Rewanand Nikaju's blog

कृषि उद्यमिता विकसित हो

कृषि उद्यमिता

आज के एमबीए एवं इंजीनियरिंग शिक्षा की भेड़चाल में शामिल बहुत कम लोग जानते हैं कि सन 1952 में धार कमेटी की अनुशंसा पर आईआईटी खड़गपुर में कृषि एवं खाद्य इंजीनियरिंग में बीटेक की शिक्षा शुरू की गई थी। लेकिन समय के साथ बाजार के किसी अनजाने दबाव ने इसे कम्प्यूटर एवं इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी जैसा लोकप्रिय रोजगार परक विषय नहीं बनाया। आप जब आईआईटी या अन्य इंजीनियरिंग कॉलेजों में इसके बारे में पता करेंगे तो इस पर भी आपको पोस्ट हार्वेस्टिंग के कोर्स और रोजगार की जानकरी ज्यादा मिलेगी और शुरू में कोर्स की ड्राफ्टिंग में ही कृषि एवं खाद्य इंजीनियरिंग को एक साथ जोड़ देने से शिक्षा एवं रोजगार का ज्यादा फोकस

अन्नदाता से मजदूर में तब्दील होता किसान

अन्नदाता से मजदूर में तब्दील होता किसान

देश का अन्नदाता भूखा है। उसके बच्चे भूखे हैं। भूख और आजीविका की अनिश्चितता उसे खेती किसानी छोड़कर मजदूर या खेतिहर मजदूर बनने को विवश कर रही है। विख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की एक रात’ का ‘हल्कू’ आज भी इस निर्मम और संवेदनहीन व्यवस्था का एक सच है। यह खबर वाकई चिंताजनक है कि महाराष्ट्र में पिछले पांच सालों में कम से एक लाख किसान खेती-बाड़ी छोड़ चुके हैं। यह बात कृषि जनगणना के ताजा आंकड़ों में सामने आई है। 2010-11 के कृषि जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र में 1 करोड़ 36 लाख खेती कर रहे थे। ताजा जनगणना में यह संख्या घटकर 1 करोड़ 35 लाख पर पहुंच गई है। वर्ष 2005-06 म

सूखे का संकट स्थायी क्यों है

सूखे का संकट स्थायी क्यों है

पिछले कुछ सालों से किसानों को बार-बार सूखे से जूझना पड़ रहा है और अब लगभग यह हर साल बना रहने वाला है। वर्ष 2009 में सबसे बुरी स्थिति रही है। पहले से ही खेती-किसानी बड़े संकट के दौर से गुज़र रही है। कुछ सालों से किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला रुक नहीं रहा है। इस साल भी सूखा ने असर दिखाया है, एक के बाद एक किसान अपनी जान दे रहे हैं।

सूखा यानी पानी की कमी। हमारे यहाँ ही नहीं बल्कि दुनिया में नदियों के किनारे ही बसाहट हुई, बस्तियाँ आबाद हुईं, सभ्यताएँ पनपीं। कला, संस्कृति का विकास हुआ और जीवन उत्तरोत्तर उन्नत हुआ।