देश कब तक कृषि और किसानों की अनदेखी करता रहेगा

देश कब तक कृषि और किसानों की अनदेखी करता रहेगा

इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश को एक गंभीर कृषि संकट का सामना करना पड़ रहा है। हर वर्ष उर्वरक और बीजों जैसे कृषि इनपुट्स की कीमतें बढ़ती जबकि खेती से आय कम होती जा रही है। इसके साथ ही जोत का आकार लगातार सिकुड़ता जा रहा है। ग्रामीण युवकों की बेरोजगारी में बहुत अधिक उछाल आया है। कृषि अब लाभदायक धंधा नहीं रह गया। दूसरी ओर युवकों के लिए रोजगार के अवसर बहुत कम रह गए हैं। यही स्थिति हताशा और आक्रोश को हवा दे रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश भर में आत्महत्याएं करने वाले किसानों की संख्या गत वर्ष 12,000 का आंकड़ा पार कर गई थी। वास्तव में कुछ वर्ष पूर्व तो स्थिति इससे भी बदतर थी। गत 2 वर्षों से देश के बहुत बड़े भाग में लगातार सूखे की स्थिति बनी हुई थी। अब की बार फसल का झाड़ काफी अच्छा था लेकिन कृषि लागतों की कीमतें आसमान छू गई हैं और साथ ही बढ़े हुए कृषि उत्पादन के कारण कीमतें धराशाई हो गई हैं। अर्थशास्त्रियों ने इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि शानदार फसल होने के बावजूद वर्तमान किसान आंदोलन के प्रमुख कारणों में से एक है गत नवम्बर में घोषित की गई नोटबंदी के दुष्प्रभाव। नोटबंदी से बाद के महीनों में कृषि इनपुट्स खरीदने के लिए नकदी की तंगी के कारण किसानों को व्यापारियों और आढ़तियों से इन्हें बहुत उच्च दामों पर खरीदना पड़ा। नकदी की तंगी अभी भी कुछ क्षेत्रों में बनी हुई है जहां ए.टी.एम. तो हैं लेकिन उनमें कैश नहीं। शानदार फसल के कारण कई इलाकों में कृषि उत्पादों की बहुतायत हो गई है जोकि एक बार फिर व्यापारियों के हाथों किसानों की लूट का कारण बनी हुई है। जब भी इस प्रकार का संकट आता है तो सरकार तयशुदा प्रक्रिया के अनुसार ऋण माफी की घोषणा कर देती है। ऐसा करना राजनीतिक दृष्टि से लाभदायक रहता है। हाल ही में उत्तर प्रदेश और पंजाब में हुए विधानसभा चुनावों में हर पार्टी किसानों को ऋण माफी का झुनझुना दिखाती रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देशभर के किसानों पर ऋण का कुल बोझ 2,57,000 करोड़ है जोकि जी.डी.पी. के 2 प्रतिशत के बराबर है। ऋण माफी की घोषणाएं धधकते घाव पर पट्टी लपेट देने से बढ़कर और कुछ नहीं। इसके अलावा यह अर्थशास्त्र की दृष्टि से भी बहुत घटिया राजनीति है क्योंकि इससे ईमानदार करदाता हतोत्साहित होते हैं। फसल की बर्बादी- किसान आंदोलन-ऋण माफी का दुष्चक्र अनेक वर्षों से जारी है। यहां तक कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) भी मुद्रास्फीति तथा कृषि लागतों की बढ़ती कीमतों के साथ कदम मिलाकर नहीं चल पाया है। विडम्बना देखिए कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा किसान आंदोलन के मद्देनजर प्रदेश में शांति बहाली न होने तक ‘गांधीगिरी’ करते हुए अनशन पर जाने के फैसले का कई लोगों ने मजाक उड़ाया है। दिलचस्प बात यह है कि शिवराज ने यह फैसला उसी दिन लिया था जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने राष्ट्रपिता को ‘बहुत चतुर बनिया’ करार दिया था। समस्या के समाधान हेतु अति सक्रियता से काम करने की बजाय शिवराज चौहान ने पुलिस कार्रवाई में मारे गए 6 किसानों के परिवारों में से प्रत्येक को 1 करोड़ रुपए की अभूतपूर्व मुआवजा राशि देने की घोषणा के बाद एक सार्वजनिक मैदान में शिविर लगाने का फैसला लिया। बाद में एक समाचार पत्र ने खुलासा किया कि मरने वालों में एक भी भू-स्वामी किसान नहीं था। फिर भी परमात्मा का शुक्र है कि केन्द्र सरकार की नेक सलाह मानते हुए शिवराज ने अपना अनशन त्याग दिया है। तनाव बेशक कई दिनों से पैदा हो रहा था लेकिन भाजपा शासित दोनों राज्यों (मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र) में जबरदस्त रोष प्रदर्शनों के कुछ दिनों बाद मध्य प्रदेश के मंदसौर में पुलिस फायरिंग हुई थी। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडऩवीस ने प्रदेश के इतिहास में 30,000 करोड़ रुपए की सबसे बड़ी ऋण माफी की घोषणा करके किसान आक्रोश की हवा निकालने की कोशिश की थी। चौहान ने भी फसलों के मूल्य तय करने के लिए एक आयोग स्थापित करने के अलावा डिफाल्टर किसानों के ऋण का निपटारा करने के लिए एक योजना की घोषणा की तथा मूल्यों में स्थिरता बनाए रखने के लिए 1 हजार करोड़ रुपए से एक कोष स्थापित किया है। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में किसान आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह अपेक्षाकृत 2 समृद्ध पट्टियों (महाराष्ट्र में नासिक-अहमदनगर-कोल्हापुर तथा मध्य प्रदेश में रतलाम-मंदसौर-नीमच) में ही भड़का था। फिर भी अब इसके आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, तेलंगाना जैसे राज्यों व अन्य इलाकों में फैल जाने की संभावना है। जब भी ऐसा संकट आता है तो राजनीतिज्ञ अपना खेल खेलने से बाज नहीं आते। स्थानीय नेता लोगों के लिए आपाधापी का यह समय अपनी लीडरी चमकाने का बहुत अच्छा मौका होता है। वे किसानों की भावनाओं से खिलवाड़ करते हैं। मंदसौर में पुलिस फायरिंग में मारा गया एक व्यक्ति कांग्रेस का ही नेता था। रोष-प्रदर्शन के बाद सरकार ने उसके परिजनों को 1 करोड़ रुपए की क्षतिपूर्ति देने की घोषणा कर दी जबकि इस व्यक्ति का नाम दंगा भड़काने वालों के रूप में दर्ज किया गया था। विपक्षी पार्टियां तो बिखराव की स्थिति में हैं ही लेकिन भाजपा भी अंदर ही अंदर अपनी राजनीतिक लड़ाइयां लड़ रही है। इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि व्यथित किसानों को तत्काल राहत की जरूरत है फिर भी सरकार को अवश्य ही चिंतन-मनन करना होगा और विशेषज्ञों तथा सभी मुद्दइयों के प्रतिनिधियों की सहायता से दीर्घकालिक समाधान तलाशना होगा। बढ़ती जागरूकता और सोशल मीडिया के फैलाव की कृपा से किसान अब जमीनी हकीकतों के बारे में पहले जैसे अनजान नहीं रह गए हैं। यदि सरकारी कर्मचारियों और राजनीतिज्ञों की आमदनियां कई-कई गुणा बढ़ गई हैं और व्यापारी किसानों की कीमत पर पैसा बना रहे हैं तो देश कब तक कृषि और किसानों की अनदेखी कर पाएगा जोकि हमारी अर्थव्यवस्था का मेरुदंड हैं?

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