मन, विचार और कर्म में सूखा

मन, विचार और कर्म में सूखा

चार सदी पहले ही लोककवि 'घाघ" कह गए थे कि 'खेत बेपनियां जोतो तब, ऊपर कुंआ खुदाओ जब", यानी किसान पहले कुंआ खोदे (यानी सिंचाई का समुचित इंतजाम कर ले), फिर उसके बाद ही खेत को जोते। तब गंगा, जमुना, गोदावरी, सिंधु, कावेरी जैसी नदियों में भी साफ शीतल जल छलकता था और दूरदराज के इलाकों में भी कुंआ खोदते ही पानी मिल जाया करता था। लेकिन आजादी के बाद जब किसान उत्पादक के बजाय महज एक वोट बैंक बन गया तो चुनाव-दर-चुनाव हर राजनीतिक पार्टी किसानों को मुफ्त बिजली-पानी देने के वादे करने लगी। जल कभी भी भुनाया जा सकने वाला चेक है, ऐसा मान लिए जाने से आदतें और बिगड़ गईं।

खुश्क इलाकों में समझदार किसान अब तलक स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल मोटा लेकिन खूब पौष्टिक अनाज उपजाते आ रहे थे। पर अब ट्यूबवेलों की मदद से मनचाही मात्रा में बेतहाशा पानी खींचकर कई किसान नगद फसल, गन्न्ा और धान की खेती करने लगे हैं। शहरों ने भी सस्ती समृद्धि की सबसिडी आधारित फिसलपट्टी पर फिसलना शुरू कर दिया। सहज उपलब्ध सरकारी लोन ले-लेकर बेतहाशा कल-कारखाने लगाकर और विशाल रिहायशी भवनों का निर्माण कर तरक्की का मरीचिका जाल रचा जाने लगा। वहां भी पानी रसातल को सरक चला। दूरदर्शी सयाने यूं ही नहीं कह गए हैं कि दोनों हाथों से उलीचो तो मिट्टी की खदान भी एक ना एक दिन रीत ही जाती है। अब जब साल-दर-साल भीषण रिकॉर्डतोड़ गर्मी का प्रकोप भी बढ़ रहा है तो कुंए खोदकर भी मिट्टी ही हाथ लगेगी।

न पानी, न नियमित बिजली, तिस पर फर्टिलाइजर और बीजों के दामों में भारी बढ़ोतरी। कभी समृद्धि का गढ़ रहे पंजाब, कर्नाटक और महाराष्ट्र के किसान भी जब धड़ाधड़ आत्महत्या करने लगे और मीडिया ने आम जनता, खासकर औरतों-बच्चों पर दर्जन भर राज्यों से इसकी मार का हृदयविदारक चित्र पेश किया तो मौके की ताक में बैठा विपक्ष मुखर हुआ। शोर बढ़ा तो सरकार जागी, पर हर राज्य में फौरी राहत के ही बंदोबस्त होते अभी दिखते हैं। यह ठीक है कि नाना अन्य परेशानियां झेल रही सरकार के लिए यह उसके कार्यकाल का पहला अकाल है, पर कहना ही पड़ेगा कि सत्ता के पहले दो बरसों में लगातार दो कमजोर मानसूनों के बाद भी उसने आसन्न् सूखे से युद्धस्तर पर निबटने की दिशा में अपनी तरफ से कुछ खास तैयारी नहीं ही की।

पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने सही लिखा है कि अकाल कोई अचानक बिना तारीख बताए आ धमकने वाला मेहमान नहीं, वह बाकायदा अच्छी-खासी पूर्व सूचनाएं देकर आता है। जब दक्षिण भारत से मानसून वापिस जा रहा था, 11 राज्यों में अनुभवी कान सूखे की आहट सुनने लगे थे। 11 राज्यों में औसत से कम बारिश हुई है और वहां के जलभंडारण-जलसंचयन क्षेत्रों और बांधों इत्यादि में जलस्तर निरंतर क्षीण होता जा रहा है, इस बाबत तमाम जानकारियां भी समय रहते उपलब्ध थीं, पर इसके बावजूद ग्राम, जिला या राज्य कहीं भी ताबड़तोड़ निर्माण या जलवितरण व्यवस्था का कोई समवेत आकलन और प्रबंधन नहीं ही किया गया। उल्टे इसके बजाय बेहद कीमती समय नाना तरह की राजनैतिक हिसाब-चुकाई और राज्य चुनावों की रणनीति बनाने में गंवा दिया गया। संसद और विधानसभाओं के सत्रों में पक्ष-विपक्ष द्वारा एक-दूसरे के घोटालों को उजागर करने, जीएसटी बिल पर झगड़ने या विधायकों-सांसदों के भत्तों की बढ़ोतरी तय कराने के बीच ही गुजरते गए। ताजा बजट सत्र के दूसरे चरण में भी शीर्ष तवज्जो सरकारों की बर्खास्तगी या प्रतिरक्षा खरीदी के कथित घोटालों या ऑड-ईवन व्यवस्था को कोसने या सराहने को ही मिलती दिख रही है।

किसानी आत्महत्याएं अब संसद में झगड़ते या मीडिया में एक-दूसरे के खिलाफ विष-वमन करते किसी भी दल के जननेताओं को चौंकाती नहीं हैं। लेकिन आज सूखे की रपटों पर राजनैतिक रंगत के आधार पर राज्य या केंद्र या मीडिया को दोष देते हुए सब यूं अचंभा और गम जाहिर कर रहे हैं, मानो कल्कि अवतार की तरह सूखा अचानक आसमान से आ टपका हो।

संसद में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार गत 25 सालों से देश में बनी 312 सिंचाई योजनाएं आज तलक लंबित पड़ी हुई हैं, जिनमें से पूरी 240 योजनाएं तो सूखे की भीषणतम मार झेल रहे 

पांच राज्यों से जुड़ी हुई हैं। पर कृषि मंत्री जी का जवाब था कि केंद्र इस मामले में जितना कर सकता था, कर रहा है। नियमानुसार जल संसाधन का मसला राज्यों के ही अधीन है और केंद्र की भूमिका मात्र उसकी निगरानी की है। इसलिए राज्य की दुष्प्रभावित जनता को मदद पहुंचाना और जमीनी स्तर पर राहत के काम निबटाना राज्य सरकारों का दायित्व है, उनका नहीं। हां, यदि जल संसाधन का जटिल मसला राज्य सूची से हटाकर केंद्रीय सूची में रख दिया जाए तो केंद्र जमीनी कार्यान्वयन तय और लागू करने के लिए एक अलग सूखा निबटान मंत्रालय का गठन कर सकता है। दूसरी तरफ जल संसाधन मंत्री ने इस सिलसिले में जानकारी देते हुए बताया कि जल संसाधनों पर अस्सी हजार करोड़ रुपया खर्च किया जाना है और नदियों को जोड़ने की एक योजना पर भी काम चल रहा है। जब नदियां जोड़ दी जाएंगी तो स्थितियां खुद ही सुधरने लगेंगी। लीजिए साहब! कब बाप मरेंगे, कब बैल बंटेंगे।

वैसे भी विशाल वर्षा-निर्भर भूखंड वाले भारत देश के लिए सूखा या अकाल कोई नई आपदा नहीं है। फिर भी हमारे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के लिए करोड़ों किसानों की त्रासदी एक फुटबॉल बनी हुई है, जिसे दलगत स्वार्थों के कीलदार बूट से लथेड़ते हुए खिलाडियों को खुशी केवल इसी बात से मिल रही है कि नियम टूटे तो क्या? दूसरे पक्ष के कप्तान की तो हड्डी-पसली उन्होंने एक कर दी। पश्चिम बंगाल से पंजाब तक और कश्मीर से केरल तक एक हृदय विदीर्ण कर देने वाली महाभारत में देश का हर दल अपनी लोकतांत्रिक मर्यादाएं तोड़ता हुआ, औरतों और बच्चों के आर्तनाद को अनसुना करता हुआ, शत्रु की किरकिरी पर पाशवी निनाद करता हुआ मानो नशे में झूम रहा है। अलबत्ता खबरों के अनुसार सरकार ने उत्तरी ध्रुव जाकर विश्वव्यापी पर्यावरण बदलाव के अध्ययन के लिए 21 करोड़ रुपए का बजट आवंटित कर दिया है, ताकि हमारे वैज्ञानिकों का एक दल ध्रुव प्रदेश जाकर यह समझ सके कि समुद्री बहाव में गर्म तथा सर्द धाराओं के मिले-जुले बहावों का क्या असर आने वाले दशकों में हम देखेंगे।

क्या यह सब देश के हर एक दल के नेतृत्व के मन, विचार और कर्म में व्याप्त एक भीषण सूखे के लक्षण नहीं हैं?

मृणाल पांडे

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)