प्याज की उन्नत खेती

कन्द वर्गीय सब्जीयों में व्यापारिक दृषिटकोण से प्याज का बहुत अधिक महत्व है। भारतीय आहार में प्याज का बहुत अधिक उपयोग होता है। वर्तमान फास्ट-फूड के जमाने में इसका महत्व और अधिक बढ़ गया है। सब्जीयाें के गाढ़ेपन व स्वाद बढ़ाने के अतिरि ä प्याज से कुछ औषघीय तत्व भी शरीर को मिलते हैं, जिसके कारण हृदय रोग, खेन में थôा बनना व कोलेस्ट्राल आदि विकारों पर नियंत्रण रखने मेंं मदद होती है। इसी प्रकार मसाले, केचप, साँस आदि पदार्थाों में भी प्याज का उपयोग किया जाता है। निर्जलिकृत प्याज की चकितयाँ व पावडर की माँग विदेशें में अधिक है। सफेद प्याज को निर्जलिकृत पर चकितयाँ व पावडर बनाने के कारखाने महाराष्ट्र व गुजरात में स्थापित है। हमारे देश में प्याज की खपत पूर्ण होने के पश्चात 10 से 12 टन खाड़ी देशों में व कुछ एशियार्इ देशों में निर्यात किया जा रहा है। इसे प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाने पर और अधिक बढ़ाया जा सकता हे। प्याज के निर्यात से हमारे देश को 1000 से 1200 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।

प्याज उत्पादन करने वाले राज्य व उत्पादन यह दोनों की दृषिट से महाराष्ट्र, कर्नाटन, गुजरात व आंध्रप्रदेश प्रमुख है। हमारे देश का लगभग 15 प्रतिशत उत्पादन अकेले महाराष्ट्र में होता है। महाराष्ट्र के नासिक, पूना, सातारा, नगर, सोलापूर व धुलिया जिल्हे उत्पादन की दृषिट से अग्रणीय है। महाराष्ट्र में भी इसका लगभग 37 प्रतिशत व देश का 10 प्रतिशत उत्पादन अकेले नासिक जिले में होता है।

विश्व में क्षेत्र के अनुसार भारत का स्थान अग्रणी होने पर भी प्रति हेक्टेयर उत्पादकता की दृषिट से इसका क्रमांक बहुत नीचे आता है। भारत में खरीफ फसल की उत्पादकता 8 टन प्रति हेक्टेयर, जबकि रबी में 12 टन प्रति हेक्टेयर है। कुछ विकसित राष्ट्र जैसे अमेरिका (42.9 टन), निदरलैंड (39.9 टन), चीन (22.2 टन) आदि में उत्पादकता बहुत अधिक है। भारत में औसत उत्पादकता कम होने के बहुत से निम्नलिखित कारण है।

भारत में लगार्इ जाने वाली किस्में कम प्रकाश अवधि में तैयार होती है। उनके स्वयं के जातीय गत गुणों के कारण उत्पादकता कम होती है।

अन्य देशों की तुलना में भारत में खरीफ फसल में रोग का प्रकोप अधिक होने के कारण नुकसान अधिक होता है जिसके कारण भी उत्पादकता कम होती है।

सिफारिश की गर्इ किस्मों का बीज बहुत कम मात्रा में उपलब्ध होता है इस कारण लगभग 70 प्रतिशत क्षेत्र में स्थानीय किस्मों को लगाया जाता है।

सभी किस्मों पर रोग व कीड़ों का प्रकोप होता है। साथ ही इसमें जोड़ प्याज व मुख्य फसल में फूूल आने के कारण बिक्री योग्य उत्पादन कम होता है।

प्याज में उपयुक्त संकर किस्मों का अभाव होना एवं प्याज के बाजार भाव में अनियमितता होने के कारण प्याज की उत्र्रत खेती अपनाने से उदासीनता आदि कारणों से हमारे देश में प्याज की औसत उत्पादकता कम है।

 प्याज की फसल प्राचीन काल से ली जा रही है। इसका जिक्र बायबल, कुराण एवं मिस्त्र रोम, ग्रीस तथा चीन के प्राचीन सभयताओं की खुदार्इ में भी पाया गया है। भारत में भी प्याज प्राचीन काल से लगाया जाता होगा क्योंकि इसका वर्णन चरक संहिता में भी किया गया है। 3200 वर्ष र्इसा पूर्व मिस्त्र में भी प्याज का उपयोंग खाने में, दवार्इयों में तथा धार्मिक कार्यों में उल्लेख किया गया है। प्याज की मूल उत्पति का स्थान मुख्यत: मध्य एशिया एवं विदतीय उत्पति का स्थान भूमध्यसागरीय क्षेत्र माना गया है। उत्तरीय गोलार्ध के शीत कटीबंधीय क्षेत्रों में प्याज का बड़ी मात्रा में फैलाव है नयी दुनिया में लगभग 80 प्याज की प्रजातियाँ पशिचमी राज्यों तथा इसका विस्तार मैकिसको तथा ग्वाअेमाला तक पाया गया एवं प्राचीन दुनिया में प्याज की बहुत सी प्रजातियाँ युरोप खासकर रशिया, उत्तर अफि्रका एवं एशिया में पायाी गयाी है।

प्याज एलिएसी परिवार का सदस्य है। वानस्पतिक नाम एलियम सेपा (एल) है। विभिन्न भाषाओं में प्याज को अलग-अलग नाम से जाना जाता है। जैसे हिन्दी में प्याज, मराठी में कांदा, गुजराती में डुंगडी, बंगाली में पलांदु, कत्रड ़  में र्इरुली, मलयालम में उल्ली, संस्कृत में नृपकांदा, पलांदु में रक्तकांदा, तमिल में र्इरावेंगायम, र्इरुली, वेल्ला वेंगायम, तेलगु में निरुली, उल्ली गड़ालु, अंग्रेजी में आनियन आदि। इसमें गुणसुत्रों की संख्या 2एन¾2एक्स¾16 होती है। प्याज मूलत: ठण्ढ़ी जलवायू का पौधा है।  वानस्पतिक रुप से यह एक विदर्षीय शाकीय पौधा है। पहले वर्ष में कन्द बनते हैं जो मूलतौर से पत्तियों के मांसल आधार है तनाा छोटा, चôेनुमा होता है और कन्दों के निचले सिरे पर सिथत होता है। कन्दों के निर्माण में दिनों की अवधि का विशेष महत्व है। लगातार चयन की प्रकि्रया तथा विभिन्न जलवायुओं के अनुरुप ढ़लने के कारण प्याज में श ीतोष्ण, उपोष्ण तथा लम्बी एवं कम अवधि की किस्में विकसित हो गयी है। जिनकी कन्द बनने तथा पुष्पन की आवश्यकता भित्र्र-भित्र्र है। पुष्पण तथा बीज बनाने के लिए पहले मौसम या वर्ष में उगाये कन्दों को लगाया जाता है। इन कन्दों में पहले एक से दो माह तक वानस्पतिक वृद्धि होती है। इस दौरान कम तापमान से बसन्तीकरण प्रकि्रया द्वारा कंदोें के श्लकों के मध्य की कलिकाएं बढ़कर फूल की ड़णिड़यों का निर्माण करती है। एक कन्द से 1 से 20 तक पुष्प डणिड़याँ निकलती है, जो 1 से 5 फीट तक लम्बी हो सकती है। पुष्प ड़णिड़यों के निकलने में तापक्रम तथा दिनावधि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। पुष्पक्रम निकलने की संख्या पर किस्म, जलवायुविक दशाओं, कन्दों का आकार, भण्डारण अवधि आदि का बहुत प्रभाव पड़ता है। ड़णिड़यों पर पुष्पगुच्छ बनते हैं, जिसमें 50 से 1000 फल हो सकते हैं। फूलों का खिलना 2 से 4 सप्ताह तक चलता है। फूल गोलाभ पुष्प गुच्छों पर छोटे-छोटे पुष्पवृत्तों से लगे होते हैं। इन पुष्पों की परिप ôता अलग-अलग समय पर होती है।

प्रत्येक पुष्प 3 से 4 मि.मी. लम्बा होता है। जिस पर दो चक्रों में तीन-तीन पुंकेसर होते हैं। इनके मध्य में वर्तिका होती है जो आधार पर तीन कोष्ठों वाले अण्ड़ाशय से जुड़ी होती है। अण्ड़ाशय के प्रत्येक कोष्ठ में दो बीजाण्ड होते हैं। अन्दर के धेरे के तीन परागकोश पहले फटते हैं तथा इसके बाद बाहरी धेरे के परागकोश फटते हैं। सभी परागकोश फूल खिलने के 25 से 35 धण्टे में फटकर गिर जाते हैं। परागकोशों के फटने का काम प्रात:काल 10 बजे से सायं 5 बजे तक होता है। वतिकाग्र फूल खिलने के 35 धण्टे बाद ही सामुग्री होती है। इस कारण स्वपरागण की सम्भावना समाप्त हो जाती है। फूलों में मकरकन्द अन्दर के धेरे के पुंकेसरों तथा अण्डाशय के मध्य निचले भाग में जमा रहता है। इसी मकरकन्द को समेटने के लिए मधुमक्खी फूलों पर मंडराती है और साथ-साथ अपने पैरों पर जमा हुए परागकणों से परागन का कार्य करती हैं। इस प्रकार प्याज का जीवनचक्र चलता है। प्याज में परागकण प्रकृति का नियम बन गया है, इस कारण दो किस्मों में निर्धारित पृथ:करण अन्तर जरुरी होता है। पुष्पन आरम्भ होने पर एक गुचछेे में कुछ पुष्प ही प्रतिदिन खिलते हैं। सम्पूर्ण पुष्पन की दशा में यह गति बढ़कर 40  फूल  प्रतिदिन होती है। पुश्पन की प्रकि्रया 2 से 4 सप्ताहि तक जारी रहती है। परागण के बाद बीज के परिपô हाने तक लगभग 1 से 1.5 माह का समय लगता है, हालांकि एक पुष्प के अण्डाशय के तीन कोष्ठों में 6 बीजाण्ड़ होते हैं, परंतु सामान्य दशा में एक पुष्प से 3 से 4 ही बीज बनते हैं जो परागण के उपर निर्भर होता है। 

प्याज का बीज त्रिफलकीय तथा काला रंग का 3 से 3.5 मिमी. लम्बा होता है। बीज का आवरण झुर्रीदार तथा एक ओर धँसा होता है। इसके अन्दर लगभग 6 मिम लम्बा, 0.5 मिमी व्यास वाला धुमावदार भु्रण होता है। भु्रण एक बीजपत्तीय होता है जो एक सूक्ष्म प्ररोहाग्र से जुड़ा होता है। सामान्यतया 1000 बीजों का औसत भार 3.6 ग्राम होता है। 

जलवायु का उपयोग 

 प्याज सूर्य प्रकाश और तापमान के प्रति बहुत संवेदनशील है। यह मुख्यत: एक शीतकालीन फसल है। सामान्यत: प्याज की अच्छी बढ़ावार के लिए आरम्भ में रात्री का तापमान 10 से 240 से., कंद बढ़ने के लिए 20-30 0 से. तथा निकालते समय 30-34 0 तापमान, 20-22 धण्टे सूर्यप्रकाश व 70 से 75 प्रतिशत आपेक्षित आद्रता आवश्यक होती है। प्याज की खेती प्रतिकुल जलवायु में करने पर उपज पर भारी प्रभाव पड़ता है। प्याज की बढ़ावार के समय यदि तापमान एकदम नीचे गिर जाता है तो उसमें कन्द के बजाय फूल आने लगते हैं। जो कि किस्मों पर निर्भर करता है। प्रकाश अ वधि एवं मौसम के अनुसार प्याज की कर्इ जातियाँ विकसित की गयी हैं। खरीफ प्याज जो कि 10 से 11 धण्टे वाले प्रकाश में होता है को छोड़कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में रबी प्याज की खेती 12 से 13 धण्टे वाले प्रकाशकाल में ली जाती है। जलवायु के अनुसार भारत में प्याज खरीफ, पछेती खरीफ (रांगडा) एवं रबी मौसम में ली जाती है। परन्तु भारत में प्याज की खेती के लिए अनुकूल जलवायु मुख्यत: रबी मौसम में उपलब्ध है। इस कारण रबी की फसल में प्याज का दर्जा (ôालिटी) और उत्पादन अच्छा होता है। खरीफ मौसम में आर्द्रता और बादलीनमा वातावरण होने के कारण बीमारी का प्रमाण अधिक होने से प्याज ठीक तरह से विकसित नहीं हो पाते हैं। जिसका परिणाम उत्पादन पर पड़ता हैं महाराष्ट्र में रबी मौसम की तुलना में पछेती खरीफ (सितम्बर से फरवरी) मौसम में जलवायु बहुत अधिक पोषक होती है जिस कारण इस मौसम में सबसे अधिक उत्पादन होता है। 

लगाने का समय

पशिचम महाराष्ट्र और देश के अन्य भाग जहाँ वातावरण सौम्य होता है, प्याज की लगभग वर्षभर खेती होती है। फिर भी मुख्य रुप से हमारे देश में प्याज को तीन मौसम में लगाया जाता है। 

(अ) खरीफ :- खरीफ मौसम के लिए मर्इ-जून में बुवार्इ की जाती है तथा जुलार्इ-अगस्त में रोपार्इ की जाती है। प्याज अक्टूबर-नवम्बर में तैयार होता है। खरीफ मौसम में प्याज की खेती, प्याज के कुल क्षेत्रफल के 20 प्रतिशत क्षेत्र में होती है। महाराष्ट्र में खरीफ प्याज मुख्यत: सातारा जिले के फलटन, मान, दहिवडी, नासिक जिले के येवला, मनमाड, निफाड, व सिन्नर नगर के जिले के संगमनेर, राहुरी, पारनेर, श्रीगोंदा, पाथर्डी तथा नुदुरबार और धुलिया के कुछ भागें में ली जाती है।

महाराष्ट्र के अरिरिक्त उत्तर भारत के कर्इ राज्यों में भी खरीफ मौसम में प्याज की खेती लोकप्रिय हो रही है। ऐसे क्षेत्र जहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 400 से 440 मि.मी. है वहाँ खरीफ मौसम में प्याज की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। जुलार्इ-अगस्त माह में रात्री का तापमान 20-290 से0 और दिन का तापमान 24 से 30 0 से0 तक रहता है। कुछ हिस्से जैसे बसवंत-870, एन-43, अग्रीफाउंड डार्क रेड, भीमा सुपर, अर्का कल्यान आदि अधिक तापमान में भी उपयुक्त होती है और जुलार्इ-अगस्त में भी कन्द बनने आरम्भ हो जाते हैं। सप्टेंबर-आक्टोबर महिने में रात का तापमान 27-280 से0 और दिन का तापमान 30-33 0 से0 तक बढ़ता हैं। दिन व रात के तापमान में अंतर होने के कारण यह कन्दों के पोषण में सहायक होते हैं। खरीफ मौसम में निरन्तर वर्षा अधिक आद्र्रता, कम जल निकास एवं कम सूर्यप्रकाश के कारण काला धब्बा, सफेद सड़न और बैंगनी धब्बा आदि रोगों का प्रकोप अधिक होने की संभावना होती है। इस कारण उत्पादन पर असर होता है व खरीफ मौसम में  जैसे तैसे 8 से 10 टन प्रति हे क्टेयर उत्पादन प्राप्त होता है। खरीफ मौसम में अन्य मौसम की तुलना में रोग नियंत्रण पर अधिक खर्च और उत्पादन कम होने के कारण उतपादन लागत अधिक होती है, परंतु खरीफ प्याज अक्टूबर-नवम्बर माह में निकलता है और इस समय रबी मौसम का भंडारित प्याज समाप्त होने लगता है। इस कारण खरीफ मौसम में उत्पादन रबी की तुलना में कम होने पर भी कम से कम उत्पादन 10 से 14 टन प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होता है, तो भी लाभदायक है। प्याज निकालते समय आर्द्र वातावरण, गीली जमीन तथा कम सूर्य प्रकाश के कारण प्याज सूख नहीं पाते हैं। हरी तथा गीली पत्तियों वाले प्याज के काटने से 3-4 दिन बाद से ही प्रस्फुटन आरम्भ हो जाता है। इस कारण से खरीफ के प्याज का भण्डारण नहीं किया जाता है और निकालने के तुरन्त बाद इसको बेचना आवश्यक है अत: जिन क्षेत्रों में वर्षा कम, मृदा हल्की तथा आवश्यकतानुसार सिंचार्इ की सुविधा हो, उन क्षेत्रों के किसान खरीफ मौसम में प्याज की खेती सफलतापूर्वक कर सकते हैं।

(ब) पछेती खरीफ (रांगडा) :- पछेती खरीफ (रांगडा) मौसम में बीज की बुवार्इ अगस्त-सितम्बर में तथा रोपार्इ अक्टूबर या नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह में की जाती है तथा प्याज की जनवरी-फरवरी माह में निकाले जाते हैं। इस मौसम में मुख्यतया प्याज की खेती पूना, नासिक, अहमदाबाद, घुलिया आदि जिलोें में की जाती है। प्याज के अन्तर्गत सम्पूर्ण क्षेत्रफल के 20 प्रतिशत क्षेत्र में पछेती खरीफ की फसल लगायी जाती है। धीरे-धीरे किसान इन मौसम में अधिक फसल लगाने की ओर अग्रसर हो रहे हैं। पशिचम महाराष्ट्र के अधिकांश प्याज उत्पादक क्षेत्रों में सितम्बर से फरवरी माह तक पानी उपलब्ध रहता है। खरीफ के मौसम में वर्षा होने से सितम्बर में पानी की उपलब्धता होने पर कृषक नर्सरी लगाने की कमी के कारण रबी प्याज की खेती नहीं हो सकती है। ऐसे किसानों के लिए प्याज की खेती के लिए पछेती खरीफ एक उपयुक्त मौसम है।  

पछेती खरीफ मौसम में प्याज की रोपार्इ अक्टूबर-नवम्बर माह में की जाती है तथा कन्दों की वृद्धि दिसम्बर माह मेें होती है। इस समय रात का तापमान 20 से 24 0 से . तक रहता है इस कारण प्याज कन् द की बढ़वार अच्छी होती है। जनवरी माह में सौम्य तापमान और स्वच्छ सूर्यप्रकाश के कारण प्याज कन्दों का विकास होता है। फरवरी माह में तापमान बढ़ने से प्याज अच्छा परिपô होता है तथा पौधे स्वयं गिरते हैं। इस दौरान प्याज अच्छी तरह से सूखते हैं। प्याज वनज से अधिक भरने के कारण इस मौसम में औसतन 25 से 35 टन प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त होता है। अधिक उत्पादन व कम लागत होने के कारण इस मौसम में बाजार भाव कम होने पर भी पछेती खरीफ फसल लाभदायक होती है। इस मौसम की फसल में दोफाड़ तथा तोर आने की समस्या अधिक होती है तथा इनकी मात्रा 30 से 40 प्रतिशत तक हो सकती है। दुफाड़ तथा तोर आये प्याज का बाजार में अच्छा भाव नहीं मिलता है अत: बिक्री योग्य प्याज केवल 60 प्रतिशत ही मिलता है। नवम्बर-दिसम्बर माह में प्याज की वृद्धि के समय रात्री का तापमान 900 से0 कम होने पर तोर आने की मात्रा बढ़ती है। नेत्रजन की मात्रा 240 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से अधिक देने और उसमें भी प्याज लगाने के बाद अधिक देर से अर्थात रोपार्इ के दो महिने बाद देना, पौधाें को अधिक दूरी पर लगाना और अधिक आयु वाली पौध लगाने से जोड़ प्याज निकलने की संभावना अधिक हो जाती है। वातावरणीय दशाओं, पौध धन्त्व, नेत्रजन की मात्रा तथा इसके देने के समय का दुफाड़ तथा तोर प्याज की संख्या पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिä कुछ किस्मों में यह जातीय गुणों के कारण होता है। जैसे खरीफ या रबी की किस्मों को पछेती खरीफ मौसम मे ं लगाने से तोर अधिक आने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसके निदान के लिए उपयुक्त किस्मों को लगाना चाहिए जैसे बसवंत-780, भीमा रेड, अग्रीफाउंड रेड, फुले समर्थ आदि। 

(स) रबी :- रबी मौसम में बुवार्इ अक्टूबर-नवम्बर माह में तथा रोपार्इ दिसम्बर से जनवरी के पहले सप्ताह तक की जाती है। यह मौसम प्याज की खेती के लिए सर्वोत्तम  है। यह प्याज अधिकतर ग्रीष्मण्काल में आने के कारण इसे ग्रीष्मकालीन प्याज भी कहते हैं। प्याज के अंतर्गत क्षेत्रफल का 60 प्रतिशत इसी मौसम में लगाया जाता है। महाराष्ट्र के कोकन का तटीय भाग, चंद्रपूर तथा भंडारा के क्षेत्र को छोड़कर संपूर्ण राज्य में रबी मौसम में प्याज की खेती होती है।

उत्तर भारत के सभी राज्यों में इसी मौसम में प्याज की खेती हकी जाती है। नवम्बर माह के अंत में लगायी फसल मार्च-अपै्रल में निकाली जाती है। इस समय पत्तियाँ अच्छा तरह सूखती है तथा अच्छी तरह सूखा हुआ प्याज अधिक समय भण्डारित होता है। रब्ी प्याज की रोपार्इ में जितनी देर होती है, उतनी ही उपज धटती है तथा प्याज का आकार छोटा रह जाता है। रबी प्याज लगाने में अधिक देरी होने से यह जून में तैयार होता है और उस समय वर्षा होने से प्याज को नुकसान होता है तथा यह अच्छी तरह सूख नहीं पाता है फलस्वरुप भण्डारण में अधिक सड़ने लगता है। रबी प्याज को अप्रैल से जून तक निकाला जाता है। इस दौरान अधिक उत्पादन होने से अगस्त माह तक बाजार भाव अच्छे नहीं मिलते हैं। इस दौरान अधिक उत्पादन होने से अगस्त माह तक बाजार भाव अच्छे नहीं मिलते है। इन परिसिथतीयों प्याज का भण्डारण करना लाभदायक रहता है। भण्डारण के लिए नवम्बर माह के अंत से दिसम्बर माह के मध्य तक की गयी रोपार्इ सर्वोत्तम  होती है। 

जमीनका चुनाव 

प्याज जमीन के नीचे तैयार होने वाली फसल है, जिसकी जड़े जमीन से अधिकतम 20 से 25 सें.मी. तक जाती है। जड़ों की अच्छी वृद्धि के लिए पर्याप्त मात्रा में नमी तथा हवा का संंचार होना आवश्यक है। प्याज की खेती सभी प्रकार की मृदा में ली जा सकती है। परन्तु अधिक उत्पादन के लिए मृदा भुरभूरी, उत्तम जलनिकास वाली, बलुर्इ दुमट (हल्की से मध्य भारी) सर्वोत्तम होती हैंं हल्की रेतीली मृदाओं में पर्याप्त मात्रा में गोब र की खाद मिलाने से भी अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है। प्याज की खेती के लिए भारी मृदा उपयुक्त नहीं होती है, क्योंकि इसमें जलनिकास उपयुक्त नहीं होने के कारण कन्दों का समुचित विकास नहीं हो पात तथा कंद छोटे रह जाते हैंं, इस कारण खरीफ में भारी मृदा में प्याज नहीं लगाना चाहिए। चूने युक्त तथा क्षारीय मृदा में प्याज की खेती अच्छी नहीं होती है। ऐसी मृदा जिसमें पानी का निकास समुचित न हो तो बीमारियों का प्रकोप बढ़ता है एवं कंद सड़ने लगते हैं।

प्याज की उत्र्रत किस्में

 प्याज की आदर्श किस्म उसके उपयोग जैसे-निर्यात, प्रसंस्करण, ग्राहक की माँग, लगाने का मौसम आदि के आधार पर निर्भर करती है। प्याज सामान्यतया गोलाकार होना चाहिए तथा तने एवंज ड़ें के निकट वाला भाग धंसा होना चाहिए। ऐसी किस्म के प्याज मध्यम आकार (4.5 से 5 सें.मी. व्यास), लाला या गहरा लाल या पूर्ण सफेद रंग तथा अच्छे भण्डारण क्षमता वाला होना चाहिए। इनकी गर्दन पतली तथा शल्क आपस में सटे होने चाहिए। प्याज स्वाद में तीखा या मध्यम तीखा होना चाहिए परन्तु उग्र नहीं होना चाहिए तथा काटने पर एक केन्द्रीय होना चाहिए। इस प्रकार की किस्म की उत्पादन क्षमता 300 से 350 कुन्टल प्रति हेक्टेयर होना चाहिए। प्याज एक साथ तैयार होना चाहिए तथा इसमें रोग के प्रति अवरोधिता होनी चाहिए। प्याज भण्डारण में अधिक टिकाऊ होना चाहिए तथा प्रस्फुटन एवं वनज धटने की समस्या कम होनी चाहिए। 

   प्याज का पाउडर या फ्लेक्स बनाने के लिए उपयुक्त किसमों में कुल धुलनशील ठोस पदार्थ 15 से प्रतिशत से अधिक  होना चाहिए। यह सामान्यत: तीखापनयुक्त सफेद रंग का होना चाहिए क्योंकि ऐसी किस्मों के फ्लेक्स अच्छे रंग के बनते हैं। इस प्रकार की किस्म जो सर्वगुण सम्पत्र हो, एक कल्पाना मात्र है क्योंकि एक सर्वगुण सम्पन्न किस्म सभी मौसम तथा प्रसंस्करण के लिए उपलब्ध नहीं हो सकती है। विभिन्न मौसम, बाजार की माँग, भंडारण आदि हेतु किस्में विकसित करने के लक्ष्य से विगत 15 से 20 वषोर्ं से अनेक कृषि विश्वविधालयों तथा अनुसंधाान संस्थानों में अनुसंधान कार्य किया जा रहा है। इसके फलस्वरुप लगभग 34 उन्नत किस्में विकसित की गयी है।  परन्तु 43-5 किस्मों की ही प्राय: खेती की जा रही है। प्याज के कुल क्षेत्रफल का 30 : ही उन्नत किस्मों के अंतर्गत है। शेष क्षेत्र में किसानों द्वारा स्वंय तैयार किया गया बीज बोया जाता है। स्वयं तैयार किया गया बीज मेें बीजोत्पादन के नियमों का पालन नहीं किया जाता है तथा प्राय: ये किस्में निम्न गुणवत्ता वाली होती है। इसके फलस्वरुप इनमें कम उत्पादन, दुफाड़ तथा तोर कन्दों की अधिकता होती है तथा इनकी भण्डारण क्षमा कम होती है। संस्तुति किस्मों के बीजों के समय पर उपलब्ध न होने के कारण किसान स्वयं बीज उत्पादन करते हैं या किसानों के पास उपलब्ध बीज बोते हैं। अच्छे बीज की उपलब्धता के लिए एक गाँव या एक परवे के किसान मिलकर एक ही किस्म के बीज का उत्पादन कर सकते हैं। इससे अनुसंधान केन्द्रों से विकसित उिन्न किसमों का प्रसार अधिक क्षेत्र में हो पायेगा। इनमें सु कुछ संस्तुति किस्मों का विवरण निम्नलिखित है। 

अ) खरीफ मौसम की किस्में 

एन-43 :-  यह नासिक जिले की स्थानीय किस्म से विकसित की गयी है। इसके शल्ककंद गोलाकार, चपटे, बैंगनी लाल रंग के, तीखापन युक्त होते हैं। यह किस्म 100-120 दिनों में परिपô होती है तथा प्रति हेक्टेयर 20 से 25 टन उत्पादन देती है। 

बसवन्त-870 :- यह महात्मा फुल विश्वविधालय द्वारा स्थानीय किस्म से चयन द्वारा विकसित की गयी है। इसके प्याज गोलाकार तथा तने के पास शंôाकार होते हैं। इसका रंग आकर्षक लाल तथा भण्डारण क्षमता 3-4 माह होती है। इसमें दुफाड़ तथा तोर प्याज की मात्रा एन-43 से कम होती है। यह किस्म 100 से 120 दिनों में तैयार होती है तथा प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन 25 से 30 टन होती है। इसकी खेती थोड़ी देर से अर्थात अगस्त माह में करने से उपज में वृद्धि होती है।

एग्रीफांउड डार्क रेड :- यह नासिक सिथत बागवानी अनुसंधान तथा विकास प्रतिष्ठान द्वारा स्थानीय जाती से विकसित किस्म है। इसके शल्ककन्दों का आकार गोल तथा रंग लाल होता है। यह किस्म 100 दिन में तैयार होती है तथा इससे प्रति हेक्टेयर 25 से 27 टन तक उपज होती है। 

अर्का कल्याण :- यह किस्म बंगलोर सिथत भारतीय बागवानी अनुसंधान द्वारा विकसित की गयी है। इसके प्याज गोलाकार तथा गहरे लाल रंग के होते हैं। जो स्वाद में तीखें होते हैं। यह किस्म 90 से 100 दिन में तैयार होती है तथा औस उत्पादन प्रति हेक्टेयर 25 से 30 टन तक प्राप्त होता है।

 भीमा सुपर :- राष्ट्रीय प्याज व लहसून अनुसंधान केन्द्र ने बसवन्त-870 जाती में चुनाव विधि द्वारा विकसित की गर्इ है। इस किस्म में एक केेंन्द्रीय प्याज का प्रमाण 90 से 95 प्रतिशत तक प्राप्त होता है। प्याज आकार में एक समान होता है। बिक्री योग्य उत्पादन 75 से 80: या इससे भी अधिक प्राप्त होते हैं। इसे बाजार भाव अच्छा मिलता है, एवं हेक्टेयरी औसत उत्पादन 25 से 30 टन तक प्राप्त होता है। यह खरीफ व पछेती खरीफ के लिए उपयुक्त किस्म है।

ब) रबी मौसम की किस्में 

 एन 2-4-1:- यह किस्म पिपलगाँव-बसवन्त सिथत प्याज अनुसंधान केंन्द्र द्वारा विकसित की गयी है। इसके प्याज मध्यम से बड़े तथा गोलाकार होते हैं। जिनका रंग र्इट सदृश लाल तथा स्वाद तीखा होता है। इसे बाजार भाव अच्छा मिलता है, एवं हेक्टेयरी औसत 30 से 35 टन  उत्पादन देती है। यह किस्म बैगनी धब्बा तथा थि्रप्स के लिए सहनशील है।

पूसा रेड :- यह भारतीय कृषि  अनुसंधान संस्थान, नर्इ दिल्ली से विकसित किस्म है। इसके प्याज गोलाकार चपटे होते हैं। शल्क कन्दों का औसत वनज 80 से 90 ग्राम तक होता है तथा इनमें संपूर्ण धुलनशील ठोस पदार्थ का प्रतिशत 23 से 24 होता है। यह किस्म 125 से 140 दिनों में तैयार होती है तथा इसकी औसत उपज 25 से 30 टन होती है।

अर्का निकेतन :- यह भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बंगलोर द्वारा नासिक के स्थानीय किस्म के चयन से विकसित की गयी है। इस किस्म से शलक्ल कन्द गोल, आकर्षक गलाबी रंग के तथा पतली गर्दन वाले हेाते हैं। यह भण्डारण के लिए उत्तम किस्म है तथा शल्क कन्द साधारण तापमान पर 5 से 6 माह तक भण्डाररित किये जा सकते हंै। यह रोपार्इ के 110 से 120 दिनों में तैयार हो जाती है तथा प्रति हेक्टेयर 30 से 40 टन उत्पादन देती है।

एग्रीफाउंड लार्इट रेड :- यह राष्ट्रीय बागवानी अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान, नासिक द्वारा विकसित किस्म है। जो रबी मौसम के लिए उपयुक्त है। इसके शल्क कन्द गोल तथा मध्यम से बड़े आकार के तीखापनयुक्त होते हैं एवं इसमें सम्पूर्ण धुलनशील पदार्थ 13 प्रतिशत होता है। इसके शल्क कन्द रोपार्इ के 120 से  124 दिनों मेंं तैयार होते हैं तथा प्रति हेक्टेयर 30 से 35 टन उपज प्राप्त होती है। यह भण्डारण के लिए उपयुक्त किस्म है। 

स) पछेती खरीफ मौसम की खेती 

 पछेती खरीफ (रांगडा) के लिए कम तोर तथा कत दुफाड़ वाली कहरे लाल रंग तथा 2-3 माह तक भण्डारण वाली किस्म उपयुक्त होती है। उपलब्ध किस्मों में पछेती खरीफ के लिए सही अर्थ में उपयुक्त किस्में सिफारिश करना कठिन है। उपलब्ध किस्म और प्याज अनुसंधान केंन्द्र द्वारा विकसित की गर्इ किस्मों का तुलनात्मक अध्ययन पछेती खरीफ मौसम में किया गया है। इनमें भीमा रेड और बसवन्त 780 किस्में उपयुक्त पार्इ गर्इ। भीमा रेड यह नर्इ किस्म विकसित कर पछेती खरीफ के लिए सिफारिश की गर्इ है। इस जाती का औसम उत्पादन 30 से 32 टन प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है तथा पछेती खरीफ में अधिकतम उत्पादन लगभग 60 टन तक प्राप्त हो सकता है। प्याज गहरे लाल रंग के होते हैं और इसकी भण्डराण क्षमता 3 से 4 माह तक होती है। उपलब्ध किस्मों में से खरीफ मौसम में होने वाली किस्में जैसे बसवंन्त-780 या भीमा रेड, अग्रीफाउंड लार्इट रेड, फुले समर्थ या स्थानीय फुरसंगी किस्म पछेती खरीफ के लिए उपयुक्त होती है। लेकिन इस मौसम के लिए और किस्में विकसित करने की आवश्यकता है।

द)  प्रसंस्करण हेतु किस्में 

 प्याज के निर्जलीकृत खीसें तथा पाउडर की विदेशों में बहुत माँग है। इसके अतिररिक्त छोट आकार के कन्दों (20 से 25 मि.मी. व्यास) को सिरके या चीनी के धोल में परिरक्षित कर निर्यात की बड़ी सम्भावनाए हैं। इस उधोग के लिए सफेद रंग के प्याज की आवश्यकता होती है। इसके के लिए गोलाकार, चमकदार, सफेद रंग के तथा 28: से अधिक सम्पूर्ण धुलनशील पदार्थ वाली किस्म चाहिए। साथ ही साथ इसे बीमारियों जैसे काली फफूंदी आदि से कम प्रभावित होना चाहिए तथा भण्डारण क्षमता कम से कम 2-3 माह होनी चाहिए। ऐसी किस्मों में हरापन आपने तथा प्रस्फुटन की समस्या कम या नहीं होना चाहिए। हमारे देश में वर्तमान समय में उपलब्ध 13-14: सम्पूर्ण घुलनशील पदार्थ वाली किस्में इसके लिए उपयुक्त नहीं है। विदेशों में उपलब्ध किस्मों में सम्पूर्ण घुलनशील पदार्थ 20: तक होता है। परन्तु इन किस्मों को 13 से 14 धण्टे प्रकाशअवधि तथा ठण्डी जलवायु की आवश्यकता हाती है, जो हमारे देश में अधिकांश भागों में उपलब्ध नहीं होने के कारण इन किस्मों को (केवल पहाड़ी भाग छोड़कर) यहाँ पर उगाना सम्भव नहीं है। इसके साथ गोल आकार के प्याज में प्रकि्रया के दौरान उपशिष्ट पदार्थ कम निकलता है। अत: उपलब्ध किस्मों तथा स्थानीय किस्मों चयन विधि द्वारा से प्रसंस्करण हुतु उपयुक्त किस्मों का विकास आवश्यक है। हमारे केंन्द्र ने प्रसंस्करण हेतु सफेद प्याज की किस्मों का निर्माण विभिन्न मौसम में लगाने के लिए आरंभ किया है। हमारे देश में विकसित सफेद रंग की कुछ किस्मों का विवरण निम्नांकित है।

पूसा व्हार्इट राउंड :- यह किस्म भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नर्इ दिल्ली द्वारा विकसित की गयी है। इसके शल्क कन्द सफेद तथा चपटे गोलाकार होते हैं। इनमें संपूर्ण धुलनशील पदार्थ 13 से 14: तक होता है तथा उपज 20 से 25 टन प्रति हेक्टेयर होती हैै। यह रबी मौसम के लिए उपयुक्त है।

पूसा व्हार्इट :- यह किस्म भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नर्इ दिल्ली द्वारा विकसित की गयी है। इसके कन्द चपटाकार गोलार्इ लिए होते हैं। इनमें संपूर्ण धुलनशील पदार्थ 12 से 14: तक होता है तथा बीज 20 से 25 टन  प्रति हेक्टेयर होती है। यह रबी मौसम के लिए उपयुक्त है।

पूसा व्हार्इट फ्लेट :-यह पछेती खरीफ तथा रबी मौसम के लिए उपयुक्त किस्म है। जो महात्मा फुल कृषि विश्वविधालय, राहुरी द्वारा विकसित की कयी है। इसके शल्क कन्द मध्यम तथा गोलाकार होते हैं। इनका रंग चमकदार सफेद होता है। इनमें संपूर्ण धुलनशील पदार्थ 13 से 14: तक होता है तथा उपज 20 से 25 टन प्रति हेक्टेयर होती है। इसकी भण्डारण क्षमता सामान्यतया 2-3 माह होती है। जनवरी माह में कम दूरी (10×10 सें.मी.) पर लगाने से इसके सिरके या चाशनी में परिरक्षित करने योग्य शल्ककन्द मिल सकते हैं। इन किस्मों के अतिरिक्त उदयपुर-102, अग्रीफाउंड व्हार्इट, भावनगर लोकल, निमार लाकेल आदि अन्य सफेद रंग के प्याज की किस्में भी विकसित की गयी है।

व्ही 12 :- रबी मौसम में लगाने के लिए प्रकि्रया करने वाले उधोग समू जैन फूड प्राडक्ट द्वारा करारबद्ध खेती करने वाले किसानों के लिए यह किस्म शिफारिश की है। इस किस्म में धुलनशील ठोस पदार्थ की मात्रा 18: के लगभग है। इसके प्याज सफेद व गोलाकार होते हैं और पत्तीयाँ गहरे हरे रंग की होती है। इसका उत्पादन 35 से 40 टन प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होता है। इसका बीजोत्पादन भारत के मैदानी भागों में नहीं किया जा सकता है। 

इ) युरोपीय देशों में निर्यात हेतु पीले रंग की किस्म

 युरोपीय देशों में पीले रंग के किस्मों की अधिक माँग है। प्याज में बड़ा (80 मि.मी. से अधिक) और वनज साधारणत: 240 से 300 ग्राम होना चाहिए। प्याज का रंग पीला और उसके उपर का छिल्का प्याज से सटा (चिपका) हुआ होना चाहिए। ऐसे प्याज की  जनवरी से अप्रैल माह में माँग अधिक होती है। राष्ट्रीय प्याज व लहसून अनुसंधान केंन्द्र ने कुछ विदेशी संकर किस्मों का अध्ययन किया है। इनमें से बहुत से किस्मों से हमारे जलवायु में उत्पादन नहीं आता है। परन्तु कुछ संकरित किस्मों जैसेे मर्सिडिज, काउगर, लिन्डाविस्टा, रिफार्मा, एक्स केलिबर, बेसिक आदि सितम्बर से फरवरी माह में अच्छा उत्पादन देतती है और यह प्रति हेक्टेयर 50 से 60 टन तक प्राप्त हो सकता है। इनका प्रयोग किसानों के खेतों पर भी सफल रहा है  और युरोपीय देशों के निर्यात हेतु उपयुक्त है। सरकार, व्यापारिक समूह और निर्यातको से प्रोत्साहन मिला तो पिले रंग के प्याज का उत्पादन और निर्यात की दृषिट से हमारे देश में अच्छा भविष्य है। 

र्इ) संकर किस्में 

     भारत, पाकिस्तान, बांगलादेश तथा श्रीलंका आदि को छोड़कर अधिकांश विकसित देशों में प्याज की संकर किस्में उगायी जाती है। संकर किस्मों में शल्ककन्दों का रंग आकार समान होता है। प्याज एक साथ परिपô होते हैं। इनमें संपूर्ण धुलनशील पदार्थ में बहुत विविधता होती है। अधिकांश संकर किस्मों को ठण्डी जलवायु तथा 13 से 14 धण्टे प्रकाशअवधि की आवश्यकता होती है, जबकि हमारे देश में यह परिसिथतीयाँ केवल पहाड़ी क्षेत्रों में उपलब्ध हैं। भारत में उपलब्ध किस्में प्रमुखत: कम सुर्यप्रकाश (20 से 22 धंटे) और सामान्यत: अधिक तापमान में पकने वाली होती है। दुर्भाग्य से कुछ संकरित किस्माें का हमारे देश में विकास किया गया है परन्तु उसके रंग, उत्पादकता और भण्डारण क्षमता आदि बिंदुओं पर इनकी उपभोक्ता सिद्ध होना बांकि है। मध्यम प्रकाशवालावधि में पकनेवाली कुछ संकर किस्मों का उत्पादन मैदानी भागों में भी भी लिया जा सकता है, जिसका राष्ट्रीय प्याज एवं लहसुन अनुसंधान केंन्द्र के प्रदेत्र में सफलतापूर्वक उत्पादन लिया गया है और उपरोक्तानुसार किस्में शिफारिश की है। रबी और पछेती खरीफ में पीले रंग की विदेशी मूल के  संकरित किस्माें की उत्पादकता 60 से 70 टन प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हुर्इ है परन्तु भारतीय बाजार में इसकी माँग बहुत कम है। किसानों के खेतों पर भी पीले रंग की संकर किस्म का सफल उत्पादन लिया गया है। हमारे देश में उपयुक्त संकर किस्मों की आवश्यकता है एवं इस दिशा में कार्य प्रगति पर है।

6. बीज की खरीद 

 प्याज उत्पादन में बीज एक संवेदनशील मुíा है। बाजार में प्याज के बीज की कीमत 150 से 1500 रुपये प्रति किग्रा. है। बाजार में असर प्याज के बीज पर भी पड़ता है। भाव बढ़ने पर निम्न कोटि या पुराना बीज भी बिकने लगता है। सामान्यतया प्याज का बीज 12 से 15 महीने से अधिक भण्डारित नहीं किया जा सकता है। पन्द्रह महीने के बाद बीज की अंकुरण क्षमता बहुत कम हो जाती है। खरीफ मौसम की किस्मों का बीज दो खरीफ मौसम में बोया जा सकता है। सामान्यत: बीज अप्रैल या मर्इ माह में तैयार होता है। इसे उसी वर्ष बोया जा सकता है। लेकिन रबी मौसम का बीज एक ही बार बोने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इन किस्मों का बीज भी मर्इ महीने में तैयार होता है तथा उसी वर्ष रबी मौसम में बोया जाता है। परन्तु अगले वर्ष रबी तक बीज 18 महीने का हो जाता है तथा जो बुवार्इ के लिए उपयुक्त नहीं रह पाता। अत: मौसम के अनुसार किसमें का बीज नहीं खरीदते हैं।  बीज से बनने वाले कन्दों के आकार-प्रकार की पूछताछ नहीं करते हैं। केवल प्याज का बीज है इसलिए बीज खरीदते हैं। ऐसी भावना अच्छी किस्मों के प्रसार में बाधक है। किसी भी मौसम में लगाने के लिए बीज, बीज तैयार  होने के तुरन्त बाद अर्थात मर्इ महीने में खरीदने से अच्छे बीज मिलते हैं क्योंकि अच्छे बीज तैयार होते ही बिक जाते हैं। बीज खरीदने से पूर्व क्षेत्र, मौसम आदि बातों का ध्यान रखते हुए ही बीज खरीदना चाहिए।

7. पौधशाला (नर्सरी) की तैयारी

 स्वस्थ पौध तैयार करना सफल प्याज उत्पादन के लिए आवश्यक है। एक हेक्टेयर में प्याज लगाने के लिए एक हजार से बारह सौ वर्गमीटर जमीन में बुआर्इ करनी चाहिए। पौधशाला सिंचार्इ के श्रोत के समीप होनी चाहिए, क्योंकि पौधशाला को समय-समय पर सिंचार्इ करनी चाहिए। ऐसी जमीन जहां पर मोथा या दूब या कोर्इ अन्य बहुवर्षीय खरपतवार हो, उसमें नर्सरी नहीं डालनी चाहिए। खरीफ मौसम की फसल के लिए पौधशाला तैयार करने हेतु ऐसी भूमि का चयन करना चाहिए जहाँ पर दोपहर बाद छाया आती हो। इसके लिए मेड़ पर लगे वृक्षों तथा झाडि़यों के पास के स्थान उपयुक्त हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त छाया के लिए टाट आदि से अस्थायी छप्पर बनाये जा सकते हैं। पौधशाला के पशिचम तथा दक्षिण दिशा से अरंड आदि की बुवार्इ से भी पर्याप्त छाया मि जाती है। रबी मौसम की रोपवाटिका खुला स्थान पर बनानी चाहिए। इसमें गोबर की अच्छी सड़ी हुर्इ खाद डालने के बाद उगे हुए खरपतवार को निकालकर ही बुवार्इ करनी चाहिए। प्याज की पौध के लिए सपाट या उठी हुर्इ क्यारियाँ बनायी जाती है। उठी हुर्इ क्यारियों में पौधों की वृद्धि एकसमान एवं अच्छी तरह होती है। इसमें पौधे स्वस्थ एवं जल्दी तैयार हाते हैं तथा रोपार्इ के लिए पौधे उखाड़ने में आसानी होती है। इसलिए उठी हुर्इ क्यारियाें में रोपवाटिका तैयार करना लाभदायक होता है। इन उठी हुर्इ क्यारियों की चौड़ार्इ एक मीटर तथा लम्बार्इ पानी देने की सुविधानुसार रखी जा सकती है। परन्तु सामान्यत: 3-4 मीटर लम्बी क्यारियाँ उपयुक्त होती है।  इनकी ऊँचार्इ जमीन से लगभग 15 सेें.मी. होनी चाहिए। उठी हुर्इ क्यारियों में भूमि तैयार करते समय 20 से 25 किलो ग्राम गोबर की खाद तथा 50 ग्राम सुफला प्रति क्यारी की दर से डालना चाहिए। खाद को क्यारी कि मिðी में अच्छी तरह मिलाना चाहिए तथा पत्थर एवं ढ़ेले निकालकर मिðी को अच्छी तरह समतल करना चाहिए। इन क्यारियों में 5 से 8 सें.मी. अन्तर पर कतार बनाकर बुवार्इ करने के पश्चात मिðी से ढ़क कर हजारे से बीज उगने तक समय-समय पर पानी देना चाहिए। अनेक किसानों को उठी हुर्इ क्यारियाँ बनाने में परेशानी महसुस होती है तथा वे भूमि के ढ़लान को घ्यान में रखे बिनाा लम्बी सपाट क्यारियाँ बनाकर छिड़कवाँ विधि से बुवार्इ करते हैं। इस विधि में बीज पानी से बहकर एक भी कोने पर जमा हो जाते हैं। जिससे पौधे धने तथा कमजोर बनते हैं यदि उठी क्यारियाँ नहीं बनती हो तो भी 1 मीटर चौड़ी तथा 3-4 मीटर लम्बी क्यारियाँ बनाकर उनमें पर्याप्त मात्रा में गोबर की खाद सिंचार्इ करना चाहिए। इन क्यारियों में छिटकवाँ विधि के स्थान पर पंकितयांें में बुवार्इ करने के बाद सिंचार्इ करना चाहिए। एक हेक्टेयर भूमि के लिए अच्छी अंकुरण क्षमता वाले 8-10 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है। साधारणत: एक वर्गमीटर क्षेत्र में 10 ग्राम बीज ड़ाला जाता है। इस प्रकार 3 मीटर लम्बी तथा एक मीटर चौड़ी क्यारि में 30 ग्राम बीज लगता है। बीज अंकुरण के समय या इसके पश्चात कर्इ बार आद्र्रगलन रोग का प्रकोप होता है। इससे रोपार्इ योग्य पौधे कम मिलते हैं। इसके नियंत्रण के लिए बुवार्इ से पूर्व बीज को 2-3 ग्राम थायरम, केप्टान या बाविसिटन प्रति किलाग्राम की दर से उपचारित करना चाहिए। बीज पंकितयों में बोने से पौधों को पर्याप्त धूप तथा स्थान मिलता है। उनमें प्रतिस्पर्धा नहीं होने के कारण समान वृद्धि होती है। इससे निरार्इ-गुड़ार्इ, फफूंदीनाशक आदि के छिड़काव तथा रोपार्इ के लिए पौध उखाड़ने में सुविधा होती है। छिटकवाँ विधि से बोने से पंकितयों तथा मध्य समान दूरी नहीं होती है। बीज बोते समय किसी स्थान पर बीज अधिक गिरते हैं व कहीं पर कम गिरते हैं। बीज भूमि में समान गहरार्इ पर नहीं जाते हैं और सिंचार्इ करते समय बहुत से बीज एक स्थान पर इकðा हो जाते हैं। इससे उस स्थान पर रोप धनी आती है और पौधे लम्बे, पीले तथा देर से रोपार्इ योग्य होते हैं।इस प्रकार की बुवार्इ से  निरार्इ-गुड़ार्इ के कार्य में परेशानी होती है। रोपार्इ योग्य पौधे कम मिलते हैं। केवल पंकितयों में नहीं बोने से कभी-कभी 30 से 40 प्रतिशत पौघे पर जाते हैं। साथ ही साथ बीज अधिक लगता है एवं परेशानी अधिक होती है। अत: उठी हुर्इ क्यारियाँ नहीं भी बनायी गयी हो तो भी क्यारियों में बुवार्इ पंकितयों में ही करना चाहिए। 

 बुवार्इ के बाद पहली सिंचार्इ हजारे से क रनी चाहिए। इससे बीज से पानी बहते नहीं हैं तथा अपने स्थान पर ही रहते हैं। लेकिन अधिक क्षेत्र में पौधशाला होने पर हजारे से सिंचार्इ सम्भव नहीं हो पाता है। अत: सिंचार्इ करते समय पानी का प्रवाह कम राखना चाहिए। क्यारियों में पानी देने वाले स्थान पर घास या बोरा लगाने से  पानी की गति कम की जा सकती है। पहली सिंचार्इ से अंकुरण तक थोड़े-थोड़े अन्तर पर हल्की सिंचार्इ करते रहना चाहिए। इससे अंकुरण अच्छा होता है। इसके पश्चात 7-8 दिन के अन्तर पर सिंचार्इ करना चाहिए तथा  समयानुसार निरार्इ-गुड़ार्इ करना चाहिए। इससे पंकितयों के मध्य की भूमि हल्की होने से पौधों की जड़ों को पर्याप्त मात्रा में हवा मिलती है। रोपार्इ से पूर्व पौधशाला में सिंचार्इ का अंतर बढ़ा देना चाएि। इससे पोधे मजबूत बनते हैं। पौधों की रोपार्इ के लिए उखाड़ने के 24 धण्टे पूर्व सिंचार्इ करना चाहिए। पौधशाला में किड़ों तथा बीमारियों का प्रकोप होता है। इनके नियंत्रण के लिए 10 लीटर पानी में 15 मिल. मेटासिस्टाक्स तथा 25 ग्राम डाइथेन एम-45 धोलकर 15 दिन के अंतराल पर आवश्यकतानुसार छिड़काव करना चाहिए। खरीफ मौसम मं 40 से 45 दिन में पौधे रोपार्इ योग्या हो जाते हैं। जबकि रबी मौसम में पौधे 50 से 55 दिन में तैयार होते हैं। अच्छी फसल के लिए स्वस्थ तथा ओजस्वी पौधे आवश्यक है। कमजोर पौधे रोपार्इ के बाद या तो मर जाते हैं या देर से बनते हैं एवं इनसे छोटे आकार के कन्द बनने की सम्भावना अधिक रहती है। अधिक आयु के पौधे की रोपार्इ करने से कन्द जल्दी तैयार होते हैं, परन्तु इनकी वृद्धि सीमित रहती है तथा कन्द अधिक नहींं बढ़तेे हैं और छोटे आकार होने से उत्पादन कम होता है। वर्तमान में बासभिड जैसे दानेदार खरपतवार नाशी का उपयोग किया जाए तो पौधशाला में खरपतवार व आद्र्रगलन रोग से बचा जा सकता ह ै। इसकी अधिक जानकारी के लिए संबंधित कंपनी के द्वारा की गर्इ जानकारी पत्र या पुसितका का अवलोकन करना चाहिए। 

8. पौधशाला तैयार करने हेतु टपक या फवार सिंचन 

 टपक या फुवार सिंचार्इ का उपयोग कर पौधशाला तैयार करने के लिए अनुसंधान केंन्द्र में प्रयोग किए हैं। ट्रेक्टर चलित संयत्र की सहायता से 1 मीटर चौड़े, 60 मीटर लम्बे और जमीन 15 सें.मी. उंची क्यारियाँ तैयार कर उस पर दो टपक नालियाँ 60 सें.मी. अंतर पर बिछाकर या फुहार सिंचार्इ के लिए नोजल में 3×3 मीटर अंतर रख कर पानी देने की व्यवस्था की गर्इ। क्यारियों पर चौड़ार्इ के समानांतर 10 सें.मी. अंतर पर कतार बना कर बीज को बोया गया। टपक या फुवार सिंचार्इ अंतर्गत प्रति वर्गमीटर 8ध्5 ग्राम बीज बोया गया जबकि सामान्य विधि के अनुसार 12 ग्राम बीज बोया गयो। रोपार्इ योग्य पौधाें की संख्या टपक सिंचार्इ से 1080, फुवार सिंचार्इ में 1172 और सामान्य विधि में 1045 तक प्राप्त हुए। इससे सीधा अर्थ निकलता है कि टपक या फुवार सिंचार्इ में पौध तैयार करने के लिए मात्र 2 किलो बीज प्रति एकड़ पर्याप्त होते हैं जबकि सामान्य विधि में 3.45 किलो ग्राम बीज प्रति एकड़ लगता है। अत: प्रति एकड़ 1.5 किलो ग्राम तक बचत हो सकती है। इसके अतिरिक्त पानी की 30 से 40 प्रतिशत बचत होती है साथ ही साथ पानी देने के मजदूरी के खर्च में भी 55.0 रुपये प्रति एकड़ की दर से बचत होती है। 

9. पौधशाला में खरपतवार नियंत्रण 

 पौधशाला में प्याज के साथ-साथ खरपतवार के बीज भी निकलते हैं। क्यारियों में गोबर की खाद ड़ाला हो तो खरपतवार निकलने का प्रमाण अधिक हो सकता है। प्याज और खरपतवार के बीज एक साथ बढ़ने के कारण पौधशाला में खरपतवार नियंत्रण कठिन और खर्चीला हो जाता है। इस कारण कुछ समय बाद प्याज के पौध खरपतवार से ढंँक जाते हैं। आरंभ में खरपतवार पतले व छोटे होने के कारण हाथ से निकालने में बहुत अधिक समय लगता है। कर्इ बार किसान पौधशाला में खरपतवार तो कम होते हैं या जल जाते हैं परन्तु उसके साथ-साथ प्याज के पौध को भी नुकसान हो सकता है या पौध के सिरे जल जाते हैं। पौधशाला में खरपतवार नियंत्रण के लिए इस अनुसंधान केंन्द्र कें प्रयोग किए गए हैं। प्याज के बीज लगाने के पूर्व क्यरियों में स्टाम्प (पेंडिमिथिलीन) 2 मि.ली. 1 लीटर पानी के दर से मिला कर छिड़काव करे तो खरपतवार के बीज नहीं निकलते और प्याज अच्छी तरह निकलते हैं। दूब या मोथा जैसे खरपतवार पर स्टाम्प का असर नहीं होता  इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है। 

10. खेत की तैयारी तथा मेड़ बनाना 

 मध्यम तथा भारी मिट्टी  में हल से 15 से 20 सें.मी. गहरी जुतार्इ करनी चाहिए। इसके पश्चात दो-तीन बार कल्टीव्हेटर चलाना चाहिए, जिससे ढ़ेले टूट जाए और मिट्टी भुरभुरी हो जाती है। भूमि की तैयारी से पूर्व खेत में पिछली फसल से बचे हुए भाग, खरपतवार आदि इकðा कर कम्पोस्ट के गÏे में डाल देना चाहिए। दूब या मौथा आदि खरपतवारों को जड़ सहित निकाल कर जला देना चाहिए। खेत में 20 से 25 टन अच्छी तरह से सड़ी हुर्इ गोबर की खाद डाल कर उसे हैरो से मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। खरीफ मौसम में प्याज की फसल लगाने से पूर्व अच्छी तरह जुतार्इ करनी चाहिए। जिससे खरपतवार नष्ट हो जाय। अच्छी तरह तैयार खेत में भूमि के प्रकार, मौसम, वर्षा की मात्रा आदि को ध्यान में रखते हुए समतल क्यारियाँ, मढ़ व कतार विधि या उठी हुर्इ क्यारियाँ बनाकर प्याज की खेती किया जा सकता है। 

 भुरभुरी, मध्यम भारी या नदी के अवसाद वाली भूमियों में रबी मौसम में चौरस क्यारियों में प्याज की खेती लाभदायक होती है क्योंकि इसमें मेढ़ वह कतार (कूड) विधि से 30 प्रितिशत अधिक पौधे लगाये जा सकते हैं तथा शल्क कन्द एक समान आकार के प्राप्त होते हैं। क्यारियों की लम्बार्इ तथा चौड़ार्इ भूमि के ढ़ाल पर निर्भर करती है। सामान्यतया 1.5 से  2.0 मीटर चौ़ड़ी तथा 4 से 6 मीटर लम्बी क्यारियाँ बनायी जाती है। क्यारियों की लम्बार्इ ढ़ाल की विपरीत होनी चाहिए। यदि भूमि में ढ़ाल अधिक है, तो 1.5×3.0 मीटर आकार की छोटी क्यारियाँ बनायी जानी चाहिए। क्यारियों का आकार पानी देने के सुिवधानुसार जितना बड़ा हो उतने अधिक क्षेत्र में रोपार्इ होती है।

भारी मृदा तथा अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में मेढ़ व कतार (कूड) विधि या उठी हुर्इ क्यारियाँ बनाकर प्याज की खेती करनी चाहिए। इससे वर्षा का पानी खेत से बाहर निकल जाता है। मेढ़ व कतार विधि में ढ़ाल के लम्बवत 30 से 455 सें.मी. की दूरी पर मेढ़ बनानी चाहिए। इसके पश्चात जमीन के ढ़ाल के अनुसार 4 से6 मीटर की दूरी पर लम्बवत मढ़ बनाकर 2×4 मीटर या 2×6 मीटर आकार की छोटी क्यारियाँ बनानी चाहिए। सिंचार्इ के लिए मोटी एवं उंची मेढ़ बनानी चाहिए। इस विधि में मेड़ के दोनों ओर रोपार्इ की जाती है परन्तु समतल क्यारियाें की तुलना में कम पौधे लगते हैं तथा कन्दों की वृद्धि समान नहीं होती है। जिससे उत्पादन कम प्राप्त होता है।

 आजकल फसलों में सिंचार्इ के लिए टपक या फुवार विधियों का प्रचलन बढ़ गया है। पशिचम महाराष्ट्र मं टमाटर, करेला, बैंगन, मिर्च, खीरा आदि में सिंचार्इ के लिए किसान टपक विधि का प्रयोग कर हैं। यह एक मिथ्या भ्रम है कि प्याज तथा लहसून जैसी कम दूरी पर लगाये जाने वाली फसलों में टपक सिंचार्इ नहीं हो सकती है। केंन्द्र द्वारा सिफारिश करने के बाद अनेक किसान प्याज के लिए टपक तथा फुवार विधियों का सफलतापूर्वक प्रयोग कर रहें हैं। इसके लिए 120 सें.मी. चौड़ी तथा 14 सें.मी. उँची, 40 से 60 सें.मी. लम्बी-लम्बी क्यारियाँ बनायी जाती है। टे्रक्टर से चलने वाले मेढ़ बनाने वाले यंत्र से आवश्यकतानुसार आकार की क्यारियाँ बनायी जा सकती है। इस प्रकार के क्यारि बनाने वालो यंत्र के दो फालों के नोंक के बीच 164 सें.मी. अंतर रख कर खींचे तो 120 सें. मी. चौड़ार्इ की उठी हुर्इ क्यारियों के बीजच नीचे दिए गए त्रि के अनुसार 45 सें.मी. की नालिनुमा कतार बन जाती है। जो दवा छिड़कने, खरपतवार के निकालने, नलीयाँ तथा फसल निरीक्षण में उपयोगी होती है। इन क्यारियों का मध्य भाग टे्रक्टर से चलने वाले यंत्र या मजदूरों द्वारा समतल करना चाहिए। अच्छी क्यारियाँ बनाने के लिए आवश्यक है कि भूमि भुरभुरी हो तथा ढ़ेले नहीं हो। इस संबंध में अधिक जानकारी अनुसंधान केंन्द्र पर किसी भी समय पर प्रदान की जाती है।

11. रोपार्इ

 भारत में प्याज की खेती रोपार्इ विधि से की जाती है। इस विधि से पौधों को पौधशाला में सीमित क्षेत्र में अच्छी दख्ेारेख में तैयार किया जाता है। इससे रोपाइ्र के लिए भूमि तैयार करने के लिए 40-50 दिन मिल जाते हैं। खरीफ मौसम में अधिक वर्षा वाले तथा भारी जमीन वाले क्षेत्रों में मेढ़ों पर रोपार्इ की जाती है। जिस भूमि में जलनिकास अच्छा होता हो। वहाँ पर समतल क्यारियाँ बनायी जा सकतह है। रबी मौसम में रोपार्इ समतल कयरियों में की जाती है। समतल क्यारियों मेें मेढ़ विधिक के अपक्षा 30 प्रतिशत अधिक पौधे लगते हैं। इनमें पानी समान मात्रा में पहुँता है तथा पौधों की वृद्धि समान होती है। साथ ही साथ खाद देने तथा निरार्इ-गुड़ार्इ करने में सुविधा होती है। कुछ किसान कूड या मेढ़ के दोनों ओर पौधों की दो पंिक्तयाँ लगाते हैं। कुछ किसान दो-दो पंकितयों के साथ मेढ़ के शीर्ष पर पौधों की एक अतिरिक्त पंकित लगाते हैं। इससे पौधों की संख्या तो बढ़ती हेै, परन्तु निरार्इ-गुड़ार्इ में परेशानी होती है और साथ ही साथ शीर्ष पंकित के कन्द छोटे रह जाते हैं। इससे छोटे या अपरिपô कन्दों की मात्रा बढ़ जाती है।

 समतल क्यरियों या कूडों में सिंचार्इ के बाद रोपार्इ की जाती है। इससे लगाने में सुविधा रहती है, परन्तु मजदूरों के पैरों से दबने के कारण जमीन में निशान रहते हैं व जमीन सख्त हो जाती है। जिससे निरार्इ-गुड़ार्इ में कठिनार्इ होती है। इसके अतिरकित गीला होने के कारण पंकितयोें के बीच की दूरी समान नहीं रह पाती है। इससे पौधों की संख्या अधिक या कम हो जाती है। इसलिए रोपार्इ करते समय निशान को मिटाने तथा पौधों की उचित संख्या को ध्यान में रखना चाहिए। पौधों के बीज 15 ×20 सें.मी. अन्तर रखना चाहिए। रबी में किस्म के अनुसार 10×20 सें. मी. भी रख सकते हैं। इस प्रकार एक 3×2 मीटर आकार की समतल क्यारी में क्रमश: 400 से 600 पौधे आते हैं। कूडों़ में रोपार्इ करते समय कूड़ों के दोनो ओर 10 सें. मी. के अन्तर पर रोपार्इ करनी चाहिए। रोपार्इ करते समय जड़ के नजदीक की मिट्टी को अंगुठे से नहीं दबाना चाहिए। इससे पौधों की गर्दन टेढ़ी हेा जाती है और इसमें वृद्धि होने में अधिक समय लगता है। रोपार्इ करते समय जमीन में पहली अंगुली के सहारे पौध को धंसाकर लगाना चाहिए। सिंचार्इ से पहले रोपार्इ करने के लिए आवश्यक है कि जमीन भुरभुरी होनी चाहिए। इसके बाद सिंचार्इ करनी चाहिए इससे जमीन सख्त होती है। साथ ही साथ निरार्इ-गड़ार्इ में आसानी होती है। परन्तु इस प्रकार से रोपार्इ में अधिक समय लगता है और रोपार्इ का खर्च भी बढ़ जाता है। टपक या फुवार सिंचार्इ विधि में रोर्पा से पूर्व सिंचार्इ, 3 से 4 सें.मी. गहरार्इ तक मिट्टी गीली हो इतनी करती चाहिए, इसके बाद उसी दिन या दूसरे दिन रोपर्इ करना चाहिए तथा रोपार्इ के बाद सिंचार्इ करना चाहिए।

 खरीफ मौसम में 40 से 45 दिन तथा रबी में 50 से 55 दिनों में पौध रोपार्इ योग्य हो जाती है। रोपार्इ के समय पौधों में गाँठे अधिक होनी चाहिए। यह चने के काआकर के बराबर होना चाहिए। पौध उखारने से पूर्व सिंचार्इ करनी चाहिए। जिससे पौधों की जड़े नहीं टुटती हैं। पौधे उखारने के  बाद पौधों की पत्तियाँ अधिक बड़ी हो तो एक-तिहार्इ काट देना चाहिए तथा जड़ों को पानी से धोना चाहिए। इसके लिए पौधों को बाविसिटन या जैव उर्वरकों के धोल में डुबा सकते हैं।  पौधा उपचार हेुतु 10 लीटर पानी में 20 मि.ली. कार्बेसल्फान और 15 ग्राम बाविसिटन मिलाक र पौध के जड़ों को दो धेटा डुबो कर उपचारित कर लगाना चाहिए। इसके पश्चात नमीयुक्त स्थान पर इकðा कर रखना चाहिए। पौधों को अधिक समय तक नहीं रखना चाहिए तथा उनकी जड़ें खुनी नहीं रखनी चाहिए अन्यथा रोपार्इ के पश्चात पौधों के मरने की सम्भावना बढ़ जाती है। 

12. खरपतवार नियंत्रण

 प्याज की खेती में निरार्इ-गुड़ार्इ में काफी खर्च आता है। रोपार्इ के बाद खेत में बहुत अधिक खरपतवार उगते हैं। अधिक उपज के लिए इन खरपतवारों को निकालने के लिए गुड़ार्इ आवश्यक है। इससे जड़ांें में वायु संचार बढ़ने से कन्द अच्छी प्रकार से बढ़ते हैं। खरीफ तथा खरीफ मौसम मं खरपवार बहुत अधिक मात्रा में उगते हैं। गुड़ार्इ नहीं करने से उपज में 100 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है। जबकि गुड़ार्इ में देर करने पर 4.0-4.50 प्रतिशत नुकसान हो सकता है। रबी मौसम में खरपतवार कम आते हैं, परन्तु गुड़ार्इ आवश्यक होता है। खरपतवारों का अधिक प्रकोप, अधिक पौध धनत्व, पानी की कमी, बढ़ती मजदूरी तथा मजदूरों की अनुपलब्धता को ध्यान में रखते हुए प्याज में गुड़ार्इ व खरपतवार नियंत्रण में बहुत परेशानी होती है। ऐसी दशा में खरपतवारों का प्रयोग लाभदायाक होता है। इससे पैसे की बचत तथा परेशानी कम होती है और परिणामस्वरुप उत्पादन भी बढ़ता है। अनेक प्रकार के खरपतवारनाशी बाजार में उपलब्ध है। इनमें से कुछ खरपतवारनाशक खरपतवारों को उगने से पूर्व मारते हैं तथा कुछ खरपतवारनाशक उगने के बाद असरकारक होते हैं। इसलिए कौन से खरपतवारनाशक का प्रयोग करना है उसके बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। कर्इ खरपतवारनाशक केवल खरपतवार का नाश करते हैं तथा फसल पर असर नहीं करते हैं।  इसलिए इनके प्रयोग करने से पूर्व सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करने से ही लाभ प्राप्त होता है। प्याज में गोल (आकिसफ्लोरफन), बासालिन या स्टाप (पेन्डामिथलिन) नाम खरपतवार नाशकों का उपयोग लाभदायाक पाया गया है। ये खरपतवारनाशका खरपतवार उगने से पूर्व मारते है। प्याज में रोपर्इ से पूर्व क्यारियों में 15 मि.ली. गोल या बासलिन या 30 मि.ली. स्टाम्प प्रति 10 लीटर पानी की दर से मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। खरपतवारे के छिड़काव के लिए एक विशेष प्रकार के नोजिल का प्रकोग किया जाता है। जिससे छिड़काव अच्छा होता है। छिड़काव के तुरन्त बाद रोपार्इ कर सिंचार्इ करनी चाहिए। यदि रोपार्इ पंकियों में की गयी हो तो रोपार्इ के बाद पंकितयों में मध्य गीली क्यारियों में खरपतवारनाशक का प्रयोग किया जा सकता है। खरपतवारनाशकों का छिड़काव नालियों, मेडे आदि पर करना चाहिए। अन्यथा इन पर खरपतवार उग आते हैं और निरार्इ-गुड़ार्इ आवश्यक नहीं जाती है। कर्इ बार खरपतवार बड़े होने के बाद खरपतवारनाश क का उपयोग किया जाता है जो परिणामकारक नहीं होता। प्याज में 3-4 डी या क्लायसिल जैसे खरपतवारनाशकों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। खरपरतवारनाश्कों के प्रयोग के बाद केवल एक ही गुड़ार्इ की आवश्यकता होती है। दूब तथा मोथा जैसे खरपतवारों पर गोल या बासलिन का असर नहीं होता है। अत: इनके नियंत्रण के लिए गर्मीयों के मौसम में गहरी जुतार्इ करनी चाहिए तथा जब खेत में कोर्इ फसल नहीं हो तो ग्लासोफेट जैसे खरपतवारनाशकों  का प्रयोग किया जा सकता है। 

13. खाद एवं उर्वरक 

 खाद फसल का अन्न है। फसल के पोषण सं संबंधित कुछ महत्वपूर्ण जानकारी होना आवश्यक है। जैसे खाद का क्या महत्व है? कौन सा खाद डाले? कैसे डाले? कितनी खाद डाले? कब खाद डाले? इत्यादि। किसी भी फसल की वृद्धि के लिए 16 मूल तत्वों की आवश्यकता होती है। इनमें से कार्बन, आक्सीजन, हार्इड्रोजन, नेत्रजन, पोटेशियम, फास्फोरस, कैलशिययम, मैग्नेशियम व गन्धक प्राथमिक मूल तत्वों की पौधों को अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है और इनकी कमी से फसल की वृद्धि सामन्य रुप से नहीं होती ह। लोहा, मैंग्रीज, जस्ता, ताँबा, बोरान, मोलीब्डेनम व सिलिकान आदि सूक्ष्म तत्वों की कम मात्रा आवश्यकता होती है। इनकी कमी से उत्पादन में कमी होती है तथा उत्पादन की गुणवत्ता कम हो जाती है और फसल पर बीमारी का प्रकोप अधिक होता है। इन सोलह आवश्यक तत्वों में कार्बन, आक्सीजन तथा हाइड्रोजन पौधाें को हवा से प्राप्त होेते हैं। अधिकांश सूक्ष्म तत्व गोबर की खाद, हरी खाद तथा पछिली फसल के अवशेषों से प्राप्त हो जाते हैं या जमीन के प्रकार के अनुसार इनकी कुछ मात्रा जमीन में उपलब्ध हो जाती है। फिर भी इन्हें आवश्यकतानुसार प्रदान करना आवश्यक है। नेत्रजन, फास्फोरस तथा पोटाश अधिक मात्रा में आवश्यक होते हैं। इनकी पूर्ति के लिए बड़ी मात्रा में रासायनिक खाद देनी पड़ती है या जैविक खाद का उपयोग किया ज सकता है। फसल के संपूर्ण पोषण के लिए सम्स्त पोषक तत्व देना आवश्यक है। लेकिन दुर्भाग्य से खाद का अर्थ केवल नेत्रजन, फास्फोरस तथा पोटाश की पूर्ति पर ही ध्यान दिया जाना होता है। उत्पादन की नयी तकनीकों तथा उन्नत किस्मों के प्रयोग और एक वर्ष में कर्इ फसल लेने के कारण जमीन से पोषक तत्वों का भी प्रयोग पौधों द्वारा अधिक होने लगा है। फलस्वरुप पौधों में मूल तत्वों की माँग में वृद्धि हुर्इ है, परन्तु उसी उनुपात में सूक्ष्म तत्वों का प्रयोग नहीं किया जाता है। जिससे उत्पादकता में कमी होने लगी है। प्याज का उत्पादन 300 कुन्टल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होने के लिए यह जमीन से 73 किग्रा नेत्रजन, 36 किग्रा फास्फोरस तथा 68 किग्रा पोटाश लेता है। एक दूसरे अध्ययन के अनुसार प्याज की फसल भूमि 85 किग्रा नेत्रजन, 42 किग्रा फास्फोरस तथा 130 किग्रा पोटाश लेता है। साथ ही साथ पर्याप्त मात्रा में अन्य तत्व एवं सूक्ष्म तत्व भी अवशोशित किये जाते हैं।पौधों द्वारा इतनी मात्रा में निकाले गये स्थूल तत्वों को इसी अनुपात में इन्हें खेत में डाला जाना चाहिए। अब मुख्य प्रश्न यह है कि क्या हम इन सभी तत्वों की भरपायी करते हैं? नेत्रजन, फास्फोरस, पोटाश के अतिरिक्त प्याज को बड़ी मात्रा में इनकोे समिमलित नहीं किया गया है। गोबर की खाद, हरी खाद तथा उचित फसलचक्र से अधिकांश सूक्ष्म तत्व पोधों को उपलब्ध हो जाते हैं। हल्की रेतीली भूमि में गोबर की खाद कम देने से सूक्ष्म तत्वों की कमी दिखने लगती है। प्याज के अपेक्षित उत्पादन के लिए 20 से 25 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी तरह सड़ी हुर्इ गोबर की खाद देनी चाहिए। कम सड़ी हुर्इ गोबर की खाद से अनेक प्रकार की बीमारीयाँ आ सकती है। गर्मी के मौसम में गोबर की खाद खेत में फैलाने के बाद उसे हल चला कर जमीन में मिला देना चाहिए। वर्षा के शुरुवात में हैरो चलाने से गोबर की खाद डालने से उगे खरतपतवार नष्ट हो जाते हैं तथा खाद मिट्टी में अच्छी तरह विटीत होकर फसल के किलए उपलब्ध हो जाती है।

 यह सर्वविर्दित है कि प्याज काटते समय आँखों से अाँसू निकलते हैं। लेकिन ये आँसू के कारण निकलते हैं, इसकी जानकारी बहुत कम होती है। प्याज में गंधक के वाष्प्शील यौगिक होते हैं। काटने पर इन्हीं वाष्प्शील यौगिकों के विधटने के कारण आँखों से आँसू निकलते हंै। यह यौगिक प्रमुखत: Þएलाइल प्रोपार्इल डार्इ सल्फार्इडß कहलाता है। गन्धक के कारण प्याज की भण्डारण क्षमता भी बढ़ जाती है। यह प्रयोगों द्वारा सिद्ध हुआ है। अब तक सिफारिश किए गए उर्वरकों में गन्धक को समिमलित नहीं किया है। कुछ समय पहले तक प्याज के लिए सुपर फोस्फेट तथा अमोनयिम सल्फेट जैसे उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। इनमें क्रमश: फास्फोरस तथा नेत्रजन के अतिरिक्त पौधों को गन्धक भी मिल जाता है। लेकिन अब मिश्रित उर्वरकों का प्रयोग होने लगा है, जिनमें केवल नेत्रजन, फासफोरस तथा पोटाश होते हैं। अत: गन्धक की पूर्ति के लिए अलग से गन्धयुक्त उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक होने लगा है। 

14. जल प्रबंधन 

प्याज की जड़ें मिट्टी में 10 से 15 सें.मी. तक फैलती है ओर किसी भी अवस्था में 20 सें.मी. से गहरी नहीं जाती है। इसलिए प्याज की फसल की सिंचार्इ करते समय 15 सें.मी. से अधिक गहरार्इ तक पानी देने की आवश्यकता नहीं होती है। प्याज की पत्तियाँ अन्य फसल की पतियों जैसी न होकर गोलाकार नलीनुमा होती है, जिस पर मोम का आवरण होता है। इस कारण से तापमान में वृद्धि होने पर पर्णरन्ध्र बन्द होने के कारण वाष्पोत्सर्जन कम हो जाता है तथा बढ़ते तापमान का पौधों पर असर नहीं कम या नहीं होता है। पानी के समुचित नियमन के लिए पत्तियों की इस प्रकार की संरचना उपयोगी सिद्ध होती है। 

प्याज की फसल को शुरुवात में हल्का परन्तु कम अंतर पर पानी की आवश्यकता होती है। सुखे खेत में रोपार्इ के तुरन्त बाद सिंचार्इ की जानी चाहिए। नयी जड़े विकसित होने तक खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। इसलिए रोपार्इ के बाद की गर्इ सिंचार्इ के दो-तीन दिन बाद दूसरी सिंचार्इ की आवश्यकता होती है। एक बार पौधों को स्थापित हो जाने के बाद आरंभिक समय में पानी की आवश्यकता कम हो जाती है। परन्तु जैसे-जैसे पौधों की वृद्धि होती है। उनकी पानी की आवश्यकता बढ़ने लगती है। पौधों में गाँठ बनना आरंभ होने से कन्दों के पूर्ण विकास तक (रोपार्इ के 60 से 110 दिन तक) नियमित रुप से सिंचाइ्र की आवश्यकता हेाती है। इस अवधि में पानी की कमी होने से उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है  और प्याज अच्छे दर्जे से (क्वालिटी) का नहीं निकलता है । कन्दों के पोषण के दौरान नियमित सिंचार्इ की व्यव्स्था होनी चाहिए। अनियमित व कम सिंचार्इ से दुफाड़ कन्दों की संख्या बढ़ती है। उसके विपरीत प्रमाण से अधिक पानी दिनया जाए तो मोटी गर्दन वाले प्याज निकलते हैं और इनकी भण्डारण क्षमता कम हो जाती है। अधिक पानीे देने की अपेक्षा नियंत्रित तथा आवश्यक मात्रा में सिंचार्इ करने से उत्पादन मिलता है। साथ ही साथ कन्दों की गुणवत्ता अच्छी होती है तथा कन्दों की भण्डारण क्षमता भी बढ़ती है।  सिंचार्इ का अन्तराल फसल की वृद्धि की अवस्था, लगाने का मौसम, मिट्टी का प्रकार आदि बातों पर निर्भर करता है। मोटे तौर पर रोपार्इ के तुरन्त बाद एक सिंचार्इ की जाती है। इसके बाद मौसम के अनुसार रबी मौसम (नवम्बर से जनवरी) में 10 से 12 दिन के बाद सिंचार्इ की जाती है फरवरी से अप्रैल माह में 7 से 8 दिनों के अन्तराल पर सिंचार्इ की जानी चाहिए। खरीफ मौसम में वर्षा की मात्रा तथा मिट्टी की किस्म के अनुसार सिंचार्इ करनी चाहिए। साधारण तौर पर खरीफ फसल में 3 से 4 सिंचार्इ, पछेती खरीफ में 10 से 15 सिंचार्इ तथा रबी या गर्मी की फसल में 18 से 20 सिंचार्इ की आवश्यकता होती है। कन्दों की वृद्धि पूर्ण होने पर पत्तियाँ पीली पड़ने लगती है तथा पौधे गर्दन के पास मुड़कर परिपô  होने में सहायता मिलती है। फलस्रुप कन्द सुदृढ़ होते हैं, शल्क सूख जाते हैं तथा उखारते समय निकलते हैं।   

15. प्याज निकालना 

 किस्म एवं मौसम के अनुसार कन्दों के परिपô  होने पर नयी पत्तियाँ आनी रुक जाती है तथा भेाज्य पदार्थ पत्तियों से कन्दों में उतरकर उन्हें सुदृढ़ बना देते हैं।  पत्तियाँ पीली होने लगती है तथा पौंधे के गरदन के पास से कमजोर होकर गिरने लगते हैं। इसे ही प्याज की गरदन गिरना कहते हैं। साधारणत: 30 से 40 प्रतिशत पौधों की गरदन से पत्तियाँ गिरती है, परन्तु खरीफ मौसम में परिपôता के ये लक्षण दिखार्इ देते हैं तथा प्याज तैयार होने पर भी गरदन से पत्तियाँ नहीं गिरते हैं। इसके लिए खरीफ मौसम में प्याज निकालने का समय कन्दों के आकार तथा किस्म की अवधि के अनुसार निर्धारित किया जाता है। खरीफ मौसम में बाजार भाव के अनुसार भी प्याज निकाला जाता है।  पछेती खरीफ तथा रबी मौसम में प्याज एक साथ तैयार होती हैं। इन मौसमों की फसल को निकालने का कार्य फरवरी से मर्इ माह तक चलता है। इस समय पौधों की गरदन गिरने लगती है। तथा पचास प्रतिशत से अधिक पौधे गिर जाने पर प्याज को निकालना चाहिए। अधिक देर तक प्याज नहीं निकालने से पत्तियाँ सूखकर कमजोर हो जाती है तथा प्याज निकालते समय टूटने लगती है। फलस्वरुप उन्हें खुरपी या कुदान से निकालना पड़ता है और लागत बढ़ जाता है।  

16. प्याज सुखाना 

 प्याज को उखारने के बाद उन्हें पत्तियों समेत 3-4 दिनों तक खेत में रखकर सुखाना चाहिए। प्रत्येक क्यारी में प्याज को इस प्रकार रखना चाहिए कि पहली पंकित के प्याज के कन्द दूसरी पंकित के प्याज की पंकितयों से ढ़क जाये। इससे प्याज पर सीधा धूप नहीं पड़ती है और प्याज पर घूप से निशान नहीं बनते हैं। इस दौरान पंकितयों पूरी तरह सूख जाती है और प्याज का उपरी आवरण सूख कर पतला हो जाता है तथा धाव भर जाते हैं। प्याज पर लगी मिट्टी सूखकर गिर जाती है। तीन से चार दिन सूखने के बाद पंत्तियों को प्याज से 3-4 सें.मी. लम्बी गर्दन (डन्डी) छोड़ कर काटना चाहिए। अधिक नजदिक से पत्तियों को काटने से प्याज के उपरी भाग खुले रहते हैं। इससे रोग कारक (जैसे फफुंद व जीवाणु आदि) प्याज में आसानी से प्रवेश कर जोते हैं। फलस्वरुप प्याज भण्डारण में जल्दी सड़ने लगते हैं। इस प्रकार के प्याज में प्रस्फुटन की समस्या भी अधिक आती है। इसके विपरीत लम्बी गर्दन वाले प्याज में गर्दन सूखकर कटे भाग को बन्द कर देती है तथा ऐसे प्याज भण्डारण में अधिक समय तक टिके रहते हैं।  

 पतियाँ काटने के बाद प्याज का श्रेणीकरण किया जाता है। जोड़ (दुफाड़), तोर (फूल) आये तथा छोटे-छौटे कन्दों को निकाल कर खेत में ही अलग किया जाना चाहिए। अच्छे कन्दों को इकðा कर छायादार स्थान में ढ़ेरी लगाकर 10 से 15 दिनों तक रखना चाहिए। खरीफ मौसम में प्याज का भण्डारण नहीं किया जाता है। सितम्बर से नवम्बर तक प्याज के भाव बढ़ने से भण्डार गृहों में रखा हुआ प्याज लगभग समाप्त हो जाता है। इसके अतिरितक्त इस मौसम का प्याज तुरन्त बिक जाता है और भण्डारण की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसके अतिरिक्त इस मौसम के प्याज पत्तियाँ काटने के 2-4 दिनों में ही प्रस्फुटित होने लगते हैं, परन्तु अच्छे बाजार भाव के लिए कभी-कभी कुछ समय के लिए भण्डारण करना आवश्यक होता है। इसके लिए घाँस या टीन की चदरों का अस्थायी छप्पर बनाना चाहिए। खरीफ मौसम में प्याज निकालते समय कर्इ बार वर्षा आती रहती है। इसलिए प्याज को वर्षा से बचाने के लिए छप्पर की जरुरत होती है। यदि छप्पर नहीं हो तो कम से कम पौलीथीन की पन्नी से प्याज को ढ़कने की अस्थाीय व्यवस्था करनी चाहिए। रबी मौसम के प्याज को अस्थायी तौर पर छाया में रखा जाता है। परन्तु मर्इ-जून में निकाले जाने वाले प्याज के अस्थायी भण्डारण के लिए उचित व्यवस्था करनी चाहिए। क्योंकि इस मौसम में भी कर्इ बार बिना मौसम बारिश का खतरा रहता है। साथ ही साथ तेज र्गी से वनज में कमी भी अधिक होती है। 

17. श्रेणीकरण एवं पिणन 

 अच्छी तरह श्रेणीकरण करके एक समान प्याज को ग्राहकों तक पहँुचाने से अच्छे दाम मिलते हैं। खेत में सारे प्याज एक समान नहीं होते हैं। यह किस्म की उत्पादन क्षमता, मौसम, सिंचार्इ, खाद वह उर्वरक, रोग व कीट आदि कारकों का प्याज की वृद्धि पर होने वाले प्रभावों के परिणामस्वरुप होता है तथा इनकी गुणवत्ता भी समान नहीं होती है। ऐसी दशा में श्रेण्ीकरण आवश्यक होता हैं। दुफाड़, तोर वाले तथा बहुत छोटे कन्दों को निकालने के बाद प्याज को मुख्यत: तीन श्रेणीयों में श्रेणीकृत करना चाहिए। प्याज को आकार के अनुसार बड़े प्याज (6.0 सें.मी. व्यास से अधिक) , मध्यम (4 से 6 सें.मी. व्यास) तथा छोटे (2 से 4 सेें.मी. व्यास) श्रेणियों में श्रेणीकृत करना चाहिए। सामान्यत: तीन श्रेणीकरण मजदूरों द्वारा किया जाता है जिस कारण लागत अधिक आती है। साथ ही प्रत्येक मजदूर के श्रेणीकरण की क्षमता एवं अचूकता अलग-2 होती है। इस प्रकार दो श्रेणी में लगभग 30 प्रतिशत तक अंतर निशिचत ही पड़ता है। इन सभी बातों को ध्यान में रख कर हमारे केेंन्द्र मेंं श्रेणीकरण यंत्र विकसित किया है। इस संयत्र क्षमता के अनुसार हापर लगाया गया है जिसकी सहायकता से प्याज रोलर पर छोड़ा जाता ह। दो रोलर के बीज के अनुसार उसी आकार के प्याज इसमेंं से नीचे गिर जाते हेैं जिन्हें खाली क्रेट या जालिदार बोरियां में एकत्र किया जाता है। इस संयत्र में 25 मि.मी. से कम, 35 से 40 मि.मी., 40 से 60 मि.मी., 60 से 80 मि.मी., तथा 80 मि.मी. से अधिक आकार के प्याज का श्रेणीकरण किया जा सकता है  संयत्र में पहिए लगे होने के कारण इसे खेत में कहीं भी ले जाया जा सकता है। इस सयत्र में एक धंटे में एक मजदूर द्वारा 500 किलो प्याज का श्रेणीकरण किया जाता है जबकि हाथ से यह केवल 100 किलो प्रति व्यकित ही किया जा सकता है। हाथ से श्रेणीकरण करने पर दो श्रेणी में 22 प्रतिशत अंतर रहता है जबकि इस संयत्र से यह अंतर केवल 2 प्रतिशत ही होता है। इसका अर्थ यह है कि इस संयत्र द्वारा श्रेणीकरण करने से  5 गुला अधि क्षमता एवं 18 प्रतिशत अचूकता प्राप्त होती है। वर्तमान में विधुत मोटर चलित संयंत्र भी विकसित किया गया है। जिसकी क्षमता प्रति धंआ 2 टन है, अर्थात मजदूरो द्वारा श्रेणीकरण के तुलना में इस की क्षमता 20 गुना अधिक है। साधारणत: 4-6 सें.मी. व्यास वाले प्याज को बाजार में अच्छा भाव मिलता है। श्रेणीकरण करने के बाद बाजार भेजने के लिए 40 कि.ग्रा. की पैकिंग करनी चाहिए। इसके पतली बनार्इ जाने वाली जालीदार बोरे प्रयोग करने चाहिए। इन बोरों पर उत्पाद का प्रकार, किस्म तथा भेजने वाले का नाम व पता आदि स्पष्ट रुप से लिखना चाहिए। निर्यात के लिए जालीदार बोरे, महिन बुवार्इ वाले नार्इलोन या नेटलान के थैलों का भी प्रयोग किया जा सकता है। स्थानीय बाजार में बेचने के लिए या नेफेड के क्रय केंन्द्रों पर प्याज ले जाने के लिए बैलगाडि़यों या ट्रालीे में इसे खुला भेजा जाता है। अच्छी तरह श्रेणीकृत किया हुआ प्याज बाजार में भेजने से बाजार में अधिक मूल्य प्राप्त होता है।

18. प्याज का भण्डारण 

 भारतीय लोगों के दैनिक आहार में प्याज का एक आवश्यक भाग है। अन्य सबिजयाँ और फल मौसम के अनुसार उपलब्ध होते हैं तो भी चलता है परन्तु प्याज को किसी न किसी सब्जी के साथ उपयोग में लाया जाता है। इस कारण वर्षभर इसकी उपलब्धता आवश्यक है। प्याज सितम्बर-अक्टूबर (20:), फरवीर-मार्च (20:), अपै्रल-मर्इ (60:) में निकाला जाता है। इस प्रकार अक्टूबर से मर्इ तक देश में कहीं न कहीं प्याज निकाला जाता है। इसलिए इसकी उपलब्धता सहज तथा भाव कत होते हैं। जून से सितम्बर तक प्याज नहीं निकाला जाता है। खरीफ मौसम का प्याज बाजार में अक्टूबर में ही आ पाता है। यदि खरीफ की फसल खराब हो तो फरवरी में ही पछेती खरीफ फसल का प्याज आ पाता है। इस प्रकार जून से अक्टूबर और कभी-कभी फरवरी में पछेती ख्रीफ फसल आने तक प्याज की माँग की पूर्ति के लिए प्याज के भण्डारण की आवश्यकता होती है। महाराष्ट्र राज्य में 5 लाख टन से अधिक प्याज का भण्डारण किया जाता है। निरन्तर बढ़ती माँग तथा निर्यात को ध्यान में रखते हुए अगले 3-4 वषोर्ं में भण्डारण क्षमता 10 से 12 लाख टन तक बढ़ाना आवश्यक है। खरीफ मौसम का प्याज निकालने के तुरन्त बाद बिक जाते हैं। साथ ही साथ प्याज सुखाने योग्य मौसम तथा परिसिथती नहीं मिलने के कारण खरीफ के प्याज का भण्डारण भी नहीं किया जाता है। पछेती खरीफ में प्याज सुखाने योग्य परिसिथती मिलने के कारण भण्डारित किया जाता है जो कि रबी प्याज निकालने अर्थात अप्रैल-मर्इ तक ही लाभदायक है। मुख्य तौर पर रबी मौसम का प्याज ही भण्डारित किया जाता है। बदलते समयपर्यावरणीय दशाओं में खरीफ मौसम में प्याज की फसल अनिशिचत होने लगी है। ऐसी परिसिथतियों में रबी मौसम में तैयार तथा भण्डारित किये गये प्याज पर अधिक भरोसा किया जा सकता है। इसके अलावा स्थानीय बाजार में मूल्य सिथरता तथा निर्यात के लिए पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता के लिए अधिक से  अधिक मात्रा में प्याज का भण्डारण आवश्यकत है। 

 

organic farming: 
जैविक खेती: