पपीता का उन्नत जैविक खेती

जलवायु -
पपीता यद्यपि उष्ण जलवायु का पौधा है , फिर भी यह उपोष्ण जलवायु में अच्छी तरह उगाया जाता है इसका उत्पादन समुद्र तल से 100 मीटर कि उचाई तक सुगमता से होता है . 12 डिग्री से . से नीचे का तापमान इसकी उत्पादकता को प्रभावित करता है . इसके लिए 20-25 डिग्री से . तापक्रम . उचित रहता है . जल भराव , ओला तथा अधिक तेज हवाएं इसे नुकसान है पहुंचाती .
भूमि :----पपीता विभिन्न प्रकार कि भूमियों में उगाया जा सकता है , परन्तु अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि , जिसका पी - एच 6.5 से 7.0 के बीच हो इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम होती है मान . मृदा कम से कम दो मीटर गहरी होना चाहिए . जल निकास का उचित प्रवंध आवश्यक होता है . जल भराव वाली भूमि में जड़ विलगन कि समस्या इसका उत्पादन नहीं होने देती है .
प्रजातियाँ :----पपीता कि मुख्य जातियों का विवरण निम्नवत है .
वाशिंगटन :----
यह पश्चिमी भारत कि प्रमुख किस्म है . इसके पौधे काफी ओजस्वी होते है इसके तने कि गांठे तथा पत्तियों के डंठल बैंगनी रंग के होते है . अंडाकार फलों के गुदे का रंग पिला होता है . फलों का ओसत भार 1.5 से 2.5 किलो ग्राम होता है .
हनी डयु :----
यह एक लोकप्रिय किस्म है , जिसमे अंडाकार फल अधिक संख्या में लगते है . फलों का स्वाद मीठा होता है तथा बिज कि मात्रा कम पाई जाती है . भारत वर्ष में यह किस्म मधु बिंदु के नम से जानी जाती है .
कुर्ग हनी डयु :----इस किस्म का विकास हनी डयु के चयन फल स्वरुप हुआ है . इसके पौधे उभय लिंगी तथा मध्यम कद के होते है . फल मध्यम से बड़े तथा अंडाकार होते है फल 60 से 70 से.मी. किउंचाई से लगना प्रारंभ हो जाते है पौधों का लगभग वजन 1.25 किलो गम तक होता है .
कोयम्बटूर -1 सी.ओ. -1 : ---
पौधे बौने एवं एक लिंगी होते है फल 60-70 से.मी. कि ऊंचाई से लगना प्रारंभ हो जाते है फलो का आकार गोल तथा औशत वजन 1.25 कि इसके ग्रा .. होता है .
कोयम्बटूर -2 सी.ओ. -2 : ---
यह भी एक लिंगी आस्रायी किस्म के है फल मध्यम आकार अंडाकार होते है पपेन उत्पादन हेतु यह अच्छी किस्म है इसके फलो से 4-5 ग्राम पपेन प्रति फल तक प्राप्त हो जाते है .
कोयम्बटूर -3 सी.ओ. -3 : ---
यह संकर किस्म का बिकास कोयम्बटूर -2 गुणा सनराइज सोलो से हुआ है पौधे गाइनो डायोसियस होते है इसकी उपज अच्छी होती है तथा गुदे का रंग लाल होता है .
कोयम्बटूर -5 सी.ओ. -5 : ---
इस संकर किस्म का बिकास वाशिंगटन के चयन के परिणाम स्वरुप हुआ है या पपेन उत्पादन हेतु सर्वोत्तम किस्म है इस किस्म से 14-15 ग्राम शुष्क पपेन प्रति फल प्राप्त होता है 1500-1600 किलो ग्राम शुष्क पपेन प्रति हेक्टेयर मिलाता है .
कोयम्बटूर -6 सी.ओ. -6 : ---
यह किस्म भी पपेन उत्पादक हेतु उपयोगी पाई गयी है इसे पूसा मेजेस्टी के चयन से प्राप्त किया गया है .
कोयम्बटूर -7 सी.ओ. -7 : ---
यह बौनी गायनो डायोसीयासकिस्म है जिसे पपेन उत्पादन व फलो के लिए उगाया जा सकता है .
पूसा : डिलीशस ---
यह एक गाइनो डायोसियास किस्म है इसके फल उत्तम गुणवत्ता वाले होते है फल 1-2 किलो ग्राम वजन वाले होते है .
पूसा मेजीसटी :----
इस किस्म के फलो का आकार अच्छा होता है और उपज भी अच्छी होती है पौधा जमीन से से.मी. 50-55 ऊंचाई फलने लगता है यह भी गाइनो डायोसियास किस्म है प्रति पौधा 30-40 किलो ग्राम पैदावार होता है .
पूसा : जाइंट ---
यह एक लिंगास्रायी किस्म है इसके फल आकार में बड़े होते है तथा फलो का औसत भार 2 किलो ग्राम तक होता है
पूसा : ड्वार्फ -
इसके पौधे - छोटे छोटे होते हैजमीन से 40-50 से.मी. कि ऊंचाई पर फुल लगाने प्रारंभ होते है यह किस्म उच्च सघनता बागवानी के लिए उपयुक्त है .
पूसा : नन्हा -
उत्परिवर्तन द्वारा बिकसित इस किस्म के पौधे बहुत ही छोटे होते है इसके पौधे पर 25-30 से.मी. कि ऊंचाई से फल लगना प्रारंभ होता है गृह बाटिका में लगाने हेतु यह एक आदर्स किस्म है प्रति पौधा 15-16 किलो ग्राम तक फल दे देता है .
पन्त : पपीता -
यह कृषि बिश्व बिद्यालय पन्त नगर द्वारा बिकसित एक उन्नत शील किस्म है इसमे फल जमीन से 50-60 से.मी. कि ऊंचाई पर लगते है फलो का आकार मध्यम तथा औसत से 1 भार 1.5 ग्राम का होता है फल स्वादिष्ट होते है किलो सघन फल उत्पादन हेतु उपयुक्त किस्म है .
पंजाब : स्वीट्स -
इस किस्म के पौधे एक लिंगास्रायी होते है फल का 1 ग्राम से अधिक होता है तथा औसत 50 किलो ग्राम प्रति पेड़ होती है उपज किलो वजन .
: सूर्या ---
भारतीय बागवानी अनुसन्धान संसथान बैंगलोर द्वारा इस संकर किस्म का विकास सन राइज सोलो एवं पिंक फ्लेश स्वीट के संयोग से हुआ है यह गाइनोडयोसियास किस्म है फल का आकार मध्यम औसत 600 वजन - 700 ग्राम गुदे का रंग लाल तथा स्वादिष्ट होता है उपज 60 कि ग्राम . प्रति पेड़ तक प्राप्त हो जाती है .
: ताइवान ---
यह एक गाइनो डायोसियास किस्म है जिसका गुदा रक्ताभ लाल रंग का होता है .
उपोरोक्त किस्मो के अलावा पैराडीनिया , फिलिपिन्स , हवाई , सोलो , सांताक्रुज , जाइंट , सी.ओ. -4 रांची , पन्त , पपीता -2, पन्त पपीता -3 , बरवानी , आदि अधिक उत्पादन देने वाली किस्मे है जिन्हें छोटे स्टार पर उगाते है .
पौध : रोपण -
पौध लगाने के पूर्ब किस्म के अनुसार एक या दो मीटर कि दुरी 50 गुणा 50 गुणा 50 से.मी. आकार के गड्ढे खोद लेते है प्रत्येक गड्ढे में 15-20 किलो ग्राम सड़ी गोबर कि खाद तथा पर 2 किलो आर्गनिक खाद का मिश्रण मिटटी में मिलाकर गड्ढा भर देते है यदि किस्मे एक लिंगास्रायी हो तो एक गड्ढे में 2 पौधे लगाते है और फुल - निकलने नर पौधे को परागण हेतु छोड़ कर शेष को काट देते है ये नर पौधे पुरे उद्यान में फैले होने चाहिए गायनो डायोसियास किस्मो जैसे पर 5% -3, पूसा दिलिशस , पूसा मजेसटी , सूर्या आदि ऐसा करने कि आवश्यकता नहीं होती सी.ओ. .
जिन क्षेत्रो में पाला पड़ता है और सिंचाई के साधन उपलब्ध हो तो वंहा रोपण का कार्य - फरवरी मार्च में करना चाहिए उत्तर भारत में इसका रोपण का कार्य अधिकतर जुलाई - अगस्त में किया जाता है परन्तु बिभिन्न प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि अक्तूबर - नवम्बर में पौध रोपण करने से बिशाणु रोग का प्रकोप काम हो जाता है .

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आर्गनिक खाद जैविक : खाद ---
1 - बैग माइक्रो फर्ट सिटी कम्पोस्ट वजन 40 किलो ग्राम , 1 - बैग भू पावर 50 किलो ग्राम , 2 बैग माइक्रो भू पावर वजन वजन 10 किलो ग्राम 2 बैग सुपर गोल्ड कैल्सी फर्ट वजन 10 किलो ग्राम , 2 - बैग माइक्रो नीम 20 किलो वजन ग्राम , 1 - बैग माइक्रो सुपर पावर वजन 550 किलो ग्राम और 50 किलो अरंडी कि खली इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर मिश्रण तैयार से 1 साल 5 साल तक के पौधे को कर 2 से 5 किलो प्रति पौधा और सड़ी हुयी गोबर कि 1 से खाद 5 साल तक पौधों के लिए 5 से 30 किलो ग्राम तक आधी मात्रा - फरवरी मार्च में तथा आधी मात्रा जुलाई - अगस्त में में दी जाती है फुल आने से 15-20 दिन पहले माइक्रो झाइम 500 मी.ली. और 2 - किलो ग्राम सुपर गोल्ड मैग्नीशियम 400 लीटर पानी में मिलाकर पम्प द्वारा तर बतर कर छिड़काव करना चाहिए जिससे पौधों में भरपूर फुल आएगा फल लगने के 25-30 दिन बाद दूसरा और हर माह छिड़काव करते रहते है . इससे फल का आकार बड़ा और निरोग तंदरुस्त और स्वादिष्ट और चमकदार होता है जिससे बाजार में दाम अच्छा मिलाता है .
: सिंचाई ---
पपीता उथली जड़ वाला पौधा है : अत इसे अधिक जल कि आवश्यकता पड़ती है यह जल भराव को सहन नहीं कर सकता है अत : पपीता में कम दिनों के अंतराल पर हलकी सिंचाई करते है गर्मी के दिनों में प्रति सप्ताह तथा शीत ऋतू में 10-15 दिन पर सिंचाई करते है वर्षा ऋतू में : प्राय सिंचाई कि आवश्यकता नहीं पड़ती है .
खर पतवार नियंत्रण :----
पौधों कि अच्छी बढ़वार हेतु 20 -25 दिन के अंतर पर खर पतवार निकालते है तयह कतारों के बिच में गुड़ाई करते है दो कतारों के बिच पलवार बिछा देने से भी खर पतवार काम हो जाता है तथा नमी भी संचित rahati है .
किट : नियंत्रण ---
पपीते में प्रमुखतया माहू का प्रकोप होता है जो पौधों का रस चुसकर हानी पहुंचता है यह बिशानुओ के फ़ैलाने में सहायक होता हैइसके नियंत्रण के लिए नीम का काढ़ा या गौ मूत्र का छिड़काव करते है .
लाल : मकड़ी ---
इसके निम्फ व व्यस्क पत्तियों से रस चूस कर पौधे को कमजोर करते है प्रकोप अधिक होने पर किट फलो से भी रस चूसने लगते है इसकी रोकथाम के लिए गोमूत्र या नीम का काढ़ा का छिड़ाकाव करते है .
रोग : नियंत्रण ---
पपीते मी निम्न लिखित मुख्य रोग आक्रमण करते : है ---
कलर : राट ---
यह रोग पिथियम एफेनीडरमेटेम नामक कवक से फैलता है जिससे भूमि के पास वाले तने पर जल शक्ति धब्बे उभरते है तथा तना सड़नेसे पौधा गिर जाता है इसकी रोकथाम के लिएदेते समय अरंडी कि खली और माइक्रो नीम का खाद देना अति आवश्यक है और गौ मूत्र या नीम का काढ़ा का छिड़काव करते है जल निकास का समुचित प्रबंध होना चाहिए ..
आर्द्र : गलन ---
यह नरसरी का गंभीर रोग है जो कई प्रकार के फफुन्दियो के मिश्रित आक्रमण के कारण होता है इसमे पौधा जमीन के पास से सड़ने लगता है तथा मर जाता है इसकी रोकथाम के लिए बिज केरासिन तेल या गौ मूत्र या नीम का तेल या नीम का काढ़ा से उपचारित कर बुवाई करते है और नर्सरी कि मिटटी में माइक्रो नीम कि खाद और अरंडी कि खली मिलाकर पौध तैयार करते है .
: मौजेक -
यह बिशाणु के द्वारा होने वाला रोग है जो माहू द्वारा फैलता है भारत में अधिकतर जातियां इससे प्रभावित होती है इसमे पत्तियां चितकबरी हो जाती है तथा डंठल छोटा हो जाता है फल नगण्य संख्या में लगते हैइसकी रोकथाम के लिए महू का नियंत्रण करना आवश्यक होता है माहू को नियन्त्रण के लिए नीम का काढ़ा या गौ मूत्र का का 10 -15 दिन में छिड़काव करते है मौसम ख़राब होने पर तुरंत छिड़काव करना चाहिए रोग आने से अच्छा है रोग का बचाव किया जाये या आने ही न दिया जाय तथा रोग ग्रस्त पौधों को हर उखाड़ कर जमीन में दबा दे या जला दे .
पर्ण कुंचन :----
पपीता का यह गंभीर रोग बिशानुओ से होता है जिसके कारण पौधे का बिकास रुक जाता है पत्तियां झुर्रीदार एवं छोटी तथा मोटी हो जाती है चूँकि यह रोग भी माहू द्वारा फैलता है : अत इसकी रोकथाम मौजेक कि तरह कि जाती है .
नीम का : काढ़ा ---
25 नीम कि पत्ती ताजा व हरा तोड़कर कुचलकर पीसकर किलो 50 लीटर पानी में पकाए जब पानी 20-25लीटर रहा जाय उतार कर ठंडा कर आवश्यकता नुसार छिड़काव करे .
गो : मूत्र -
देसी गाय का 10 लीटर गौ मूत्र लेकर पारदर्शी कांच या प्लास्टिक जार में रखकर 10-15 दिन धुप में रखे और उसके बाद आवश्यकता अनुसार लेकर छिड़काव करे .
: तुड़ाई ---
जब फल पकने लगते है तो इनका रंग हरा से पिला पन लिए हो जाता है फलो से निकालने वाला दूध कम निकलता है तथा वह पतला हो जाता है फलो को एक एक करके हाथ से तोड़ते है फलो को जमीन पर नहीं गिरने देते .
: उपज ---
पपीता के फलो कि उपज प्रजातियों , जलवायु एवं रख - रखाव पर निर्भर करती है औसतन एक पौधे से 15 से 50 किलो ग्राम फल प्राप्त होते है एक हेक्टेयर से 400-500 क्विंटल तक उपज प्राप्त हो जाती है .
: भण्डारण ---
पपीता के फलो को टोकरियों या प्लास्टिक कि टोकरियों में रखकर शीत गृहों में रखा जाता है पपीता के फल 7-8 डिगरी से . तापमान और 85-90 % सापेक्ष आद्रता पर तिन सप्ताह तक सुरक्षित रखे जा सकते है .
: प्रसारण ---
पपीते का ब्यावासयिक प्रसारण बिज द्वारा होता है खेत में लगाने के पूर्बबिज को नर्सरी में बोते है एक हेक्टेयर पौध रोपण हेतु 250-300 ग्राम बिज को केरासिन तेल या नीम का तेल या नीम का काढ़ा या गौ मूत्र या सभी से उपचारित करके पौधा शाला में 2 गुना 1 मीटर आकार कि 15 से.मी. ऊपर ऊँची उठी हुयी क्यारियों में 1.5 से मी गहराई में बोते है बोते समय बिज से बिज कि दुरी . 5 से.मी. तथा पंक्ति कि दुरी 10 से.मी. रखते है पपीते कि पौध पोलीथिन कि थैली में भी तैयार कि जाती है बीजो 25 गुणा 15 से.मी. आकार कि 100 गेज कि मोटी थैली में बोया जाता है अच्छे अंकुरणऔर निरोग पौध प्राप्त करने के लिए थैलियों को 01:01 के अनुपात में गोबर कि खाद माइक्रो नीम कि खाद और अरंडी कि खली एवं मिटटी मिलाकर भरते है बिज बोने का समय रोपण के समय पर निर्भर करता है रोपण से डेढ़ से दो माह पूर्ब बिज को बोना उचित रहता है .
पपेन : निकलना ---
पपीते के पूर्ण बिकसित फल से प्राप्त दूध क सुखाने से प्राप्त सफ़ेद चूर्ण को पपेन कहते है पपेन का उपयोग पेट सम्बन्धी सभी बिमारियों की दवा के रूप में बवासीर , टेप वर्म , रिंग वर्म के उपचार में मांस को मुलायम बनाने सौन्दर्य प्रसाधन के निर्माण तथा उनी , रेशमी एवं सूती कपडे कि सिकुडन रोकने में किया जाता है जब पपीते का फल पूर्ण बिकसित हो जाते तब इन फलो पर स्टेनलेस स्टील के चाकू से 3 मि.मी. गहरा खरोंच बनाई जाती है इन खरोंचो से दूध बाहर जो टपकता है उसे स्टेनलेस स्टील या कांच के बर्तन में जमा कर लेते है इस दूध 40 को डिग्री से . तापमान पर सुखा लिया जाता है सुखाने के पूर्ब 0,05 पोटेशियम मेटा बायीं सल्फाईटपरीक्षक के रूप मिलाते है अधिक ताप पर सुखाने से पेपसिन एंजाइम नष्ट हो जाता है इसके बाद में इसे रासायनिक बिधि से शुद्ध किया जाता है पपेन बनाते समय निम्न बातो का बिशेष ध्यान रखना चाहिए .
दूध निकालते वक्त पूर्ण बिकसित कच्चे फल को ही चुनते है .
दूध इकठ्ठा करने का कार्य रबर का दस्ताना पहन कर ही करते है .
चीरा : प्रात काल लगते है क्योकि उस समय दूध का बहाव अच्छा होता है

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