केसर : विश्व को कश्मीर की सौगात

अभी सूर्य ने अपनी प्रथम किरण भी नहीं बिखेरी थी कि पीठ पर टोकरियाँ उठाए महिलाओं, बच्चों तथा मर्दों की कतारें खेतों की ओर निकल पड़ीं। इन्हें खेतों से विश्व को कश्मीर की सौगात- केसर चुनना है। वे केसर के फूलों के कंग (केसर के फूलों के मध्य विकसित रेशे) चुनने निकले हैं। 

केसर या जिसे केशर भी कहा जाता है, 50 से 75 हजार रेशों में से मात्र एक औंस निकल पाता है, ऐसे में यह सोने सरीखा ही महँगा है। खाने-पीने की वस्तुओं का स्वाद बदलने के साथ-साथ यह कई रोगों में रामबाण-सा कार्य करता है। चिनार के पेड़, डल झील और मुगल उद्यान के कारण विश्वभर से लोगों को अपनी ओर खींचने वाला,धरती का स्वर्ग, कश्मीर केसर की सुगंध से मानो सोने पर सुहागा पाता है। केसर के खेत कश्मीर के कई काश्तकारों को लखपति बना रहे हैं।

कहा जाता है कि ईस्वी सन्‌ 550 से ही कश्मीर घाटी में विशेषकर पंपोर क्षेत्र में केसर की खेती आरंभ हुई थी, जो आज तक कायम है। यह भी सच है कि स्पेन में इसकी खेती से कई वर्ष पूर्व ही कश्मीर में केसर की खेती आरंभ हुई थी और ब्रिटेन में उगने वाले केसर का यह मुकाबला करता है। 

हालाँकि अब जम्मू मंडल के डोडा जिले के किश्तवाड़ कस्बे के पूछल, मट्टा, चरहार तथा टुंड क्षेत्रों में पैदा होने वाला केसर आज विश्व का सबसे बढ़िया और सुगंधित केसर माना जाता है, लेकिन बावजूद इसके वह भी कश्मीर के केसर के नाम से ही बिकता है, क्योंकि विश्व यही जानता है कि बढ़िया केसर सिर्फ कश्मीर में ही पैदा होता है। 

केसर की पैदावार के लिए ऊँचाई वाले क्षेत्रों में वह वातावरण चाहिए, जहाँ वार्षिक वर्षा की दर 30-40 सेमी से अधिक न हो और जब इस पर फूल आएँ तो दिन का तापमान 20 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक न हो। यह सब कश्मीर तथा किश्तवाड़ में पाया जाता है जबकि अब तो कश्मीर के केसर की किस्में तजुर्बे के तौर पर उत्तर काशी में दूंड, पिथौड़ागढ़ में बिसर तथा उत्तरप्रदेश क्षेत्र के गढ़वाल में भी बोई जा रही हैं। 

केसर के जामुनी रंग के फूलों के बीच में जो लाल रंग के रेशे होते हैं, उन्हीं से सबसे बढ़िया किस्म का केसर मिलता है जिसे शाही केसर के नाम से जाना जाता है। वैसे एक फूल में तीन से लेकर सात तक रेशे होते हैं और एक बार इसका बीज लगाया जाता है तो वह 10 से 15 सालों तक जीवित रहता है। 

एक अनुमान के अनुसार एक एकड़ भूमि में केसर की खेती करने के लिए 50 मन अर्थात 2000 सेर बीजों की आवश्यकता होती है और एक बार बोया गया बीज तीसरे, छठे, नौवें तथा पंद्रहवें वर्ष में अच्छी फसल देता है। वैसे इसकी खेती थका देने वाली है, क्योंकि एक किलो फसल के लिए डेढ़ मिलियन फूलों को चुनना पड़ता है और फिर इन्हें एक सप्ताह तक मध्यम आँच या सूर्य की रोशनी में सुखाकर डिब्बों में बंद किया जाता है इसलिए ही इसे सोने से अधिक कीमती माना जाता है। इसी कारण यह विश्व की सबसेमहँगी फसल है।

श्रीनगर-जम्मू राष्ट्रीय राजमार्ग पर पंपोर के पास राजमार्ग के दोनों ओर जहाँ तक नजर जाती है सिवाय केसर के खेतों के और कुछ भी नजर नहीं आता है और कश्मीर में यह भी कहा जाता है कि नवंबर माह में कार्तिक पूर्णिमा के दिन जब चाँद अपने पूरे यौवन पर होता है तो मुगल बादशाह जहाँगीर इन केसर के फूलों की सुगंध लेने के लिए अवश्य आते हैं जबकि एक किंवदंती के अनुसार केसर धरती के स्वर्ग को नागों के देवता की अनमोल भेंट है और यह भेंट राजा विक्रमादित्य के शासनकाल के दौरान मिली थी। 

दंतकथा के अनुसार नाग के नथुने से निकली फुँफकार ने राजा ललितादित्य की आँखों की रोशनी को प्रभावित किया था। राजवैद्य के परामर्श के उपरांत उन्होंने नाग देवता की पूजा की तो उनकी आँखों की रोशनी लौट आई। यह तभी संभव हो पाया था, जब नाग देवता ने केसर का बीज और फूल कश्मीर की घाटी में लाया था इसलिए आज भी जेवान में स्थित नागचश्मे में केसर की खेती करने से पहले लोग दूध डालते हैं। 

इसका थोक भाव तो 30 से 35 हजार रुपए प्रति किग्रा होता है जबकि इसी को परचून के व्यापारी 45 से 50 हजार रुपए प्रति किग्रा के भाव से बेचते हैं, क्योंकि खाने में रंगत तथा स्वाद लाने के अतिरिक्त प्रसिद्ध कश्मीरी कहवा में इसका प्रयोग किया जाता है तो दक्षिण भारत में धार्मिक कार्यों के लिए इसे प्रयोग में लाया जाता है। इसके अतिरिक्त कई रोगों में यह रामबाण औषधि सिद्ध होता है इसलिए इसका प्रयोग यूनानी तथा आयुर्वेदिक दवाओं में भी किया जाता है।

पिछले 20 सालों से कश्मीर में आतंकवाद अपने फन फैलाए बैठा है लेकिन केसर की पैदावार में कमी नहीं आई है। पहले इसके पैदावारों को कम कमाई होती थी, क्योंकि मध्यस्थों के जरिए इसे बेचा जाता था तो अब वे ग्राहक से सीधे बात करते हैं। नतीजतन कई प्रतिशत कमाई में अंतर आया है जबकि अब तो फूल के बीच पैदा होने वाले पीले रेशे (जो पुरुष फूल कहलाते हैं) को भी ऊँचे दामों पर बेचा जाने लगा है तो इन्हीं फूलों की सफेद डंडियाँ भी कम कीमती नहीं होती। 

देखा जाए तो कश्मीर की सौगात जो विश्व को मिली है, आज भी अपनी सुगंध बारूद की दुर्गंध के बावजूद, उसी तरह से बिखेर रही है, जैसे वह सदियों पहले बिखेरती थी

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