लीची की उन्नत खेती

मिट्टी तथा जलवायु: 
लीची के लिए गहरी दोमट मिट्टी उत्तम रहती है। मुजफ्फरनगर के आसपास कैल्शियम बाहुल्य वाली भूमि पायी जाती है, जिसमें जड़ों का विकास अच्छा होता है। इसी प्रकार की भूमि पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया तथा पडरौना, महाराजगंज जनपद के कुछ क्षेत्रों में पायी जाती है तथा बलुई या चिकनी मिट्टी में यह काफी पैदावार देती है। किन्तु जल-निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए तथा भूमि कड़ी परत या चट्टान वाली नहीं होना चाहिए, क्योंकि अम्लीय मिट्टी में लीची का पौधा काफी तेज गति से बढ़ता है तथा मिट्टी में चूने की कमी नहीं होनी चाहिए। फ्लोरिडा में लीची के लिए 5.0 से 5.5 पी.एच. मान उत्तम माना जाता है। लीची एक उपोष्ण देशज फल है। इसके लिए मई-जून में मध्यम जलवायु की आवश्यकता होती है। इस समय अधिक गर्मी तथा वातावरण बहुत शुष्क होने पर इसका लीची पर काफी असर पड़ता है, परन्तु उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में मई-जून में आर्द्रता 30 प्रतिशत या इससे कम रहती है। यहाँ लीची की पैदावार अच्छी होती है। लीची की सफल बागवानी के लिए दिसम्बर-जनवरी तक औसत न्यूनतम तापमान लगभग 7 डिग्री सेल्सियस तथा गर्मी में अधिकतम तापमान 36 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं होना चाहिए। लीची के छोटे पौधे पाले से अधिक प्रभावित होते हैं तथा पाले से इनकी सुरक्षा करना आवश्यक है।

प्रवर्धन और पौध-रोपण: 
लीची का व्यावसायिक प्रवर्धन गुटी द्वारा होता है जो बरसात के प्रारंभ से तैयार की जाती है। उचित मोटाई की शाखा लेकर, इसके नीचे वाले भाग से लगभग 2.5 से.मी लम्बाई में छिलका हटाकर वलय के ऊपरी भाग को रूटोन या सिराडेक्स के नाम से उपचारित किया जाय। इसके बाद इसे नम माॅस घास से ढॅंककर ऊपर से एल्काथीन का टुकड़ा लपेटकर कसकर बाॅंध देना चाहिए तथा ऐसा करने से श्वसन की प्रकिया चलती रहती है और वाष्पीकरण रूक जाता है।
इसके बाद लगभग 2 माह के अन्दर जड़ें पूर्ण रूप से निकाल देना चाहिए तथा इसके बाद इसकी शाखा मातृवृक्ष काटकर आंशिक साये में गमले में लगाकर रख दिया जाना चाहिए। जिसके फलस्वरूप इसकी जडें कुछ मोटी होती रहेगी, जो जल्दी आसानी से टूट जायेगी। इसके परिणामस्वरूप पौधो के मरने का भय अधिक रहता है तथा लीची की कुछ पत्तियों को तोड़ देना चाहिए, जिससे मरने की संभावना काफी कम रहती है तथा पानी शोषण और वाष्पीकरण में एक सामंजस्य स्थापित हो जाता है। एक साल के बाद इसके पौधे खेत में लगाने योग्य हो जाते है। यदि माॅस घास और वरमीकुलाइट के मिश्रण का प्रयोग गुटी बांधने हेतु किया जाए तो निकलने वाली जड़े पतली हो जाती है और टूटती कम है। तथा इसके फलस्वरूप नर्सरी में लगाने के बाद पौधों के मरने की कम संभावना रहती है।

पौध-रोपण:
लीची का जुलाई से लेकर अक्टूबर तक किसी प्रकार रोपण किया जाना चाहिए है। रोपण के पहले बाग के चारों तरफ वायुरोधक वृक्ष लगाना अच्छा रहता है तथा पश्चिम दिशा में काफी आवश्यकता होती है, क्योंकि गर्मी में लीची के पेड़ गर्म हवा से रक्षा करते हैं। गड्ढ़ो की खुदाई तथा भराई आम के पौधों की तरह करनी चाहिए। भराई के लिए गड्ढे की ऊपरी भाग में मिट्टी के साथ 20-25 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद, 2 कि.ग्रा हड्डी का चूरा तथा 300 ग्राम म्यूरेट आफ पौटाश मिलाकर डालना चाहिए।
लीची के पौधे को सामान्य रूप से भूमि में 10 मी. की दूरी पर लगाया जाना चाहिए तथा शुष्क जलवायु तथा कम उपजाऊ भूमि में यह दूरी 8 मी. होना चाहिए। रोपण के लिए स्वस्थ पौधों का चयन किया जाना चाहिए ।

लीची की किस्में: 
भारत में लीची की लगभग 50 किस्में पैदा की जाती है, किन्तु कुछ भागों में विभिन्न नामों से पुकारी जाती है।
बिहार में उगायी जाने वाली मुख्य किस्में है- पुरवी, कसबा, शाही, चाइना, अरली बेदाना, लाल मुम्बई आदि है तथा उत्तरप्रदेश और बंगाल में भी
विभिन्न प्रकार की किस्में उगायी जाती है, जिससे कि बेदाना किस्मों की विशेषता है कि इनमें बीज छोटा (लौगं के आकार) का होता है तथा गूदे की मात्रा अधिक होती है। फल के विकास के लिए इसमें परागण आवश्यक होता है। इसमें चीनी की मात्रा 14 प्रतिशत होती है, जबकि अन्य किस्मों में 10-11 प्रतिशत ही होती है।

प्रमुख रोग एवं कीट:
लीची में किसी भी प्रकार की बीमारी या हानिकारक कीटों का प्रकोप कम देखने को मिलता है।

लीची माइट: 
यह कीट पत्तियों के निचले भाग पर पाया जाता है, जो पत्तियो का रस चूसता है तथा पत्तियाॅं भूरे रंग की व मखमली हो जाती है और इसकी पत्तियाँ मुड़ जाती है तथा इनका परिसंकुचन इतना अधिक बढ़ जाता है कि यह पूर्ण रूप से मुड़कर गोल हो जाती है। अन्त में पत्तियाॅं सूख जाती है। यह कीट मार्च-जुलाई तक लीची के पौधे पर काफी देखने को मिलता है।

रोकथाम: 
इसकी मखमली पत्तियों को सावधानी पूर्वक तोड़कर जला देना चाहिए तथा नीचे गिरी पत्तियों को भी एकत्रित कर जला देना चाहिए तथा इसके पेड़ पर 0.05 प्रतिशत पैराथियान का छिड़काव किया जाना चाहिए।

मीलीबग: 
लीची और आम के मिश्रित बागों व उद्यानों में इस कीट का प्रकोप पाया जाता है। यह फूलों तथा नई कोपलों से रस चूसता है।

रोकथाम: 
इस कीट की रोकथाम के लिए 0.05 प्रतिशत पैराथियान का छिड़काव किया जाए तथा पक्षी और चमगादड़ को आने से रोकने के लिए अच्छी रखवाली की जानी चाहिए ।

खाद और पानी: 
लीची के पौधों में खाद की मात्रा फल की वृद्धि पर निर्भर करती है। एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार 454 कि.ग्रा. ताजे फल की वृद्धि के लिए 1.36 कि.ग्रा पोटाश, 455 ग्राम फास्फोरस, 455 ग्राम नाइट्रोजन, 342 ग्राम चूना तथा 228 ग्रा. मैग्नीशियम का उपयोग किया जाए। लीची के लिए सिंचाई आमतौर पर गर्मी में की जानी चाहिए।
यदि गर्मी में आर्द्रता बढ़ जाय और मिट्टी की जल धारण क्षमता अच्छी हो तो सिंचाई की मात्रा को कम किया जाना चाहिए तथा गर्मी में छोटे पौधो के लिए प्रति सप्ताह सिंचाई करना लाभदायक है। फल की वृद्धि के समय सिंचाई 10-15 दिनों तक नियमित करना चाहिए।

निराई-गुड़ाई: 
लीची के बगीचे को घासपात-खरपतवार से साफ करना चाहिए जो वृक्षों के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। गहरी जुताई या खुदाई लीची के बाग में नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसकी जड़े भूमि तल के पास ही होती है।

फलों की कटाई:
लीची के फलों को तोड़ते समय गुच्छे से टहनी वाला भाग काट लेना चाहिए, जिससे अगले साल शाखाओं की वृद्धि के साथ फल लगते रहे।

फलत और उपज:
उत्तर भारत की जलवायु में लीची के प्ररोह जनवरी-अक्टूबर के बीच में निकलते है, परन्तु फरवरी में निकलने वाले प्ररोहो पर अधिक फूल निकलते है। लीची में तीन तरह के फूल आते हैं। नर, उभयलिंगी तथा झूठे उभयलिंगी, विभिन्नों किस्मों में उभयलिंगी तथा झूठे उभयलिंगी फूलों की संख्या 20-26 प्रतिशत होती है।
लीची में परागण मधुमक्खियों द्वारा होता है। इनकी क्रियाशीलता को बनाये रखने के लिए कीटनाशक दवाओं का प्रयोग नहीं करना चाहिए। बेदाना किस्मों में परागण अधिक होता है साथ ही इनके बागों में या आसपास मधुमक्खी पालन पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ।

विपणन: 
फलों की भंडारण क्षमता कम होने के कारण स्थानीय बाजारों में खरीदा जाता है तथा उत्पादन विशिष्ट स्थानों पर सीमित होने के कारण देश तथा देश के बाहर निर्यात करने की काफी प्रबल संभावना रहती है।
लीची के फलों को सावधानीपूर्वक तुड़ाई के बाद ठंडे हवादार स्थान पर पैकिंग करना चाहिए तथा बांस की छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में लीची के फल को पैक किया जाना चाहिए तथा उसके चारों ओर लीची की हरी पत्तियाँ रखी जाना चाहिए, जिससे इसका दूर-दूर तक विपणन किया जा सकता है।

organic farming: 
जैविक खेती: