राष्ट्र-विकास में कृषि की घटती हिस्सेदारी

राष्ट्र-विकास में कृषि की घटती हिस्सेदारी

 देश के सकल विकास में कृषि की हिस्सेदारी साल दर साल घटती जा रही है। सरकार की अपनी ही रिपोर्ट बताती है कि यह छह वर्षों में 19 प्रतिशत से घटकर 14 प्रतिशत पर आ गई है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि देश में अनाज का उत्पादन काफी बढ़ा है और सरकारी खरीद के कारण हमारे गोदाम न सिर्फ जरुरत से ज्यादा भरे हैं बल्कि तमाम अनाज बाहर खुले में भी रखना पड़ा है। कृषि की घटती हिस्सेदारी का एक दूसरा अर्थ यह भी है कि किसान खेती छोड़कर अन्य कार्यों में लग रहे हैं तथा कृषि योग्य जमीन घट रही व लागत बढ़ रही है। कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत के लिए यह स्थिति ठीक नहीं कही जा सकती। देश में कृषि पर निर्भरता भी घटकर आधी से भी कम रह गयी है।

                गत दिनों कृषि से सम्बन्धित सरकारी ऑकड़े पेश किए गए जिसमें बताया गया है कि बीते आठ साल में जीडपी यानी सकल विकास में कृषि की भागीदारी पॉच प्रतिशत कम हो गयी है। वर्ष 2010 में केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने संसद में अपनी एक सर्वे रपट पेश की थी जिसमें बताया गया था कि कृषि पर व्यक्तियों की निर्भरता घटकर अब आधी से भी कम यानी सिर्फ 45.5 प्रतिशत ही रह गयी है। एक सरकारी ऑकड़े के ही अनुसार वर्ष 2004-05 में कुल 18.30 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि देश में थी जो अन्यान्य कारणों से घटकर वर्ष 2007-08 में 18.24 करोड़ हेक्टेयर रह गयी है यानी कि करीब छह लाख हेक्टेयर जमीन कम हो गयी है।

               सभी जानते हैं कि दुनिया का जिस तरह से वैश्वीकरण हुआ और अब आर्थिक उदारीकरण हो रहा है उसमें प्रत्येक देश के लिए कृषि प्राथमिक नहीं बल्कि तीसरे, चौथे या कहीं-कहीं तो आखिरी पायदान पर भी चली गयी है। कृषि की तरफ उतना ही ध्यान है कि यह नागरिकों की उदरपूर्ति के लिए आधारभूत अनाज ( जैसे गेहॅू-धान ) का उत्पादन करती रहे। अपने देश में कृषि के लिए न सिर्फ विविध मौसम उपलब्ध हैं बल्कि लगभग 64 प्रकार की मिट्टी भी है जिसमें प्राय: सभी फल, सब्जी और फसलें ली जा सकती हैं। बावजूद इसके आलम यह है कि देश के किसान खेती से विरक्त होते जा रहे हैं। जाहिर है कि इसके पीछे अपेक्षित सरकारी सहायता और सहूलियत का न मिलना तथा लगातार छोटी और अलाभकारी होती जा रही कृषि जोत ही मुख्य कारण हैं। दुनिया के अन्य विकसित देशों के मुकाबले हमारे देश में कृषि को बहुत कम राजकीय संरक्षण है। हमारे यहॉ प्रति किसान परिवार की औसत मासिक आय आज भी 2400 रुपये से कम है!

               इसके अलावा तमाम ऐसे अन्य कारक हैं जो किसानों को हतोत्साहित कर खेती छोड़ने को बाध्य करते हैं। असल में जैसे चिकित्सा, अध्यापन, वकालत और संगीत आदि पहले व्यवसाय न होकर, वृत्ति थे वैसे ही कृषि भी एक वृत्ति ही हैं, यह अलग बात है कि आज लगभग सभी वृत्तियाँ व्यवसाय में बदल गयी हैं। बड़े किसानों या फार्म हाउस वालों की बात छोड़ दी जाय तो छोटा किसान आज भी अपनी धारती माता को छोड़ने के बारे में सोच नहीं पाता, भले ही उसे तमाम तरह के घाटे व नुकसान इससे हो रहे हों। यही कारण है कि किसान भारी तादाद में आत्महत्या कर रहे हैं। प्रकृति की मार, बाजार का खेल तथा साहूकारों के शोषण के बाद अब एक और कारक भी किसानों के उत्पीड़न में शामिल हो गया है- हायब्रिड के नाम पर निर्वंश बीज। यह देखने में आ रहा है कि कीटरोधी तथा अधिक उपज देने वाले के तौर पर प्रचारित हो रहे तथाकथित हायब्रिड बीजों में ऐसे निर्वंश बीज भी आ रहे हैं जो खेत में तैयार होने पर तो बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन उनमें या तो बीज ही नहीं होते या फिर इनके बीज में अंकुरण क्षमता ही नहीं होती। गत वर्ष बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि प्रांतों में हजारों किसानों ने उड़द, तिल व मक्का के ऐसे ही बीज बोये और नतीजे में उनके सामने निर्वंश बीज आये। इन फसलों की बालें तो बड़ी-बड़ी और तंदुरुस्त आयीं लेकिन उनमें दाने नहीं थे। किसान लुट गये! उनकी सिर्फ एक फसल नहीं बरबाद हुई बल्कि अगली फसल बोने को भी उन्हें लाले पड़ गये। ऐसी ही परिस्थितियों में किसान सूदखोरों के जाल में फॅंस जाता है।

              वर्ष 2010 में बीज बिल में यह प्रावधान किया गया था कि बीजों की शुध्दता और उर्वरता यानी अंकुरण क्षमता को मानकों के अनुरुप न रखने पर एक लाख रुपये का जुर्माना तथा नकली बीज बेचने पर एक साल की सजा व पॉच लाख रुपये का जुर्माना देना होगा। यह नाकाफी है। इसमें किसानों को कुछ नहीं मिलता और इस बात के प्राविधान किये जाने चाहिए कि न्यूतनतम क्षतिपूर्ति किसानों को मिले। देश में अभी जो नामी-गिरामी बीज कम्पनियॉ काम कर रही हैं उनमें से पॉयनियर, मायको व मोंसेंटो ने निर्वंश बीजों को बेचा बल्कि राजकीय बीज निगम के बीज भी निर्वंश साबित हुए लेकिन कानून में ऐसी कम्पनियों पर जिम्मेदारी डालने की व्यवस्था ही नहीं है। देश में फसल बीमा योजना लागू है लेकिन आम किसान उससे वाकिफ नहीं है। सहकारी समितियों पर सदस्य किसान के उर्वरक खरीदने पर स्वत: ही एक अल्वावधि का बीमा लागू हो जाता है जो किसानों के दुर्घटनाग्रस्त होने पर क्षतिपूर्ति करता है लेकिन यह भी कागजों में ही है और क्योंकि अधिकांश सहकारी समितियॉ भ्रष्टाचार की शिकार हैं, इसलिए यह योजना प्रभावी नहीं है।

               कृषि की तरफ पर्याप्त ध्यान न दिये जाने से हालात असंतुलित हो गये हैं। एक तरफ तो धान-गेहॅू का इतना अधिक उत्पादन हो रहा है कि हमारे सरकारी भंडारों में इसे रखने की भी जगह नहीं है लेकिन दूसरी तरफ किसान बदहाल है और उसकी आत्महत्या करने की दर में बढ़ोत्तरी हो रही है। असल में कृषि जोतों के निरंतर छोटा होते जाने तथा उनपर निर्भरता बढ़ने से भी ऐसी समस्याऐं हो रही हैं। इनका एक समाधान बापू ने बताया था, कुटीर उद्योग के रुप में। वास्तव में कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर सरकारें गॉव की आबादी को गॉव में ही रोक सकती हैं। कुछ उत्पादों को कुटीर उद्योग के तौर पर चिन्हित कर उन्हें बड़े उद्योगों के लिए मना कर दिया जाय। बड़े उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर ज्यादा कर लगाकर छोटे-लघु व कुटीर उद्योगों को संरक्षण दिया जा सकता है। ऐसा किये जाने पर किसान अपनी छोटी खेती से बचे समय में घर पर या नजदीक के किसी उत्पादन केन्द्र पर कामकर अपनी आय बढ़ा सकते हैं। वर्तमान समय में पशुधन पर भी ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता क्योंकि जहाँ खेत कम हैं वहॉ इनके लिए चारे की समस्या आ जाती है। काफी अरसे से गोदाम और छोटे शीतगृहों की देश व्यापी श्रंखला बनाने की बात केन्द्र व राज्य सरकारें कर रही हैं लेकिन अभी यह क्रियान्वित नहीं हो पाया है। असल में कृषि में सरकारी निवेश ही काफी कम है। राज्य सरकारें तो और भी उदासीन हैं। सरकारी निवेश बढ़े और ठोस योजनाएं बनें तो निजी क्षेत्र भी इसमें अपना निवेश करे। अब इस सच्चाई से मुॅह नहीं मोड़ा जा सकता कि अमेरिका जैसा देश भी अपने किसानों को मुक्तहस्त अनुदान बॉट रहा है ताकि किसान खेती के काम में लगे रहें और अनाज उत्पादन होता रहे।

सुनील अमर