जीन संवर्द्धित फसलें: बर्बादी या उन्नति ?

जीन संवर्द्धित फसलें:

एक और जहाँ किसानों की आत्महत्या की बढती घटनाओं ने कृषि प्रधान देश भारत को बहुत व्यथित किया हैं वही देश की सरकार हरित क्रान्ति के नाम पर जीएम फसलों के लिए मंजूरी के रास्ते बनाने में लगी हैं

क्या हैं जीएम फसलें (जीन संवर्द्धित फसलें) ?

जीएम फसलें डीएनए को पुनर्संयोजित करने वाली प्रौद्योगिकी के माध्यम से प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से तैयार किए गए पादप जीव हैं। आनुवांशिकी इंजीनियरिंग (जीई) की अनिश्चितता और अपरिवर्तनीयता ने इस प्रौद्योगिकी पर बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए हैं। इससे भी आगे, विभिन्न अध्ययनों ने यह पाया है कि जीएम फसलें पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं और इससे मानव स्वास्थ्य को संकट की आशंका है। इन सबके परिणामस्वरूप, इस खतरनाक प्रौद्योगिकी को अमल में लाने की आवश्यकता पर दुनिया भर में विवाद खड़ा हो गया है।

भारत एवं अन्य बहुत सारे देशों में, पर्यावरण में छोड़े जा रहे जीई या जीएम पौधों-जंतुओं के विरूद्ध प्रचार के साथ ग्रीनपीस का कृषि पटल पर पदार्पण हुआ। जीई फसलें जिन चीजों का प्रतिनिधित्व करती हैं वे सब हमारी खेती के लिए बेकार हैं। वे हमारी जैवविविधता के विनाश और हमारे भोजन एवं खेती पर निगमों के बढ़ते नियंत्रण को कायम रखती हैं।

क्यों हैं इन फसलों पर विवाद ? 

 जैविक बीज अधिक उत्पादकता होते हैं। जीएम फसल उत्पादन करने के पीछे कई लोगों व नेताओं की यह मानसिकता चल रही है कि इन जीएम यानी जैविक बीज से वर्तमान की तुलना में अधिक उत्पादन हो सकेगा। जीएम फसलों के प्रशंसकों का यह भी मानना है कि इससे कृषि क्षेत्र की कई समस्याएं दूर हो जाएंगी। और फसल का उत्पादन का स्तर सुधरेगा।

भारत में सन 2002 में 55 हजार किसानों ने आत्महत्या कर ली थी। इन किसानों ने जीएम कपास उगाई थी। फसल रोपने के चार महीने बाद कपास का बढ़ना बंद हो गया था। इसकी पत्तियां भी झड़ने लगी थीं। बताया जाता है। जिसका परिणाम फसल के खराब होने के रूप में सामने आया था। आंध्र प्रदेश में अकेले अस्सी फीसदी कपास की फसल बर्बाद हो गई थी।

जीएम फसलों पर केंद्र सरकार का रुख 

केंद्र सरकार और प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जीएम फसलों के समर्थक माने जाते हैं और सूत्रों की माने तो सरकार विवाद के बावजूद बहुत खामोशी से जीएम फसलों के ट्रायल का कार्य जारी रखे हैं। कृषिमंत्री राधा मोहन सिंह ने जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) फसलों की वकालत की है। उन्होंने जमीन और पानी की कमी को देखते हुए पैदावार बढ़ाने के लिए इन्हें जरूरी बताया है। 

जी एम फसलों पर पर्यावरणविद और विशेषज्ञों का रुख 

देश के पर्यावरणविद और विशेषज्ञ मानते हैं कि जीएम फसलें भारत के अनुकूल नहीं हैं। मशहूर पर्यावरणविद डॉ. वंदना शिवा हो या केंद्र सरकार की जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रेजल कमेटी के सदस्य और देश के उच्च वैज्ञानिक पी. एम भार्गव, सभी जीएम फसलों को देश की मिटटी और जनता की सेहत से खिलवाड़ करने वाली बताते हैं।

इतने विरोध के बावजूद फिर क्यों सरकार जीएम फसलों को बढ़ावा देना चाहती हैं तो इसका जवाब पर्यावरणविद देते हैं कि कॉर्पोरेट का व्यवसाय इससे जुडा हैं और किसी भी देश पर नियंत्रण करने का सीधा सा तरीका हैं कि उसके खाद्यान्न पर काबू करना। आज भी 64 फीसदी भारतीय खेती पर निर्भर हैं और अगर कॉर्पोरेट का कब्जा 64 फीसदी खेती में बीज उत्पादन पर हो जाए तो उन्हें देश में एक विशाल बाज़ार मिल जाएगा।

मोनसेंटों और सीनजेंटा  जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां लम्बे समय से भारत में इस ओर कार्य कर रही हैं कि किस प्रकार उनका अधिपत्य भारतीय कृषि के बाजार पर हो जाए। एक अनुमान के मुताबिक़ भारत में बीज उत्पादन का करीब 30 फीसदी कारोबार विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से हैं।

जीएम फसलों के पक्ष में यह तर्क दिया जाता हैं कि उससे उपज बढ़ेगी और अन्न की कमी दूर होगी। अगर इस प्रकार देखा जाए तो भारत में हर साल 27 करोड़ टन अनाज पैदा होता हैं। अगर इसे भारत की आबादी से विभाजित किया जाए जितना प्रति व्यक्ति के लिए इंडियन कौंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ने निर्धारित किया हैं उससे अधिक ही बैठता हैं। इस प्रकार देश में अन्न का उत्पादन संकट नहीं हैं पर उसके भंडारण का संकट जरूर हैं। हमारे पास अन्न भंडारण की अच्छी व्यवस्था नहीं जिस कारण हर साल बहुत सा अन्न बर्बाद होता हैं। लोगो के पास अन्न के लिए पैसे नहीं हैं। इस प्रकार सरकार आंकड़ों के खेल में चाहे जितनी चमक दिखा ले पर जनता में गरीबी और कूपोषण कम नहीं कर सकी। 

इस तरह देश को उत्पादकता बढ़ाने के लिए जीएम फसलों की आवश्यकता नहीं हैं। देसी खाद और पद्धति से न केवल उर्वरकता बढाई जा सकती हैं अपितु लागत भी कम की जा सकती हैं। हम खेती पर निर्भर हैं और बीजों पर हमारा अधिकार होना जरूरी हैं।

 

शालिनी चौधरी 

Harit Khabar