जैविक खेती : आधुनिक समय की मांग

भारत में कृषि की घटती जोत, संसाधनों की कमी, लगातार कम होती कार्यकुशलता और कृषि की बढ़ती लागत तथा साथ ही उर्वरक व कीटनाशकों के पर्यावरण पर बढ़ते कुप्रभाव को रोकने में निःसंदेह जैविक खेती एक वरदान साबित हो सकती है। जैविक खेती का सीधा संबंध जैविक खाद से है या यह कहें कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज जबकि दूसरी हरित क्रांति की चर्चा जोरों पर है, वहीं हमें कृषि उत्पादन में मंदी के कारणों पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा और कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु जल प्रबंधन, मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखने और फसलों को बीमारी से बचाने पर जोर देना होगा। यह कहना गलत न होगा कि जैविक खेती से तीनों समस्याओं का प्रभावी ढंग से समाधान किया जा सकता है। इसलिए रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को हतोत्साहित करते हुए जैविक खेती को प्रोत्साहन देना समय की मांग है।
रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में सावधानी बरतते हुए जैविक खेती पर ध्यान देना चाहिए।

जैविक खेती में हम कंपोस्ट खाद के अलावा नाडेप, कंपोस्ट खाद, केंचुआ खाद, नीम खली, लेमन ग्रास एवं फसल अवशेषों को शामिल करते हैं। जैविक खाद के उपयोग से न केवल मृदा की उर्वरता बढ़ती है बल्कि उसमें नमी की वजह से काफी हद तक सूखे की समस्या से भी निजात मिलती है। जैविक खाद के प्रयोग से भूजल धारण क्षमता बढ़ती है। इसके साथ ही जैविक कीटनाशक से मित्र कीट भी संरक्षित होते हैं। इस प्रकार घटते भूजल स्तर के लिए जैविक खेती एक वरदान साबित होगी। 

हरित क्रांति में संकर बीज किस्मों, रासायनिक उर्वरकों, नई तकनीक व मशीनों के प्रयोग को प्रोत्साहित किया गया। रासायनिक, उर्वरकों जैसे यूरिया, डीएपी, कीटाणुनाशक तथा खरपतवार नाशक दवा का अत्यधिक उपयोग करने से मिट्टी की स्वाभाविक उर्वरा शक्ति में कमी हुई तथा बड़ी मात्रा में कृषि भूमि बंजर हो गई जिसके परिणामस्वरूप जैविक खेती को  वैज्ञानिक प्रोत्साहित कर रहे हैं। इस पद्धति के बारे में पुनः नए सिरे से कृषकों में जागृति तथा विश्वास बढ़ रहा है। जैविक खेती से उत्पाद की गुणवत्ता ही नहीं बल्कि खेत, खलिहान तथा उपभोक्ताओं में उन्नत सामंजस्य स्थापित हुआ है।जैविक खेती के तीन मुख्य आधार हैं। पहला—मिश्रित फसल, दूसरा—फसल चक्र और तीसरा—जैव उर्वरक का उपयोग।हम कृषि उत्पाद के अवशिष्ट पदार्थ (जैसे- पुआल, भूसी) बायोगैस संयंत्र का अवशिष्ट एवं केंचुआ खाद आदि का उपयोग करके मिट्टी में मौजूद विभिन्न तत्वों की आनुपातिक मात्रा सामान्य बनाए रख सकते हैं। खेत-खलिहानों के उत्पाद को ही उर्वरक, कीटाणुनाशक या खरपतवारनाशक या फफूंदीनाशक के रूप में इस्तेमाल करके आर्थिक बोझ को कम करते हुए प्राकृतिक संतुलन स्थापित कर सकते हैं।

जैविक खादों का मृदा उर्वरता और फसल उत्पादन में महत्व

1. जैविक खादों के प्रयोग से मृदा का जैविक स्तर बढ़ता है, जिससे लाभकारी जीवाणुओं की संख्या बढ़ जाती है और मृदा काफी उपजाऊ बनी रहती है।
2. जैविक खाद पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक खनिज पदार्थ प्रदान कराते हैं, जो मृदा में मौजूद सूक्ष्म जीवों के द्वारा पौधों को मिलते हैं, जिससे पौधे स्वस्थ बनते हैं और उत्पादन बढ़ता है।
3. रासायनिक खादों के मुकाबले जैविक खाद सस्ते, टिकाऊ बनाने में आसान होते हैं। इनके प्रयोग से मृदा में ह्यूमस की बढ़ोतरी होती है व मृदा की भौतिक दशा में सुधार होता है।
4. पौध वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्वों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश तथा काफी मात्रा में गौण पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक खादों के प्रयोग से ही हो जाती है।
5. कीटों, बीमारियों तथा खरपतवारों का नियंत्रण काफी हद तक फसल चक्र, कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं, प्रतिरोध किस्मों और जैव उत्पादों द्वारा ही कर लिया जाता है।
6. जैविक खादें सड़ने पर कार्बनिक अम्ल देती हैं जो भूमि के अघुलनशील तत्वों को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर देती हैं, जिससे मृदा का पीएच मान 7 से कम हो जाता है। अतः इससे सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है। यह तत्व फसल उत्पादन में आवश्यक है।
7. इन खादों के प्रयोग से पोषक तत्व पौधों को काफी समय तक मिलते हैं। यह खादें अपना अवशिष्ट गुण मृदा में छोड़ती हैं। अतः एक फसल में इन खादों के प्रयोग से दूसरी फसल को लाभ मिलता है। इससे मृदा उर्वरता का संतुलन ठीक रहता है।