आमदनी बढ़े तो फांसी क्यों चढ़ें किसान

आमदनी बढ़े तो फांसी क्यों चढ़ें किसान

मुझे चार दशक हो गए हैं अर्थशास्त्रियों की एक-सी बातें सुनते कि किसान उत्पादकता बढ़ाने के लिए तकनीक का प्रयोग करें, लागत घटाएं, फसलों में विविधता अपनाएं, सिंचाई क्षमता बढ़ाएं व बिचौलियों के चंगुल से बचने के लिए इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग के प्लेटफॉर्म पर जाएं। उनकी मूलत: यही धारणा है कि कृषि संकट मुख्य रूप से किसानों की देन है, क्योंकि उन्होंने आधुनिक तकनीक व नई किस्मों का उपयोग नहीं किया। या वे बैंक कर्ज का उपयोग करना नहीं जानते। वे उत्पादन लागत को कम नहीं कर पा रहे हैं। वे कृषि आय में बढ़ोतरी के लिए फसल उत्पादन में वृद्धि के पक्ष में रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि आज के दौर में किसान तभी बचे रह सकते हैं, जब विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी होंगे।

बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि और उसके बाद गर्मी के महीने में सूखे की समस्या ने 2015 में कृषि संकट को काफी विकट बना दिया था। इसके परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में असाधारण बढ़ोतरी देखी गई। बीते बीस सालों में करीब 3.2 लाख किसानों ने आत्महत्या की है। इन दिनों पंजाब किसानों की नई कब्रगाह के रूप में उभरा है। 2015 में करीब 449 किसानों ने आत्महत्या की थी। संसद में पेश जानकारी के अनुसार इस साल 11 मार्च तक पंजाब में 56 किसानों ने अपना जीवन खत्म कर लिया। यह संख्या महाराष्ट्र में किसानों की खुदकुशी से कुछ ही कम है। अनाज के भंडार के नाम से मशहूर पंजाब किसानों की आत्महत्या के मामले में देश में दूसरे स्थान पर है। यदि सिंचाई की सुविधाओं का अभाव व निम्न फसल उत्पादकता कृषि संकट का एक कारण है तो क्यों किसानों में इस कदर निराशा छा गई है कि वे आत्महत्या को विवश हो गए हैं? पंजाब जैसे प्रगतिशील राज्य में तो उन्हें खुशहाल होना था।

कृषि अर्थशास्त्री किसानों के सिर पर ठीकरा फोड़ते आ रहे हैं। किसानों की आय बढ़ाने के लिए जितने भी नुस्खे बताए जाते हैं, वे पूर्णत: गलत हैं। एक ऐसे राज्य में जहां 98 फीसदी खेती सिंचाई के दायरे में है और जहां फसल पैदावार अंतरराष्ट्रीय मानकों को पूरा करती है, मुझे ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता कि वहां के किसान आत्महत्या करें। आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के अनुसार गेहूं की प्रति हेक्टेयर पैदावार 4500 किग्रा रही, यह अमेरिका में प्रति हेक्टेयर गेहूं की उपज के बराबर है। पंजाब में प्रति हेक्टेयर धान की उत्पादकता 6000 किग्रा रही। यह चीन में प्रति हेक्टेयर धान की उत्पादकता के करीब-करीब बराबर है। फसल उत्पादकता की यह ऊंची दर और सिंचाई के प्रचुर साधन होने के बाद भी पंजाब के किसानों को आत्महत्या क्यों करनी चाहिए? यदि अब भी आप संतुष्ट नहीं हैं कि कृषि संकट के लिए किसान जिम्मेदार नहीं हैं तो यहां मैं प्रो. एचएस शेरगिल द्वारा किए गए एक अध्ययन की कुछ बातों को रखना चाहूंगा। उन्होंने मशीनीकरण, रासायनिक प्रौद्योगिकी, पूंजी उपलब्धता, उत्पादकता आदि मानकों के आधार पर पंजाब की कृषि की तुलना विकसित देशों से की है। अध्ययन के अनुसार प्रति एक हजार हेक्टेयर पर ट्रैक्टरों की संख्या पंजाब में जहां 122 पाई गई है, वहीं अमेरिका में 22, ब्रिटेन में 76 और जर्मनी में 65 है। प्रति हेक्टेयर खाद के प्रयोग में पंजाब 449 किग्रा के साथ शीर्ष पर है, जबकि अमेरिका में प्रति हेक्टेयर 103 किग्रा, ब्रिटेन में 208 किग्रा और जापान में 278 किग्रा खाद का प्रयोग होता है। पंजाब में सिंचित क्षेत्र 98 फीसद है, जबकि अमेरिका में 11.4 फीसद, ब्रिटेन में दो फीसद और जापान में 35 फीसद है। अब फसल पैदावार की स्थिति का जायजा लेते हैं। पंजाब गेहू, चावल और मक्का की 7633 किग्रा प्रति हेक्टेयर वार्षिक पैदावार के साथ शीर्ष पर है। दूसरी ओर अमेरिका 7238 किग्रा प्रति हेक्टेयर, ब्रिटेन 7008 किग्रा प्रति हेक्टेयर, फ्रांस 7460 किग्रा प्रति हेक्टेयर और जापान 5920 किग्रा प्रति हेक्टेयर के साथ काफी पीछे है। जाहिर है कि यदि पैदावार में बढ़ोतरी को समृद्धि का मानक बनाएं तो पंजाब में किसानों की आत्महत्या का कोई कारण नजर नहीं आता। दरअसल अर्थशास्त्री मानने को तैयार नहीं कि किसानों को उनकी पैदावार की मिलने वाली निम्न कीमत ही कृषि संकट के लिए जिम्मेदार है।

पिछले 45 सालों में सरकारी कर्मचारियों के वेतन (सिर्फ मूल वेतन और महंगाई भत्ते) में 120 से 150 गुना बढ़ोतरी हुई है। कॉलेज/विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में 150 से 170 गुना बढ़ोतरी हुई है। स्कूली शिक्षकों का वेतन तो 280 से 320 गुना बढ़ गया है। सातवें वेतन आयोग में एक चपरासी का वेतन प्रति महीने 18000 रु. तय किया गया है। ऐसे समय जब ठेका मजदूर की मासिक मजदूरी दस हजार रु. तय की गई है और हरियाणा जैसे राज्य बेरोजगार युवाओं को नौ हजार रु. मासिक भत्ता देने का इरादा जता रहे हैं, तब पंजाब के किसानों की औसत मासिक आय बहुत कम नजर आती है। कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के अनुसार गेहूं व चावल की पैदावार से पंजाब के किसानों को प्रति हेक्टेयर तीन हजार रु. आय होती है। इससे गुजारा कठिन है। सवाल उठता है कि जब पंजाब के किसानों की कृषि उत्पादकता अमेरिकी किसानों की तुलना में अधिक है तब उनकी आय इतनी कम क्यों है?

समाज के दूसरे क्षेत्र में वेतन वृद्धि को देखते हुए यदि इसी कालखंड में खरीद मूल्य में सौ गुना बढ़ोतरी को न्यूनतम मानदंड बनाया जाए तो गेहूं की कीमत प्रति क्विंटल 7600 रु. होनी चाहिए। अर्थशास्त्रियों को मानना होगा कि संकट के लिए आय वितरण में भारी असंतुलन जिम्मेदार है। ऐसे में पहली जरूरत यही तय करने की है कि किसानों की मासिक आय कम से कम निचले स्तर के सरकारी कर्मचारी के मासिक वेतन के बराबर हो।

 

देविंदर शर्मा