रोजगार और समृद्धि के लिए कारगर है रामबांस की खेती

अमेरिकन मूल का पौधा सिसल (अगेव) जिसे भारत में खेतकी तथा रामबांस कहते है। आमतौर पर सिसल को शुष्क क्षेत्रों में पशुओं और जंगली जानवरों से सुरक्षा हेतु खेत की मेड़ों पर लगाया जाता रहा है। अनेक स्थानों पर इसे शोभाकारी पौधे के रूप में भी लगाया जाता है। परन्तु अब यह एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक रेशा प्रदान करने वाली फसल के रूप में उभर रही है। इसकी पत्तियों से उच्च गुणवत्ता युक्त मजबूत और चमकीला प्राकृतिक रेशा प्राप्त होता है।  विश्व में रेशा प्रदान करने वाली प्रमुख फसलों में सिसल का छटवाँ स्थान है और पौध रेशा उत्पादन में दो प्रतिशत की हिस्सेदारी है। वर्त्तमान में हमारे देश में लगभग 12000 टन सिसल रेशे का उत्पादन होता है, जबकि 50000 टन रेशे की आवश्यकता है।  भारत को प्रति वर्ष सिसल के रेशे अन्य देशों जैसे तंज़ानिया, केनिया आदि से आयात करना पड़ता है। 
क्या है सिसल ?
        सिसल यानि सेंचुरी प्लांट  (एगेव) प्रजाति की विभिन्न किस्मों  अर्थात एगेव सीसलानाaa  एगेव कैनटला,  अमेरिकाना, एगेवएमेनियेनसीस, एगेव फोरक्रोयडेस एगेव एनगुस्टीफोलिया इत्यादि  की पत्तियों से रेशा प्राप्त होता है। सीसल (एगेव सीसलाना) एगेव वर्ग के एगेभेसीवंशज के अन्तर्गत आता है। इसकी पत्तियां 2 से 3 फिट लम्बी होती है जिनके  अग्र भाग यानि टिप पर नुकीले कांटे होते है ।
सिसल उत्पादन करने वाले प्रमुख देश  
      विश्व में सीसल उत्पादन करने वाले प्रमुख देश ब्राजील, चीन, तनजानियां, केनिया, मोजाम्बिक और मेडागास्कर हैं. भारत में इसकी खेती उड़ीसा,छत्तीसगढ़,  मध्य प्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र्, बिहार और अन्य राज्यों में की जाती है।
सिसल का आर्थिक महत्त्व  
        भारत में पत्तियों से रेशा प्राप्ति वाली फसलों में सीसल अर्थात खेतकी एक अत्यधिक महत्वपूर्ण फसल है। सीसल के पौधों को उगाकर मिट्टीके कटाव को भी रोका जा सकता है। खेत के  चारों तरफ सीसल की बाड़ (फेंसिंग) लगाने से जानवरों से फसल की सुरक्षा की जा सकती है । इसकारेशा मजबूत सफ़ेद और चमकीला होता है।  इसका उपयोग समुद्री जहाज के लंगर का रस्सा और औद्योगिक कल-कारखानों में भी होता है। इसकेअलावा गद्दी, चटाई, चारपाई बुनाई की रस्सी और घरेलू उपयोग में प्रयोग किया जाता है। सीसल का रेशा उत्कृष्ट किस्म के कागज बनाने में उपयोगकिया जाता है। वर्तमान में इसका अनेक प्रकार की वस्तुएं बनाने में उपयोग किया जा रहा है। जैसे कि फिशिंग नेट, कुशन, ब्रश, स्ट्रेप चप्पल औरफैन्सी सामग्री के रूप में लेडीज बैंग, कालीन, बेल्ट, फ्लोर  कवर, वाल कवर इत्यादि के अलावा घर को सजाने के लिए विभिनन प्रकार की सजावट कीवस्तुएं बनायी जा रही हैं। सीसल के रेशे से बनायी गयी वस्तुएं अपेक्षाकृत मजबूत टिकाऊ  और सस्ती होती है। सीसल  रेशा निकलने के बाद शेष कचरे में हेकोजेनीन पाया जाता है। जिसका कारटीजोन हार्मोन बनाने में उपयोग किया जाता है।  इसके अलावा कचरे का उपयोग जैविक खाद केरूप में भी किया जाता है।
                 
उत्तम जलवायु 
         सीसल की खेती अधिकाशतः शुष्क और अर्धशुष्क जलवायु में होती है। सीसल में कुछ समय तक सूखे की अवधि को सहन करने कीक्षमता होती है। आमतौर पर पौधे की बढ़वार के लिए अनुकूल वर्षा चाहिए। अच्छी फसल व उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि पौध अवस्था के दिनों मेंवर्षा समय-समय पर हो। जहां वार्षिक वर्षो कम से कम 250 से 350  मिलीमीटर होती हो वहां इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सीसल कीअच्छी फसल बढ़वार के लिए तापमान अधिक, मौसम सूखा,तेज धूप एवं अधिक समय तक प्रकाश की आवश्यकता होती है।
खेती के लिए मृदा का चयन 
          सीसल की खेती उचित जलनिकास वाली सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है परन्तु बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी गई है। इसकेअलावा कंकरीली-पथरीली, ऊँची-नीची बंजर भूमियों में भी इसकी खेती की जा सकती है। ज्यादा अम्लीय और क्षारीय मिट्टिया इसकी खेती क¢ लिएउपयुक्त नहीं होती है। 

खेत की तैयारी 
              खेती की तैयारी से पहले खरपतवारों  को साफ करके एक या दो बार जुताई करके खेत कोसमतल कर लेना चाहिए ताकि मिट्टी में वायु संचार व जल धारण क्षमता बढ़ सके। मिट्टी की उपरी सतहको जहां तक संभव हो कम खोलना चाहिए। बुआई के लिए ढेलेदार मिट्टी पर्याप्त होती है।  जहां भूमिकटाव की संभावना हो वहां जुताई नहीं करनी चाहिए वहां कतारबध्द गडढे बनाकर सीसल की रोपाईकरनी चाहिए।
पौध सामग्री  
       सीसल के पौधे में बहुधा बीज का विकास नहीं होता है।  इसका प्रगुणन वानस्पतिक विधि से किया जाता है। बुआई-रोपाई हेतु पौधे से उत्पन्न सकर्स और  बल्बिल्स उपयोग में लाये जाते है।  सीसल केजीवन काल के अन्त में एक लम्बे डण्डे के समान आकृति विकसित होती है जिसकी शाखाओं परबल्बिल्स बनते हैं। एक पौधे से औसतन 500 से 2000  बल्बिस  की उत्पत्ति होती है। मध्य फरवरीसे मध्य अप्रैल तक बल्बिल्स को संग्रह करके नर्सरी में बुआई कर देनी चाहिए। इसके अलावा सीसल केपौधों के मूल से प्रकन्द की उत्पत्ति होती है, जो 5 से 15 सेमी नीचे से निकलकर मिट्टी में समतलबढ़ते है और कुछ दूरी पर जाकर ऊपर की ओर उठने लगते है, जिन्हे  सकर्स के नाम से जाना जाता है।अपने जीवन काल में एक पौधा लगभग 20 से 30  सकर्स  उत्पन्न करता है। भारत में  सीसल कीखेती के लिए मुख्यतः सकर्स  का अधिक प्रयोग किया जाता है।  सामान्यतौर पर एक से डेढ़  वर्ष पुराने सकर्स को नर्सरी में पौध तैयार करना अच्छा रहता है।  बल्बिल्स से पौध तैयार करनेमें अधिक समय लगता है।
नर्सरी में पौधा कब और कैसे तैयार करें
  नर्सरी में सकर्स या बल्बिल्स को उगाकर अच्छे पौधे तैयार किये जा सकते हैं तथा इसकी रोपाई अधिक भूखण्ड में की जा सकती है। जहां नर्सरी बनाई जाये वहां जल निकास का उचित प्रबंध, मिट्टी उपजाऊ, समतल और  सिंचाई की समुचित व्यवस्था आवश्यक है। नर्सरी वाले खेत की जुताई करने के बाद पाटा चलाकर मिटटी को अच्छी तरह  भुरभुरा करने की आवश्यकता होती है। गर्मी के मौसम में प्राथमिक नर्सरी में नये स्वस्थ सकर्स या बल्बिल्स को कतार में 10 सेमी तथा पौध से पौध 5 सेमी की दूरी पर रोपाई करनी चाहिए। रोपाई के पश्चात् हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। पूर्णरूप से देख-रेख करने के 4-6 माह  पश्चात् इस पौध  यानि 20 से 30 सेमी ऊँचे पौधे  को प्राथमिक नर्सरी से चुनकर द्वितीय नर्सरी में उगाते है। रोपाई से  पहले  पौध की ख़राब जड़ों और सूखी पत्तियों की छंटाई करके साफ करने के पश्चात् 50 x 25  सेंमी की दूरी पर द्वितीय नर्सरी में रोपाई  की जाती है। 
मुख्य खेत में रोपाई
 खेत  में निश्चित दुरी पर 30-40 सेमी गहरे गड्ढे बनाकर उसमे  जैविक खाद  को मिट्टी के साथ मिलाकर हल्का भरना चाहिए। रोपाई मानसून आरम्भ होने के साथ-साथ कर लेनी चाहिए। एक कतार में रोपाई विधि में पंक्तिसे पंक्ति 2  मीटर की दूरी  तथा पौध से पौध क¢ बीच 1 मीटर की दूरी रखने पर एक हैक्टर में 5000  प©धे स्थापित हो जाते है । दो कतारों के बीचखाली स्थान में आवश्यकतानुसार  फलीदार फसलों को उगाकर एक निश्चित भूखण्ड से अतिरिक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
खाद एवं उर्वरक
     उर्वरक और खाद का प्रयोग मिट्टी की उर्वरा शक्ति ओर जलवायु के आधार पर किया जाता है। उपजाऊ जमीनों में उर्वरक देने की आवश्यकता नहीं होती है। अधिकतम रेशा उत्पादन के के लिए नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस तथा पोटाश क्रमशः60:30:60 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से समान रूप से गड्ढों में डालना चाहिए 
कटाई का समय   
      पत्तियों की कटाई, रोपाई से 2 से 3  वर्ष के बाद हंसिआ से करनी चाहिए। जब पत्तियां 60 सेमी या इससे अधिक लम्बी होजायें और  पत्तियां मिट्टी को छूने लगें। कटाई नवम्बर से जून के प्रथम सप्ताह तक कर लेनी चाहिए। पौधो से पत्तियों की प्रथम कटाई के समय 16 पत्तियों को काटा जाता है और दूसरी कटाई के लिए 12 पत्तियों को प्रति पौधा छोड़ दिया जाता है। सीसल की पत्तियों की कटाई 3 से 6  माहके अंतराल की अपेक्षा वार्षिक कटाई लाभदायक सिध्द हुई है। 
उपज एवं रेशा निष्कर्षण 
      सीसल का पौधा अपने पूरे जीवन काल अर्थात 7 से 8 वर्षो में लगभग 250 से 300  पत्तियों की उत्पत्ति करता है। एक पत्ती से सामान्यतः 20 से 30  ग्राम सूखा रेशा प्राप्त होता है। सामान्यतौर पर सीसल की पत्तियों में रेशे की मात्रा कुल हरे भाग का 4  प्रतिशत होती है। आमतौर परसीसल की औसत उपज ढाई से चार  टन प्रति हैक्टर प्रति वर्ष प्राप्त होती है। यह पौधों की संख्या, जलवायु,  मिट्टी की उर्वरता तथा पौध प्रबंधन परनिर्भर करता है। पत्तियों की कटाई के पश्चात् डिकोरटीकेटर मशीन द्वारा रेशा निकालते है। रेशा पत्तियों की कटाई के साथ-साथ या कटाई के 48  घंटेके अन्दर निकाल लेना चाहिए। अन्यथा रेशा अच्छे किस्म का नहीं होता है। कटाई के पश्चात् पत्तियों को ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्ड गर्मी में सूर्य के प्रकाशमें नही रखना चाहिए  अन्यथा रेशे की गुणवत्ता ख़राब हो सकती है। रेशा निकालने के पश्चात् इसे साफ पानी से अच्छी तरह धुलाई करके इन्हेंनिचोड़ने के तुरन्त बाद बांस के मचान पर रखकर सुखाया जाता है। जमीन या सड़कों पर रेशा सुखाने से रेशे गंदे हो जाते है। सूखे रेशे को खंभे सेपटककर अनुपयुक्त कोशिकाओ को अलग करना चाहिए।  तत्पश्चात् रेशे को अच्छी तरह झाड-पोंछ और ब्रश करके एक या दो दिन सुखाते हैं। पूर्ण रूपसे सुखाने के बाद रेशे का बंडल बनाकर बेचने के लिए बाजार भेज देते हैं।

जैविक खेती: