धान में पौधशाला प्रबन्धन

धान विश्व में सर्वाधिक क्षेत्रफल में उगायी जाने वाली फसल है तथा अधिकांश क्षेत्रफल में इसकी खेती रोपाई विधि से होती है। रोपाई विधि में पौधशाला में धान की पौध तैयार की जाती है जो एक निश्चित अवधि के पश्चात कंदैड़ किये हुये खेत में रोप दी जाती है। रोपाई विधि को आरम्भ में खरपतवार प्रबन्धन के उद्देश्य से अपनाया गया था परन्तु इसके अतिरिक्त रोपाई विधि में चुनकर स्वस्थ पौध की रोपाई तथा निर्धारित दूरी पर पौध का रोपण करने की भी सुविधा है जिससे पानी, पोषक तत्वों तथा सूर्य के प्रकाश की समान उपलब्धता होती है। अच्छे उत्पादन के लिये आवश्यक है कि पौधशाला का बेहतर ढंग से प्रबन्धन किया जाये। पौधशाला प्रबन्धन में पौधशाला हेतु स्थान का चयन, भूमि की तैयारी, मृदा उपचार, पौध तैयार करने की विधि का चुनाव, आवश्यकता अनुरूप प्रजाति के गुणवत्तापूर्ण बीज का चुनाव, बीज शोधन, पौध डालना, पोषक तत्व प्रबन्धन, खरपतवार प्रबन्धन, सिंचाई जल प्रबन्धन, फसल सुरक्षा, पौध उखाड़ना तथा उसे आवश्यकतानुसार मुख्य खेत तक रोपण हेतु पहुंचाकर, रोपाई कराना है।

गुणवत्तापूर्ण बीज की विशेषतायें –
बीज अपनी सन्तति के संरक्षक तथा प्रसारक हैं। अतः कृषक की पूरी फसल इस पर निर्भर करती है कि उसने किस गुणवत्ता का बीज बोया है। अच्छी गुणवत्ता के बीज से अच्छी, स्वस्थ पौध तैयार होती है। बीज कि गुणवत्ता निम्न बिन्दुओं पर निर्भर करती है -

बीज अपनी प्रजाति का सच्चा प्रतिनिधित्व करता हो।

यह सभी प्रकार की गंदगी, अन्य प्रजाति तथा खरपतवारों के बीजों से मुक्त होना चाहिये।

बीज जीवन सक्षम, मानकों से बेहतर (80% से अधिक जमाव) क्षमता वाला तथा उसके गठन, संरचना व देखने में एकरूपता हो।

यह बीजजनित रोगों तथा कीटों से मुक्त होना चाहिये।

नये बीज की खरीद प्रमाणित संस्था से करें अथवा यह सत्य प्रमाणित होना चाहिये तथा बीज उत्पादन मानकों के अनुरूप सख्त पर्यवेक्षण में और पूर्ण सावधानियों के साथ उत्पादित किया गया हो जिससे उसके गुणों में तीव्र गति से क्षरण न हो। बीज तथा प्रजाति का चयन करते समय घरेलू तथा बाजार की आवश्यकताओं/माँग का ध्यान अवश्य रखें।
स्थान का चयन एवं खेत की तैयारी – पौधशाला के लिये सिंचाई के स्रोत के निकट खुले हुये स्थान का चयन करना चाहिये जहाँ जल निकास की आवश्यकतानुसार व्यवस्था की जा सके तथा निकट में पक्षियों के आश्रय के लिये कोई पेड़ आदि न हो। रबी फसल की कटाई के बाद एक जुताई मिट्टी पलट हल से करके मिट्टी को धूप में तपाकर दो जुताई हैरो या कल्टीवेटर से अथवा एक जुताई रोटावेटर से करके खेत को महीन तैयार करना चाहिये।

पौध डालने का समय –
सामान्यतः देर से पकने वाली (130 दिन से अधिक) प्रजातियों की पौध मई माह के तीसरे सप्ताह से, मध्यम देर से पकने वाली (115-130 दिन) प्रजातियों की पौध जून माह के पहले पखवाड़े में तथा कम समय में पकने वाली (100-115 दिन) प्रजातियों की पौध जून के दूसरे पखवाड़े में अवश्य डाल लेनी चाहिये। बासमती प्रजातियों को 25 अक्तूबर के बाद पकना चाहिये तभी उनमें अच्छी सुगन्ध आती है अतः उनकी पौध डालने की तिथि की गणना 25 अक्तूबर से प्रजाति के पकने की अवधि को घटाकर करनी चाहिये।

बीज की मात्रा तथा बीजशोधन –
सामान्यतः एक स्थान पर दो पौधों की रोपाई तथा बीज के आकार के अनुसार बीज की मात्रा 25 से 35 किलोग्राम / हेक्टेयर (25 किलोग्राम महीन दाना, 30 किलोग्राम मध्यम दाना तथा 35 किलोग्राम मोटा दाना) रखते हैं। संकर धान के लिये बीज की मात्रा 15-20 किलोग्राम/ हेक्टेयर रखते हैं। ऊसर भूमि में एक स्थान पर 3 पौधे रोपते हैं अतः बीज की मात्रा सवा से डेढ़ गुनी कर देते हैं। जीवाणु झुलसा तथा अन्य फफूंदी जनित रोग बीजजनित होने के कारण धान में बीजशोधन अतिआवश्यक है। सबसे पहले 2% नमक का घोल तैयार कर उसमें बीज को डालते हैं। खाली/खोखला बीज, खरपतवार का बीज हल्का होने के कारण ऊपर तैरता रहता है, इसे निकाल कर फेंक दें और डूबे हुए बीज को 3-4 बार साफ पानी से धो लें। एक ड्रम या बड़े टब/नाँद में 40 लीटर पानी लेकर इसमें 6 ग्राम स्ट्रेप्टोसायक्लीन या 40 ग्राम प्लांटोमायसिन घोलकर रात में इसमें बीज को भिगो दें। सुबह इसको पल्ली पर लौट कर ड्रम में ट्रायसायक्लाजोल / पायरोकुइलोन 2 ग्राम/लीटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से घोल बनाकर इसमें 10 घण्टे तक बीज को भिगोकर तत्पश्चात 48 घण्टे के लिये जवई (अंकुरण होने) करने रख दें। इसके पश्चात अंकुरित हो जाने पर बीज की बीजशय्या पर बुवाई कर दी जाती है।
गीली शय्या विधि- यह विधि उन क्षेत्रों में अपनाते हैं जहाँ सिंचाई जल भरपूर उपलब्ध होता है। पौधशाला का क्षेत्रफल रोपण किये जाने वाले क्षेत्र का 1/10 भाग रखते हैं। खेत में 50 कुंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद का प्रयोग कर खेत तैयार करके उसमें सतह से 4 से 6 सेंटीमीटर ऊपर उठाकर, 1 से 1.5 मीटर चौड़ाई तथा सुविधानुसार लम्बाई की बीज शय्या बना लेते हैं। दो बीज शय्या के बीच में 30 से 45 सेंटीमीटर चौड़ी नाली सिंचाई व जलनिकास के लिये बनाते हैं। प्रत्येक 1000 वर्गमीटर बीजशय्या में 5 किलोग्राम नत्रजन, 5 किलोग्राम फॉसफोरस तथा 5 किलोग्राम पोटाश का प्रयोग करते हैं। खेत में बीजशय्या के स्तर तक पानी भरकर बीजशय्या को पानी से तर करके इसपर 30-40 ग्राम अंकुरित बीज/वर्गमीटर की दर से एक समान रूप से बिखेरकर 4-5 दिन तक नमी बनाये रखते हैं। एक बार पौध स्थापित हो जाये तो पौधशाला में जल का स्तर बढ़ाते जाते हैं। 5 किलोग्राम नत्रजन/हेक्टेयर का प्रयोग पौध उखाड़ने से 5-6 दिन पूर्व टॉपड्रेसिंग के रूप में करना चाहिये। पौधशाला में पानी का तापमान बढ़ने पर जलनिकासी कर शाम के समय पुनः ताजा पानी भर देना चाहिये।
शुष्क शय्या विधि- यह विधि जल की कम उपलब्धता वाले क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है। इसमें 1.0-1.5 मीटर चौड़ी, सुविधानुसार लम्बी तथा भूमि सतह से 8-10 सेंटीमीटर ऊंची उठाकर क्यारियाँ बना लेते हैं जिनके मध्य में सिंचाई तथा जलनिकास के लिये 30-45 सेंटीमीटर चौड़ी नालियाँ बनाते हैं। बीज शय्या पर 10 सेंटीमीटर की दूरी पर लाइनों में धान के शुष्क बीज (40-50 ग्राम बीज/वर्गमीटर) की बुवाई कर देते हैं। इस विधि में एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई के लिये 40-50 किलोग्राम बीज लगता है।
डेपोग विधि – कम अवधि की प्रजातियों के लिये अधिक उपयुक्त, कम पानी, कम श्रमिक तथा जड़ों को न्यूनतम क्षति पहुंचाने वाली विधि है। एक हेक्टेयर के लिये 100 वर्गमीटर क्षेत्रफल में इसकी पौधशाला किसी भी समतल स्थान पर या पक्के फर्श पर, जहां पानी की सुविधा हो, तैयार की जाती है। सतह पर पॉलीथीन बिछाकर उसपर 0.5-1.0 सेंटीमीटर मोटी धान की अधजली भूसी या कम्पोस्ट की तह लगाकर इसपर पूर्व में अंकुरित बीज 300-400 ग्राम /वर्गमीटर (2-3 बीज की तह लगाते हुये) की दर से बिछा देंगे। इसपर पानी का छिड़काव करके हाथ से या लकड़ी के पटरे से अंकुरित हो रहे बीजों को 3-4 दिन सुबह-शाम हलका सा दबाते रहते हैं। इस विधि से तैयार पौध की अंकुरण के 8-14 दिन के मध्य रोपाई कर देते हैं। इस विधि से पौध तैयार करने में कम स्थान व संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है तथा पौध उखाड़ने का व्यय न्यूनतम हो जाता है। पौध छोटी होने के कारण रोपाई में थोड़ी कठिनाई होती है इसलिये खेत बिलकुल समतल होना चाहिये जिसमें कहीं भी जलभराव न हो। जल्दी रोपाई के कारण कल्ले बहुत अधिक निकलते हैं ।
संशोधित चटाईदार पौध – इस विधि से पौध रोपाई मशीन (मानवचालित/स्वचालित) के लिये तैयार की जाती है जिसमें 12-15 किलोग्राम बीज से एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में रोपाई की जा सकती है। एक समतल सतह पर पॉलीथीन बिछाकर उसपर 1.2 मीटर की चौड़ाई में 1.5-2.0 सेंटीमीटर मोटी बारीक छनी हुई कम्पोस्ट की तह बिछाकर इसपर अंकुरित बीज बिछा देते हैं। इस पर प्रतिदिन सुबह-शाम दो बार 5-6 दिन तक पानी का छिड़काव करते हैं। पौध 10 दिन बाद (4 पत्ती की अवस्था में ) रोपाई के लिये तैयार हो जाती है। सुविधानुसार 9 से 14 दिन में इसकी रोपाई की जा सकती है।
श्री पद्धति (एस॰आर॰आई॰ पद्धति) से धान में पौधशाला प्रबन्धन – श्री पद्धति में कम अवधि की पौध (8 से 12 दिन आयु की) पौधशाला से निकालकर शीघ्र-अतिशीघ्र रोपाई करनी होती है अतः पौधशाला मुख्य खेत में या उसके निकट ही बनाते हैं। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई के लिये भूमि से 15 सेंटीमीटर ऊँची, 1.25 मीटर चौड़ी तथा 10 मीटर लम्बी 8 क्यारियों (कुल 100 वर्गमीटर क्षेत्रफल) की आवश्यकता होती है। इन क्यारियों के मध्य 30 से 45 सेंटीमीटर की नालियाँ सिंचाई व जलनिकास के लिये छोड़ी जाती है। समतल क्षेत्र में क्यारियों को भूमि से उठाकर निम्न विधि से बनायेंगे।
पहली तह - 2.5 सेंटीमीटर सड़ी हुई गोबर की खाद की।
दूसरी तह – 4.0 सेंटीमीटर उपजाऊ खेत की महीन भुरभुरी मिट्टी की।
तीसरी तह – 2.5 सेंटीमीटर सड़ी हुई गोबर की खाद की।
चौथी तह - 6.0 सेंटीमीटर उपजाऊ खेत की महीन भुरभुरी मिट्टी की।
इस प्रकार विभिन्न तह लगाकर भूमि की सतह से 15 सेंटीमीटर ऊँची उठी हुई क्यारियाँ बनाकर इन पर अंकुरित या बिना अंकुरित बीज की 60 ग्राम बीज/वर्गमीटर की दर से, एक समान रूप से बिखेरकर बुवाई कर दी जाती है। बीज को मिट्टी और गोबर की खाद के महीन मिश्रण या पुआल से ढक देते हैं तथा हजारे से पानी लगाते रहते हैं। पौधों का पूर्ण जमाव हो जाने के बाद नालियों में पानी भरकर भी सिंचाई कर सकते हैं। श्री विधि के लिये उर्वरक की खाली बोरियों की पल्ली पर चटाई या टाइल बिछाकर भी पौध तैयार कर सकते हैं। इस पौध को पल्ली या टाइल सहित मुख्य खेत में रोपाई के लिये ले जाते हैं।
पौधशाला में फसल सुरक्षा - पौधशाला में तनाछेदक या पत्ती लपेटक का वयस्क दिखने पर थायोमेथोक्ज़ाम 1 ग्राम / 5 लीटर पानी या फिप्रोनिल 5% एस॰सी॰ 2 मिलीलीटर / लीटर पानी का छिड़काव करें अथवा रोपाई से पाँच दिन पूर्व कारटाप हायड्रोक्लोराइड 4 % जी॰आर॰ 1 किलोग्राम /1000 वर्गमीटर क्षेत्रफल में प्रयोग करें। झोंका रोग की रोकथाम हेतु 1.0 ग्राम ट्राईसायक्लाजोल 75% डब्लू॰ पी॰ तथा भूरा धब्बा की रोकथाम के लिये 3.0 ग्राम प्रोपिनोब 70% डब्लू॰ पी॰ का प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। खैरा रोग से बचाव के लिये 5 किलोग्राम जिंक सल्फेट (21%) को 20 किलोग्राम यूरिया तथा 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर /हेक्टेयर की दर से बुवाई के 10 और 20 दिन पर छिड़काव करें। सफेदा रोग होने पर 4 किलोग्राम फेरस सल्फेट को 20 किलोग्राम यूरिया तथा 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर /हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
पौधशाला में पोषक तत्व प्रबन्धन - पौध डालने के लिये खेत तैयार करते समय 50 कुंटल/हेक्टेयर की दर से अच्छी तरह सड़ी हुई कम्पोस्ट खाद प्रयोग करनी चाहिये। बीज बोने से पूर्व बीज शय्या पर 5 किलोग्राम नत्रजन, 5 किलोग्राम फॉसफोरस तथा 5 किलोग्राम पोटाश /1000 वर्गमीटर की दर से प्रयोग करना चाहिये। पौध उखाड़ने से 5-6 दिन पूर्व 5 किलोग्राम नत्रजन/हेक्टेयर का प्रयोग टॉपड्रेसिंग के रूप में करना चाहिये।
पौधशाला में खरपतवार प्रबन्धन - धान की पौधशाला में बुवाई के 4-5 दिन बाद खरपतवारों का निकलना आरम्भ हो जाता है तथा अधिकांश खरपतवार 7-8 दिन तक निकल आते हैं उसके पश्चात इनके जमाव की गति धीमी हो जाती है। पौधशाला में धान के प्रमुख खरपतवार जैसे साँवां, मकड़ा, कोदों, जंगली धान, भंगरा और मोथा आदि मुख्य खेत में भी 5-10% तक पाये जाते हैं तथा उपज को 15-20% तक क्षति पहुंचाते हैं। इसके बेहतर प्रबन्धन के लिये खरपतवार रहित बीज का प्रयोग, खेत की तैयारी में प्रयुक्त यन्त्रों की सफाई, खेत की तैयारी के समय खेत तथा किनारों से खरपतवारों को निकालना आदि कार्य ध्यानपूर्वक करने चाहिये।
उक्त बिन्दुओं का ध्यान रखते हुये यदि धान की पौधशाला का प्रबन्धन किया जायेगा तो पूर्णतया स्वस्थ, कीट-बीमारी रहित, मजबूत पौध प्राप्त होगी जो मुख्य खेत में भी प्रजाति के अनुरूप अच्छा प्रदर्शन कर कम लागत में अधिक तथा गुणवततापूर्ण उत्पादन देगी।

डॉ आर के सिंह, अध्यक्ष
कृषि विज्ञान केन्द्र
भाकृअनुप-भारतीय पशु चिकिता अनुसंधान संस्थान
इज्जतनगर, बरेली
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