टिंडा की उन्नत खेती

भूमि :-

इसको बिभिन्न प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है किन्तु उचित जलधारण क्षमता वाली जीवांशयुक्त हलकी दोमट भूमि इसकी सफल खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है वैसे उदासीन पी.एच. मान वाली भूमि इसके लिए अच्छी रहती है नदियों के किनारे वाली भूमि भी इसकी खेती के लिए उपयुक्त रहती है कुछ अम्लीय भूमि में इसकी खेती की जा सकती है पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करें इसके बाद २-३ बार हैरो या कल्टीवेटर चलाएँ |

जलवायु :-

टिंडे की खेती के लिए गर्म और आद्र जलवायु की आवश्यकता होती है यह पाले को सहन करने में बिलकुल असमर्थ होती है टिंडा का बुवाई गर्मी और वर्षा में की जाती है अधिक वर्षा और बादल वाले दिन रोग व कीटों के प्रकोप को बढ़ावा देते है |

प्रजातियाँ :-

बीकानेरी ग्रीन :-

यह रजस्थान की किस्म है जिसे ग्रीष्म कालीन के रूप में उगाया जाता है इसके फल गोल मुलायम और हरे रंग के होते है |

हिसार चयन १ :-

इस किस्म का विकास हरियाणा कृषि वि.वि. द्वारा किया गया है इसके फल गोल हरे रंग के रोएंदार और देखने में अत्यंत आकर्षक होते है यह अधिक पैदावार देने वाली किस्म है |

अर्का टिंडा:-

इस किस्म का विकास भारतीय वागबानी अनुसन्धान संस्थान बंगलौर कर्नाटक द्वारा किया गया है इस किस्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है की यह फलों की मक्खी की प्रति रोधी किस्म है फल लगभग गोल हलके हरे रंग के होते है बीज बहुत कम होते है |

टिंडा एस ४८ :-

यह एक अगेती किस्म है जिसके फल बुवाई के ७० दिनों बाद पहली तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है इसके फल गोल हलके हरे रंग के होते है फल का भार लगभग ५० ग्राम होता है |

एस २२ :-

यह भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली से शुद्ध वंशक्रम का  विकास किया गया है |

बीज बुवाई :-

बोने का समय :-

फवरी-मार्च और जून-जुलाई 

बीज की मात्रा :-

इसकी बुवाई के लिए एक हे. में ५-६ किलो ग्राम बीज पर्याप्त होता है |

बुवाई की विधि :-

आमतौर से टिंडे की बुवाई समतल क्यारियों में की जाती है किन्तु डौलियों पर बुवाई करना अत्यंत उपयोगी एवं लाभप्रद रहता है अगेती फसल के लिए १.५-२ मी. चौड़ी , १५ से.मी. उठी क्यारियां बनाएं २ क्यारियों के मध्य एक मीटर चौड़ी नाली छोड़े बीज दोनों क्यारियों के किनारों पर ६० से.मी. की दुरी पर बोएं बीज को १.५-२ से.मी. से अधिक गहरा न बोएं |

आर्गनिक खाद :-

टिंडे की फसल में अधिक पैदावार लेने के लिए उसमे पर्याप्त मात्रा में आर्गनिक खाद , कम्पोस्ट खाद का होना बेहद जरुरी होता है इसके लिए एक हे. भूमि में ३०-४० क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से सड़ी खाद और आर्गनिक खाद २ बैग भू-पावर वजन ५० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो फर्टी सिटी कम्पोस्ट वजन ४० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो नीम वजन २० किलो ग्राम , २ बैग सुपर गोल्ड कैल्सी फर्ट वजन १० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो भू-पावर वजन १० किलो ग्राम और ५० किलो अरंडी की खली इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर खेत में बुवाई से पहले समान मात्रा में बिखेर लें और खेत की अच्छी प्रकार जुताई कर तैयार करें इसके बाद बीज बुवाई करें |

और फसल जब २०-२५ दिन की हो जाए तब उसमे २ बैग सुपर गोल्ड मैग्नीशियम वजन १ किलो ग्राम और माइक्रो झाइम ५०० मि.ली. को ४०० ली. पानी में मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण बनाकर फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें और हर १५-२० दिन के अंतर पर दूसरा व तीसरा छिडकाव करें |

सिचाई :-

ग्रीष्म कालीन फसल की प्रति सप्ताह सिचाई करें वर्षा कालीन फसल की सिचाई वर्षा पर निर्भर रहती है |

 खरपतवार नियंत्रण :-

टिंडे की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते है जो भूमि से नमी, पोषक तत्व , स्थान, धुप आदि के लिए पौधों से प्रतिस्पर्धा करते है जिसके कारण पौधों के विकास , बढ़वार और उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है इनकी रोकथाम के लिए २-३ बार निराई गुड़ाई करके खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिए |

कीट नियंत्रण :-

लालड़ी :-

पौधों पर दो पत्तियां निकलने पर इस कीट का प्रकोप शुरू हो जाता है यह कीट पत्तियों और फूलों को खाता है इस कीट की सुंडी भूमि के अन्दर पौधों की जड़ों को काटती है |

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम का साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें|

 फल की मक्खी :-

यह मक्खी फलों में प्रवेश कर जाती है और वहीँ पर अंडे देती है अण्डों से बाद में सुंडी निकलती है ये फल को वेकार कर देती है यह मक्खी विशेष रूप से खरीफ वाली फसल को अधिक हानी पहुंचाती है |

 

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम का साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें|

सफ़ेद ग्रब :-

यह कीट कद्दू वर्गीय पौधों को काफी हानी पहुंचाता है यह भूमि के अन्दर रहता है और पौधों की जड़ों को खा जाता है जिसके कारण पौधे सुख जाते है |

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए खेत में बुवाई से पूर्व नीम की खाद का प्रयोग करें |

रोग नियंत्रण :-

चूर्णी फफूंदी :-

यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक फफूंदी के कारण होता है पत्तियों एवं तनों पर सफ़ेद दरदरा और गोलाकार जाल से दिखाई देता है जो बाद में आकार में बढ़ जाता है पूरी पत्तियां पीली पड़कर सुख जाती है पौधों की बढ़वार रुक जाती है |

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम का साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें|

मृदुरोमिल फफूंदी :-

यह रोग स्यूडोपरोनोस्पोरा क्यूबेन्सिस नामक फफूंदी के कारण होता है रोगी पत्तियों की निचली सतह पर कोणाकार धब्बे बन जाते है जो ऊपर से पीले या लाल भूरे रंग के होते है |

रोकथाम :-

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम का साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें|

मोजैक :-

यह विषाणु के द्वारा होता है पत्तियों की बढ़वार रुक जाती है और वे मुड़ जाती है फल छोटे बनते है उपज कम मिलती है यह रोग चैंपा द्वारा फैलता है |

रोकथाम :-

बुवाई के लिए रोग रहित बीज उपयोग करें , रोगरोधी किस्मे उगाएँ , रोगी पौधों को उखाड़कर जला दें |

एन्थ्रेक्नोज :-

यह रोग कोलेटोट्राईकम स्पीसीज के कारण होता है इस रोग के कारण पत्तियों और फलों पर लाल काले धब्बे बन जाते है ये धब्बे आपस में मिल जाते है यह रोग बीज द्वारा फैलता है |

रोकथाम :-

बोज को बोने से पूर्व नीम का तेल या गौमूत्र या कैरोसिन से उपचारित करना चाहिए उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए और 

खेत को खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिए |

तुड़ाई :-

टिंडे के फलों का चयन उसकी जातियों के ऊपर निर्भर करता है आमतौर पर बुवाई के ४०-५० दिनों बाद फलों की तुड़ाई शुरू हो जाती है |

उपज :-

इसमें प्रति हे. १००-१२५ क्विंटल तक उपज मिल जाती है |

organic farming: 
जैविक खेती: