकर आज पूरी दुनिया विचलित है, वह तो हमारी कृषि नीति की मुख्य रीढ़ थी। प्रत्येक गांव में केवल मानव ही नहीं पशुओं के लिए चरणोई और तालाब बनाए गए थे। इतने प्रकार के अनाजों, दालें, तिलहनी फसलें, साग सब्जियों और फलों का जाल देशभर में फैला। कम पानी में पकने वाली और कई बीमारियों को दूर रखने वाली हमारी शानदार फसलें जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का, तिवड़ा, तिल, अलसी, रामतिल आदि थे। गांव-गांव में रोजगार देने वाला मोटे धागे का कपास, घानी, चक्की, चरखे, करघे, साबुन, तेल, दंतमंजन, नारियल की रस्सी, चमड़े के जूते, हल, फावड़े बनाने के उद्योग और फसलों से कच्चा माल निकालकर ग्रामोद्योग चलाया जाता था। यह सब भी बिजली खर्च किए बिना मात्र मानव और पशुओं के श्रम से होता था।

यदि हम भारत का इतिहास देखें तो पता चलता है कि अंग्रेजों ने अपने देश की मिलों का पेट भरने और व्यापार बढ़ाने के लिए हमारी अन्नसुरक्षा के घेरे को तोड़ा। किसानों से अनाज की जगह कपास, गन्ना, फूलों, मसालों और नील की खेती करवाई। ये सब कुछ सालोंसाल चलता रहा और फिर जब देश में अकाल की स्थिति हुई, तब भुखमरी के नाम पर मैक्सिकन गेहूं के बौने बीज यहां लाकर बोए गए। उनकी पैदावार बढ़ाने, रासायनिक खाद, कीटनाशक और यंत्रों के उद्योग का जाल देश में फैल गया। इसका उल्टा असर ग्रामीण भारत पर पड़ा। खेती महंगी होने लगी। गांवों में पानी, लकड़ी, चारा और मजदूर कम होने लगे। गांव खाली होने लगे और शहरों की आबादी बढ़ गई। इसी को विकास माना जाने लगा।

एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ाना है तो गांवों को खाली कराना ही होगा। इसके लिए अमेरिका का उदाहरण दि‍या जाता है। इसमें कहा जाता है कि‍ वहां केवल एक फीसदी लोग यानी करीब सात लाख लोग कृषि कार्य में लगे हैं। इसके बावजूद वह सबसे बड़ा कृषि उत्पादों की पैदावार वाला देश है। हमारे देश में सभी की मानसिकता को ऐसा बना दिया गया है कि लोग खेती को भुलाने की कोशिश में लगे हैं। हाल ही में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी कहा था कि भारत का असली विकास तभी होगा, जब लोगों को खेती से हटाकर उद्योगों से जोड़ा जाए। हालांकि, जब हम आंकड़ों की बात करते हैं तो बातें उलझ जाती हैं।

 

जो लोग खेती से हटे वे मजदूर बना दिए गए, जो किसान सबका पेट भरता है, हम उसे ही खाद्य सुरक्षा देने की बात कर मजाक उड़ाते हैं। जरा सोचिए किसी राजा को भिक्षा दी जा सकती है? किसान लाखों-करोड़ों लोगों का पेट भरते हैं, फिर भी हर जगह उसे बेचारा कहा जाता है। क्या सरकार किसान को अन्नदाता कहने या मुआवजा बांटने के अलावा भी कुछ करती है? क्यों नहीं किसान को हम फसल उत्पादक कहते, जिसे अपने उत्पादन को बेचने के लिए किसी साहूकार का मुंह नहीं देखना पड़ता। जब तक सरकार किसी बड़ी इच्छाशक्ति से काम नहीं करेगी, तब तक हाल ऐसे ही रहेंगे। ऐसे में केवल उम्मीद करें कि आने वाले दिनों में हालत सुधर जाएं, नहीं तो रोटी भी सुपर मार्केट से खरीदनी पड़ेगी।