जैविक खेती आधुनिक समय की मांग एवं भविष्य

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि 60वें दशक की हरित क्रांति ने यद्यपि देश को खाद्यान्न की दिशा में आत्मनिर्भर बनाया लेकिन इसके दूसरे पहलू पर यदि गौर करें तो यह भी वास्तविकता है कि खेती में अंधाधुंध उर्वरकों के उपयोग से जल स्तर में गिरावट के साथ मृदा की उर्वरता भी प्रभावित हुई है और एक समय बाद खाद्यान्न उत्पादन न केवल स्थिर हो गया बल्कि प्रदूषण में भी बढ़ोतरी हुई है और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा हुआ है जिससे सोना उगलने वाली धरती मरुस्थल का रूप धारण करती नजर आ रही है। मिट्टी में सैकड़ों किस्म के जीव-जंतु एवं जीवाणु होते हैं जो खेती के लिए हानिकारक कीटों को खा जाते हैं। फलतः उत्पादन प्रभावित होता है। इसलिए समय की मांग है कि 60 के दशक की पहली क्रांति के अनुभवों से सबक लेते हुए हमें दूसरी हरित क्रांति में रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में सावधानी बरतते हुए जैविक खेती पर ध्यान देना चाहिए।

भारत में कृषि की घटती जोत, संसाधनों की कमी, लगातार कम होती कार्यकुशलता और कृषि की बढ़ती लागत तथा साथ ही उर्वरक व कीटनाशकों के पर्यावरण पर बढ़ते कुप्रभाव को रोकने में निःसंदेह जैविक खेती एक वरदान साबित हो सकती है। जैविक खेती का सीधा संबंध जैविक खाद से है या यह कहें कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज जबकि दूसरी हरित क्रांति की चर्चा जोरों पर है, वहीं हमें कृषि उत्पादन में मंदी के कारणों पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा और कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु जल प्रबंधन, मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखने और फसलों को बीमारी से बचाने पर जोर देना होगा। यह कहना गलत न होगा कि जैविक खेती से तीनों समस्याओं का प्रभावी ढंग से समाधान किया जा सकता है। इसलिए रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को हतोत्साहित करते हुए जैविक खेती को प्रोत्साहन देना समय की मांग है।
रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में सावधानी बरतते हुए जैविक खेती पर ध्यान देना चाहिए।

आज भारत में ६५% लोग खेती के काम में लगे है या खेती से जुड कर अपनी आजीविका चला रहे है. फिर भी हमारे यहा खेती हमेशा से संकटग्रस्त रही है. भारत की खेती मानसून आधारित है , जिस से यहा पर एक बात हमेशा देखि जाती है की मानसून अच्छा और मजबूत होगा तो सेंसेक्स और सत्ता दोनों बड़े मजबूत होते है नहीं तो भारत का बाज़ार कमज़ोर हो जाता है. इस वर्ष भारत में मोसम विभाग ने माना है की देश का मानसून कमज़ोर है . जो जुलाई माह में पिछले वर्ष की तुलना में २५%कम सक्रीय है.जिस से खेती पर संकट सा छ गया है. यदि अगले माह भी यही हालात रहे तो देश में खेती और अन्य कामो के लिए पानी का संकट सा छाया रहेगा . एसे हालत में हम खेती के लिए क्या करे और पानी कहा से लाये? पानी के बेहतर उपयोग और बचत के अलावा कोई विकल्प नहीं है .खेती में पानी का उपयोग बेहतर हो और फसल उत्पादन प्रभावित न हो इसके लिए अवाश्यक है की हम समुचित रणनीति बनाके खेती करे.

आज पानी के बाद दूसरी बड़ी समस्या है संसाधनों के बढते लागत मूल्य की . आज रासायनिक खादों के बदते मूल्य और स्थिर फसल उत्पादन से किसान बड़ा असमंजस में है की खेती की लगत कम कैसे करे और ? आखिर समाधान क्या हो. 

समाधान है , हमें फिर से अपना परम्परागत खेती का तंत्र अपनाना होगा जिसे हम जैविक खेती कहते कहते है.आज सारा विश्व पर्यावरण सम्मत खेती को अपने अच्छे भविष्य के लिए एक विकल्प के तौर पर देख रहा है. इसे मै जैविक या पर्यावरण सम्मत खेती (ecofriendly) कहता हूँ. 
 

आखिर जैविक  खेती ही क्यों.?

हमारे देश के खेतों या जोतो का आकार बेहद छोटा है यहाँ का किसान सामान्यता: मझोला या छोटा है जिसके पास जमीन २.५ से ५ एकढ़ ही है वह खेती क़र्ज़ लेके करता है और उस से वह सिर्फ क़र्ज़ ही चुका पता है. इस दशा में किसान की आवशयकता है की वो अपने संसाधन सस्ते कम खर्चो में और आसानी से जुटाये 

और संसाधन उसे कही और नहीं उसके अपने खेत से जुटाना होंगे. इस दशा में जैविक खेती एक अच्छा सर्व सुलभ आसान विकल्प है.

हम खेतों से उसके आस पास के संसाधनों से खेतों के लिए खाद कीटनाशक और अन्य कृषि उपयोगी साधन बना सकते है. 

खेती की प्रथम आवश्यकता है खाद और उर्वरक सबसे पहले हम इन पर विचार करते है,

जैविक खाद बनाने के लिए हम अपने खेत आस पास के घरों का कचरा तालाबो और नालो की सफाई के बाद निकला कचरा उपयोग करते है. इनके उपयोग का तरीका निम्न प्रकार है 

1)नाडेप विधि , 2)वर्मी कम्पोस्ट, 3) मटका विधि 5)वर्मी वाश 

1नाडेप विधि इसमें हम १२ फुट लंबा ६ फुट चौड़ा और ३फुट गहरा ईट का टांका बना लेते है टांका बनाते समय बीच बीच चारों ओर थोडा सा स्थान छोड़ते जाते है. इसमें ६ से ८ इंच की मोटाई में कचरा खेतों का, पट्टी गोबर और बारिक छानी मिटटी की परत बनके दाल देते है. हर बार परतों में पानी देकर अछे से भीगों देते है ताकि नमी कम न हों . इसमें कुछ दिनों में गर्मी निकलना बंद हो जाए तब देखते है की सारी सामग्री दब जाती है तब पुन्हा: भर देते है और गोबर से लीप कर अच्छे से टांका बंद कर देते है, समय समय पर इसे हम टांका के छिद्रों से देखते है . इसे हम १२० दिने के बाद खली करते है यदि खाद की कोई सामग्री या हिस्सा पचा न हो तो पूना: वह सामग्री टांका में दाल देते है. 

१) इसे उपयोग में लाने समय इस में हम बेक्टीरिया कल्चर फसल की मांग के अनुरूप मिला कर खेत में डालते है.

२) इसमें रॉक फास्फेट मिला कर फासफो कम्पोस्ट बना लेते है.

इसे हम टटियाँ बना के भी बना  सकते है.कच्चा टांका हम टटियों से बना लेते है.

मटका खाद इसमें हम गोबर गो मूत्र और गो शाला का निकला हुआ तरल और मूत्र का घोल बना के हम इसे मटके में रखते है और मटका जमीं में दबा देते है. यह मटका २ माह बाद खोलते है तो खाद तरल में मिलती है. 

वर्मी कम्पोस्ट इसके लिए हम १०*६*२ घन फुट का या अपनी आवश्यकता के अनुसार टांका या टंकी बनाते है. इसमें पचा और ठंडा गोबर भूसा पोधो की पत्तियां दाल देते है १ या २ हफ्ते में इसमें हर टांका में लगभग २ से ३ किलो केचुए दाल देते है ध्यान रहे टाँके का ताप मान २५ से ३० सेंटीग्रेड के मध्य रहे नहीं तो केचुए मर जायेंगे. केचुए यहा खाके सारी सामग्री पचा देते है. और खाद में बदल देते है. इन तांको को हम पहले भरने के ३० दिन में और दुबारा ४५ से ५० दिन में पलट देते है. इस प्रकार टांका में खाद बन ने की प्रक्रिया तेज हो जाती है.

इसे बनाने के लिए हम एक पालीथीन जमीं में बिछाके उस पर सामग्री डालके भी कर सकते है.

वर्मी कम्पोस्ट बनाते समय इसके ऊपर छाया बना देते है. और नमी की मात्रा सही रखते है.

हरी खाद कि फ़सल से जैसे ढ़ेचा सन का उपयोग भी करके उरवर शकति बद सकते है

वर्मि वाश केचुआ खाद को हम टंकि मे बनते है और इस का तरल इक्कठा करके उसक उयोग करते है

इस की उर्वरक क्षमता बड़ाने के लिये बैक्टीरिया कलचर मिला देते है जैसे 

गेहूँ के लिये एज़ोटोबेक्टर ,धान मे नील हरित शैवाल ,दलहन मे राईज़ोबियम 

मिला देते है

विभिन्न जैव उरवरको से उपलबध पोशक तत्व (kg)

खाद                                              नत्रजन             फ़ासफोरस              पोटाश          अन्य जैव तत्व 

गोबर कि खाद                               7.5                        6                        12                 9.5

नाडेप                                            10                       7                         13                 13

फ़ासफ़ो कम्पोस्ट                          10                      55                         15                   20

वर्मि कमपोस्ट                             27                      17.5                     17.5                  18

बायो गैस सलरी                           17.5                   10                         10                     12

खेती मे दूसरा भाग है फ़सल सुरक्षा

बीजोपचार: गो मुत्र से बीज को भिगोने से रोग सुरक्षा मे फ़ायद मिलता है, इसमे हम ट्राईकोडर्मा विर्डी , पी एस बी / पी एस एम (फास्फोरस के लिये) से उपचारकरते है

कीटनाशक: मे हम नीम तेल, नीम खलि, पाउडर, सीता फ़ल के बीज का पाउडर 

गेन्दा और सेवंती के फूल और धना कि अंतरवर्ति फ़सल 

उपयोगी  सुक्ष्म जीव बेसिलस थुरिजिनेनसिस , ओरिक्टस (दोनो बैक्टिरीया )

फ़फूंद मेटारायज़िम एनिसोपेलि नोमुरिआ 

ये फ़सल सुरक्षा मे बहुत उपयोगी सूक्ष्म जीवी है

फसलों के लिए आवशयक सूक्ष्म पोषक तत्व भी निम्न पौधो के अवशेष कम्पोस्ट में उपयोग करके दे सकते है 

जैसे सरसों सोयाबीन के भूसे से गंधक 

दूधि, चेच और सिलमीली के पौधे से केल्शियाम पोटाश गंधक 

गजार घास से बोरान गंधक और पोटाश 

जल कुम्भी गंधक पोटाश नत्रजन 

इस बातो का उपयोग करने से हम फ़सल बढा सकते है और लागत घटा सकते है फ़िर आखिर जैविक खेती मे दिक्कत क्या है ?

आज रासयनिक खेती ने किसानो को आलसी और निक्कमा बना दिया है किसान काम करने से डरता है.

जैविक खेती के द्वारा लाभ मिल सकता है पर इसका प्रमानिकरण आवश्यक है इसके बिना किसान का माल बड़े पैमाने में नहीं बिकता यहा दिक्कत ये है की प्रमाणीकरण की फीस अत्याधिक है. जो किसान भुगतान नहीं कर पाता. और उसकी फसल का मूल्य भी कम मिलता है.

जैविक खेती के लाभ 

फ़सल की लागत कम पानी कि मात्रा कम लगती है मृदा क संरचना सुधरती है जिस से फ़सल का विकास अच्छा होता है हर पर्यावरन सुधरता है मित्र कीटो के कारन उत्पादन बड़ता है

जैव तत्व के कारन फ़सल मे अन्य तत्व कि उपलब्धता बढ़ जाती है 

पौधो को जढ़ों तक हवा पानी अच्छे से मिलता है जिस से पौधा स्वस्थ होता है

आज आवश्यकता है की जैविक का उपयोग किसान करे ताकि इसे व्यावसायिक रूप से आगे ले सके. कुछ समूह और संस्थायें किसान समूहों के मध्यम से जैविक खेती का उत्पादन ले रही है, उनके समूह में प्रमानिकरण की फीस दर कम होती है अत: किसान का संगठित होके खेती का काम बहुत बचत करा सकता है. इन सब बातों में एक बात बेहद महत्वपूर्ण है वो की किसान को मानसिकता खेती के प्रति सम्मान जनक और व्यावसायिक हो जिस से वह प्रतिस्पार्धा के दौर में खेती से मान सामान पा सके .

जैविक खादों का मृदा उर्वरता और फसल उत्पादन में महत्व

1. जैविक खादों के प्रयोग से मृदा का जैविक स्तर बढ़ता है, जिससे लाभकारी जीवाणुओं की संख्या बढ़ जाती है और मृदा काफी उपजाऊ बनी रहती है।
2. जैविक खाद पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक खनिज पदार्थ प्रदान कराते हैं, जो मृदा में मौजूद सूक्ष्म जीवों के द्वारा पौधों को मिलते हैं, जिससे पौधे स्वस्थ बनते हैं और उत्पादन बढ़ता है।
3. रासायनिक खादों के मुकाबले जैविक खाद सस्ते, टिकाऊ बनाने में आसान होते हैं। इनके प्रयोग से मृदा में ह्यूमस की बढ़ोतरी होती है व मृदा की भौतिक दशा में सुधार होता है।
4. पौध वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्वों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश तथा काफी मात्रा में गौण पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक खादों के प्रयोग से ही हो जाती है।
5. कीटों, बीमारियों तथा खरपतवारों का नियंत्रण काफी हद तक फसल चक्र, कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं, प्रतिरोध किस्मों और जैव उत्पादों द्वारा ही कर लिया जाता है।
6. जैविक खादें सड़ने पर कार्बनिक अम्ल देती हैं जो भूमि के अघुलनशील तत्वों को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर देती हैं, जिससे मृदा का पीएच मान 7 से कम हो जाता है। अतः इससे सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है। यह तत्व फसल उत्पादन में आवश्यक है।
7. इन खादों के प्रयोग से पोषक तत्व पौधों को काफी समय तक मिलते हैं। यह खादें अपना अवशिष्ट गुण मृदा में छोड़ती हैं। अतः एक फसल में इन खादों के प्रयोग से दूसरी फसल को लाभ मिलता है। इससे मृदा उर्वरता का संतुलन ठीक रहता है।

 उन्नत एवं कामयाब किसान स्व.श्री अंगन लाल गंगवार द्वारा कृषक गोष्ठी २००४ में दिए विचारों के कुछ अंश 

kisanhelp.in ऐसे महान उन्नत एवं कामयाब किसानो के विचारो को प्रस्तुत कर रही है