मूंगफली की जैविक खेती

गरीबों का काजू' के नाम से मशहूर मूँगफली काजू से ज्य़ादा पौष्टिक है परन्तु मूँगफली खाने वाले यह नहीं जानते,मूँगफली में सभी पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं। मूँगफली खाकर हम अनजाने में ही इतने पोषक तत्व ग्रहण कर लेते हैं जिन का हमारे शरीर को बहुत फायदा होता है , आधे मुट्ठी मूगफली में 426 कैलोरीज़ होती हैं, 15 ग्राम कार्बोहाइड्रेट होता है, 17 ग्राम प्रोटीन होता है और 35 ग्राम वसा होती है। इसमें विटामिन ई, के और बी6 भी प्रचूर मात्रा में होती है। यह आयरन, नियासिन, फोलेट, कैल्शियम और जि़ंक का अच्छा स्रोत हैं।मूँगफली वानस्पतिक प्रोटीन का एक सस्ता स्रोत हैं। इसमें प्रोटीन की मात्रा मांस की तुलना में १.३ गुना, अण्डों से २.५ गुना एवं फलों से ८ गुना अधिक होती है। मूँगफली वस्तुतः पोषक तत्त्वों की अप्रतिम खान है। प्रकृति ने भरपूर मात्रा में इसे विभिन्न पोषक तत्त्वों से सजाया-सँवारा है। 100 ग्राम कच्ची मूँगफली में 1 लीटर दूध के बराबर प्रोटीन होता है। मूँगफली में प्रोटीन की मात्रा 25 प्रतिशत से भी अधिक होती है, जब कि मांस, मछली और अंडों में उसका प्रतिशत 10 से अधिक नहीं। 250 ग्राम मूँगफली के मक्खन से 300 ग्राम पनीर, 2 लीटर दूध या 15 अंडों के बराबर ऊर्जा की प्राप्ति आसानी से की जा सकती है। मूँगफली पाचन शक्ति बढ़ाने में भी कारगर है। 250 ग्राम भूनी मूँगफली में जितनी मात्रा में खनिज और विटामिन पाए जाते हैं, वो 250 ग्राम मांस से भी प्राप्त नहीं हो सकता है

जलवायु
मूँगफली की फसल उष्ण कटिबन्ध की मानी जाती है, परन्तु इसकी खेती शीतोष्ण कटिबन्ध के परे समशीतोष्ण कटिबन्ध  में भी, उन स्थानो  पर जहाँ गर्मी का मौसम पर्याप्त लम्बा हो, की जा सकती है  । जीवन काल में थोड़ा पानी, पर्याप्त धूप तथा सामान्यतः कुछ अधिक तापमान, यही इस फसल की आवश्यकताएं है । जहाँ रात में तापमान अधिक गिर जाता है, वहाँ पौधो  की बाढ़ रूक जाती है । इसी बजह से पहाड़ी क्षेत्रो  में 3,500 फिट से अधिक ऊँचाई पर इस फसल को  नहीं बोते है । इसके लिए अधिक वर्षा, अधिक सूखा तथा ज्यादा ठंड हानिकारक है। अंकुरण एंव प्रारंभिक वृद्धि के लिए 14 डि से.-15 डि से. तापमान का होना आवश्यक है। फसल वृद्धि के लिए 21-30 डि . से. तापमान सर्वश्रेष्ठ रहता है। फसल के जीवनकाल के दौरान सूर्य का पर्याप्त प्रकाश, उच्च तापमान तथा सामान्य वर्षा का होना उत्तम रहता है।  प्रायः 50-125 सेमी. प्रति वर्ष वर्षा वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए उपयुक्त समझे जाते है। पौधों की वृद्धि एंव विकास के लिए सुवितरित 37-62 सेमी. वर्षा अच्छी मानी जाती है। फसल पकने तथा खुदाई के समय एक माह तक गर्म तथा स्वच्छ मौसम अच्छी उपज एंव गुणों के लिए अत्यंत आवश्यक है।कटाई के समय वर्षा होने से एक तो  खुदाई  में कठिनाई  होती है, दूसरे मूँगफली का रंग बदल जाता है और  फलियो  में बीज उग आने  की सम्भावना रहती है । धूप-काल  का इस फसल पर कम प्रभाव पड़ता है । मूँगफली के कुल क्षेत्रफल का लगभग 88 प्रतिशत भाग खरीफ में और शेष भाग जायद मौसम में उगाया जाता है।

भूमि 

देश के बिभिन्न भागो में मूंगफली कि खेती बलुवर , बलुवर दोमट , दोमट और काली मिटटी पर सफलता पूर्वक कि जाती है परन्तु बलुवर दोमट भूमि मूंगफली के लिए सबसे उत्तम होती है भारी और कड़ी भूमि मूंगफली के लिए अनुपयुक्त होती है कड़ी मृदा होने पर फलियाँ अच्छी प्रकार से नहीं बढ़ पाती उसकी अधिक पैदावार 5.0 पि एच से ऊपर वाली भूमि में प्राप्त होती है मूंगफली कि अच्छी उपज के लिए भूमि हलकी होनी चाहिए और जिवांस पदार्थ प्रयाप्त मात्रा में होनी चाहिए भारी भूमियों कि अपेक्षा हलकी भूमियों कि मूंगफली का रंग अच्छा होता है छिलका पतला होता है और अधिक उपज देती है .

भूमि  की तैयारी

खेत में 10-15 से मी गहरी जुताई करना लाभदायक है खेत कि अधिक गहरी जुताई करने पर भूमि में मूंगफलियों का बनना अथवा अधिकालिन अधिक गहराई पर फलियों का बनना खुदाई के समय कठिनाई उत्पन्न करता है मृदा कि किस्म के अनुसार बिभिन्न क्षेत्रो में खेत कि तैयारी करते है जुताई करने के लिए भिन्न भिन्न क्षेत्रो में भिन्न भिन्न प्रकार के यंत्रो का प्रयोग करते है हलकी भूमियों में जुताई कि संख्या कम या भारी भूमियों में जुताई कि संख्या अधिक होती है मध्य भारत में प्रथम जुताई बक्खर से व बाद कि 5-7 जुताई से देसी हल व कल्टीवेटर से करते है खेत ग्रीष्म काल में अगर खाली है तो गर्मियों में खेत कि जुताई करके खुला छोड़ देना चाहिए जिन क्षेत्रो में बक्खर का प्रयोग नहीं किया जाता वंहा पर प्रथम जुताई मिटटी पलटने वाले हल से पहली फसल कटाने के तुरंत बाद ही करनी चाहिए जिन कृषको के पास उन्नत कृषि यंत्र जैसे हैरो आदि है तो उन्हें पहली वर्षा होने पर 2-3 बार हैरो चलाकर भूमि को - भुरभुरा करना चाहिए .

जलवायु

उष्ण कटिबंधीय पौधा होने के कारण इसे लम्बे समय तथा गर्म मौसम कि आवश्यकता पड़ती है , अंकुरण और प्रारंभिक बृद्धि के लिए 14-15 डिग्री सेल्सियस तापमान का होना आवश्यक है फसल के जीवन काल में प्रयाप्त सूर्यप्रकाश का उच्च तापमान तथा सामान्य वर्षा का होना अति उत्तम रहता है फसल के बृद्धि के लिए सर्वोत्तम तापमान 70-80 डिग्री फारेनहाईट होता है पाला पड़ने पर सम्पूर्ण फसल नष्ट हो सकती है मूंगफली कि खेती उन सभी स्थानों पर जहाँ 60 - 130 मी वार्षिक वर्षा होती है कि जाती है बहुत अधिक वर्षा भी मूंगफली से कि खेती के लिए हानिकारक होती है फसल के कटाई के समय स्वच्छ और तेज धुप होना अति लाभदायक होता है क्योकि इस अवस्था में उत्पाद भली भांति सुख जाता है तथा उत्पाद के गुण भी अच्छे होते है .

प्रजातियाँ 

प्राचीन काल से ही उन्नत बीज कृषि का एक आवश्यक अंग रहा है। मूँगफली की पुरानी किस्मों की अपेक्षा नई उडन्नत किस्मों की उपज क्षमता अधिक ह¨ती है और उन पर कीटों तथा रोगों का प्रकोप भी कम होता है। अतः उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग बुवाई के लिए करना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु एंव मृदा के अनुसार अनुमोदित किस्मों का उपयोग करना चाहिए।
मूँगफली की प्रमुुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
1.एके-12-24: मूंगफली की सीधे  बढने वाली यह किस्म 100-105 दिन में तैयार होती है । फलियो  की उपज 1250 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो  से 75 प्रतिषत दाना प्राप्त होते है । दानो  में 48.5 % तेल पाया जाता है । 
2.जे-11: यह एक गुच्छेदार किस्म है ज¨ कि 100-105 दिन में पककर 1300 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ उत्पन्न करने की क्षमता रखती है । खरीफ एवं गर्मी में खती करने के लिए उपयुक्त है । फलियो  से 75 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
3.ज्योति : गुच्छे दार किस्म  है जो की 105-110 दिन में तैयार होकर 1600 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ पैदा करने की क्षमता रखती है । फलियो  से 77.8 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो  में 53.3 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
4.कोंशल (जी-201): यह एक मध्यम फैलने वाली किस्म है जो कि  108-112 दिन में पककर तैयार होती है और  1700 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ पैदा करने की क्षमता रखती है । फलियो  से 71 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
5.कादरी-3:  यह शीघ्र तैयार ह¨ने वाली (105 दिन) किस्म है जिसकी उपज क्षमता 2100 किग्रा. प्रति हैक्टर है । फलियो  से 75 प्रतिशत दाना मिलता है और  दानो  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
6.एम-13: यह एक फैलने वाली किस्म हैजो  कि सम्पूर्ण भारत में खेती हेतु उपयुक्त रहती है । लगभग 2750 किग्रा. प्रति हैक्टर उपज क्षमता वाली इस किस्म की फलियो  से 68 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
7.आईसीजीएस-11: गुच्छेदार यह किस्म 105-110 दिन में तैयार होकर 2000 किग्रा. प्रति हैक्टर उपज देती है । इसकी फलियो  से 70 प्रतिशत दाना मिलता है तथा दानो  में तेल की मात्रा 48.7 प्रतिशत होती है ।
8.गंगापुरीः मूंगफली की यह गुच्छे वाली  किस्म है जो  95-100 दिन में तैयार ह¨ती है । फलियो  की उपज 2000 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो  से 59.7 प्रतिशत दाना प्राप्त हो ते है । दाने  में 49.5 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
9.आईसीजीएस-44: मूंगफली की  मोटे दाने वाली किस्म है । फलियो  की उपज 2500 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो  से 72 प्रतिषत दाना प्राप्त होते है । दाने  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
10.जेएल-24 (फुले प्रगति): यह एक शीघ्र पकने वाली (90-100 दिन) किस्म है । इसकी उपज क्षमता 1700-1800 किग्रा. प्रति हैक्टर ह¨ती है । दानो  में तेल 50-51 प्रतिशत होता है ।यह मध्यम सघन बढ़ने वाली चिकनी फल्लियो  वाली किस्म है ।
11.टीजी-1(विक्रम): यह किस्म 120-125 दिन में पककर तैयार ह¨ती है जिसकी उपज क्षमता 2000-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर ह¨ती है । दानो  में तेल की मात्रा  46-48 प्रतिशत पाई जाती है ।यह एक वर्जीनिया अर्द्ध फैलावदार किस्म है ।
12.आई.सी.जी.एस.-37: यह किस्म 105-110    दिन में तैयार ह¨ती है जिसकी उपज क्षमता 1800-2000 किग्रा. प्रति हैक्टर तक ह¨ती है । दानो  में 48-50 प्रतिशत तेल पाया जाता है । यह एक अर्द्ध फैलने वाली किस्म है ।

बोआई का समय  
 बोआई के समय का मूंगफली की उपज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है । बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होना चाहिए परन्तु अधिक नमी में भी बीज सड़ने की संभावना रहती है । खरीफ में मूँगफली की बोआई जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई के दूसरे सप्ताह तक की जानी चाहिऐ।  पलेवा देकर अगेती बोआई करने से फसल की बढवार तेजी से होती है तथा भारी वर्षा के समय फसल को नुकसान नहीं पहुँचाता है। वर्षा प्रारम्भ होने पर की गई बोआई से पौधो की बढ़वार प्रभावित होती है साथ ही खरपतवारों का प्रकोप तीव्र गति से होता है।
बीज दर एंव बोआई 
 बीज के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली मूँगफली पूर्ण रूप से विकसित, पकी हुई मोटी, स्वस्थ्य तथा बिना कटी-फटी होनी चाहिए । बोआई के 2-3 दिन पूर्व मूँगफली का छिलका सावधानीपूर्वक उतारना चाहिए जिससे दाने के लाल भीतरी आवरण को क्षति न पहुँचे अन्यथा बीज अंकुरण शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। एक माह से ऊपर छीले  गये बीज अच्छी तरह नहीं जमते । छीलते समय बीज के साथ चिपका हुआ कागज की तरह का पतली झिल्ली नहीं उतारना चाहिए क्योकि इसके उतरने या खरोच लगने से अंकुरण ठीक प्रकार नहीं होता है ।  
 बीज की मात्रा

अच्छी उपज के लिए यह आवश्यक है कि बीज की उचित मात्रा प्रयोग में लाई जाए। मूँगफली की मात्रा एंव दूरी किस्म एंव बीज के आकार पर निर्भर करती है। गुच्छे वाली किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेमी. रखनी चाहिए। ऐसी किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 सेमी. रखी जाती है और उनके लिए प्रति हेक्टेयर 60-80 किग्रा. बीज पर्याप्त होता है। दोनों प्रकार की किस्मों के पौधों की दूरी 15-20 सेमी. रखना चाहिए। भारी मिट्टि में 4-5 सेमी. तथा हल्की मिट्टि में 5-7 सेमी. गहराई पर बीज बोना चाहिए। मूँगफली को किसी भी दशा में 7 सेमी. से अधिक गहराई पर नहीं बोना चाहिए। अच्छे उत्पादन के लिये लगभग 3 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर होना चाहिए।

बोने की बिधि 

मूंगफली कि बुवाई के लिए निम्न लिखित बिधियाँ प्रचलित : है -

हल के पीछे  बोना

इस बिधि में देसी हल के पीछे बीजकि बुवाई 5-6 से मी गहरी कुण्ड में कि जाती है दो कुंदो के बिच का अंतरण आवश्यकता अनुसार रखते है .

डिबलर  बिधि

अधिको क्षेत्र पर बुवाई करने के लिए यह बिधि प्रयोगात्मक नहीं है कम क्षेत्रकी बुवाई के लिए बिज कि खुरपी या डिबलर कि सहायता से बुवाई करते है समय और श्रम कि आवश्यकता इस बिधि में अधिक पड़ती है .

सीड प्लान्टर  बिधि

अधिक क्षेत्रफल में कम समय में बुवाई करने के लिए यह बिधि अधिक उपयोगी है इस बिधि द्वारा बुवाई करने पर प्रति इकाई क्षेत्र खर्च भी अधिक आता है , बिज बोने के बाद पाटा चलाकर ढक देते है .

पौधों का अंतरण 

पौधों के अंतरण का फसल कि उपज पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है पक्तियों व पौधों के बीच रखे गए अंतरण पर मूंगफली कि जाती मृदा उर्बरता व बोने का समय आदि का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है गुच्छेदार सीधी बढ़ने वाली जातियों में अंतरण कम व फ़ैलाने वाली जातियों में अंतरण अधिक रखा जाता है .

1- गुच्छेदार जातियां : - 45 से मी गुणे 10 से मी .

2 - फैलकर चलने वाली जातियां : ---60 - से मी गुणा 10 से मी .

बोने की गहराई 

भारी मृदो में बुवाई 4-5 से मी गहराई पर व हलकी भूमियो में बुवाई 5-6 से मी कि गहराई पर करते है .

खाद एंव उर्वरक 
मूँगफली की अच्छी उपज लेने के लिए  भूमि में कम से कम 35-40 क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद  50 किलो ग्राम नीम की खली और 50 किलो अरंडी की खली आदि इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर खेत में बुवाई से पहले इस मिश्रण को समान मात्रा में बिखेर लें  इसके बाद खेत में अच्छी तरह से जुताई कर खेत को तैयार करें इसके उपरांत बुवाई करें |
दलहनी फसल होने के कारण इस फसल को फास्फोरस की अधिक आवश्यकता पड़ती है। यह जड़ों के विकास तथा लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि में भी सहायता होती है। इससे नत्रजन का संस्थापन भी अधिक होता है। मूँगफली के लिए 40-60 किग्रा. फास्फोरस प्रति हे. पर्याप्त होता है। इनका प्रयोग इस तरह से करना चाहिए, जिससे कि यह बीज के 3-5 सेमी. नीचे पड़े। इसके लिए उर्वरक ड्रिल  नामक यंत्र का प्रयोग किया जा सकता है।

सिंचाई 

सिंचाई और जल निकाश उत्तरी भारत में मूंगफली कि बुवाई वर्षा प्रारंभ होने पर करते है : अत सिंचाई कि बिशेष आवश्यकता नहीं होती है . दक्षिणी भारत में ग्रीष्म कालीन फसल में 10-15 दिन के अंतर पर सिंचाई कि आवश्यकता होती है गुच्छेदार जातियों में 8-10 व फैलने वाली जातियों में 10-12 सिंचाइयों कि आवश्यकता होती है खरीफ के फसल में सुखा पड़ने पर आवश्यकता नुसार 2-3 सिंचाई कर सकते है फलियों में दाने भरते समय भूमि में प्रयाप्त नमी होना आवश्यक है भारी वर्षा के कारण जब खेत में पानी इकठ्ठा होने लगे तो जल निकाश करना आवश्यक है .

खरपतवार

निराई गुड़ाई का मूंगफली कि खेती में बहुत अधिक महत्व है 15 दिन के अंतर पर 2-3 गुड़ाई निराई करना लाभदायक है गुच्छेदार जातियों में मिटटी चढ़ाना लाभदायक पाया गया है जब पौधों में फलियों के बनने का कि क्रिया प्रारंभ हो जाय तो कभी भी निराई गुड़ाई या मिटटी चढ़ाने कि क्रिया नहीं करनी चाहिए .

 कीट -

बिहार रोमिल सुंडी 

यह एक मध्यम आकार का किट है जिसके पंखो पर काले धब्बे होते है इसकी सुंडी नारंगी रंग कि होती है यह पट्टी कि उपरी सतह को खा जाती है जिससे पौधोंको भोजन बनाने कि क्रिया या प्रकाश संश्लेषण प्रभावित होता है और पौधा पूर्ण भोजन नहीं बना पता इसके कर्ण फसल को बड़ी हानी होती है यह किट कुछ दूसरी फसल और मूंगफली कि फसल पर जुलाई से अप्रैल तक प्रभावी होता है और फसलो को क्षति पहुचता है .

तम्बाकू की सुंडी 

यह सुंडी लगभग 4 से मी लम्बी होती है यह सुंडी काली और कुछ हरे काले रंग कि होती है इसका मौथ मध्यम आकार का काले भूरे रंग का होता है इसकी सुंडी हरी पत्तियों को खाती है और इस कारण से उत्पादन में बहुत हानी होती है .

सफ़ेद सुंडी 

यह भूमि के अन्दर जुलाई से सितम्बर तक क्रिया शील रहती है ये प्रारंभिक अवस्था में पौधों कि जड़ो को हानी पहुचाते है जिसके फलस्वरूप पौधे सुख जाते है .

दीमक -

यह मूंगफली का बहुत भयंकर किट है यह भूमि के अन्दर रहती है और पौधों कि जड़ो को खाती है .

रोग 

एन्थ्रेकनोज 

इस बीमारी के लक्षण पत्तियों और उनके डंठल पर देखने को मिलते है पत्तियां जगह जगह से पिली पड़ जाती है यह रोग अधिकतर उत्तर प्रदेश में देखा गया है .

कोलर रोट 

यह रोग अंकुरित बीजांकुर में अधिक लगता है और इस अवस्था में बहुत क्षति पहुचता है इसके बाद भी जो पौधे बचते है वह भी कमजोर हो जाते है यह बिज जनित , भूमि जनित रोग है उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए .

गेरुई 

यह पत्तियों कि निचली सतह पर गहरे भूरे रंग के धब्बे ऊपर सतह कि तुलना में अधिक पाए जाते है धब्बे प्रारंभ में हलके भूरे रंग के होते है फंफूद से यह बीमारी लगती है बीमारी रहित बिज उपचारित करके बोना चाहिए रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जला देना चाहिए .

जड़ बिगलन

यह एक बहुत हानिकारक बीमारी है और भारत वर्ष के मूंगफली उगाये जाने वाले सभी भागो में पाई जाती है यह रोग लगातार एक ही खेत में मूंगफली कि फसल लेते रहने से लग जाता है . यह रोग पौधों के अंकुरण के समय ही लगना प्रारंभ हो जाता है पौधे गिरने लगते है और फसल को बहुत क्षति पहुंचती है इसकी रोकथाम के लिएलगातार कई वर्षो तक एक खेत से मूंगफली कि फसल नहीं लेनी चाहिए अर्थात उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए इसके अतिरिक्त बिज को आर्गनिक बिधि से उपचार करना चाहिए और आर्गनिक खाद का इस्तेमाल करना चाहिए .

टिक्का रोग

यह एक सफ़ेद फंफूद द्वारा लगता है इसके द्वारा फसल को बहुत हानी होती है प्रारंभिक अवस्था में इस रोग के लक्षण निचे कि पत्ती पर दिखाई देता है इन पत्तियों पर गहरे धब्बे बन जाते है बाद में ये धब्बे गोल चकत्तों में बदल जाते है इन धब्बो का ब्यास 1-2 मिमी होता है और ये काले भूरे रंग के हो जाते है धब्बो कि संख्या निरंतर बढ़ती जाती है और जिसके कारण पत्तियां गिरने लगती है .

चारकोल सडन

यह बीमारी फंफूद से फैलती है तने पर मृदा तल के नजदीक लाल भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते है धब्बे तने पर ऊपर कि ओर और जड़ो में निचे कि ओर तेजी से बढ़ते है तथा शीघ्र ही पौधों कि मृत्यु हो जाती है रोग से प्रभावित पौधा को इकठ्ठा कर जला देना चाहिए गहरी जुताई आवश्यक है .

रोजेट या बिशाणु  रोग 

यह एक बिशाणु द्वारा उत्पन्न होने वाला रोग है यह बिशाणु एफिड द्वारा फैलाया जाता है इस रोग के प्रभाव से पौधे बौने रह जाते है तथा इसका रूप रोजेट जैसा होजाता है पौधे पीले पड़ जाते है और मोजैक जैसा रूप दिखाई देने लगता है .

रोग और किट नियंत्रण या उपचार 

नीम कि ताजी हरी पत्ती 25 किलो ग्राम तोड़कर अच्छी तरह से कुचल कर 50 लीटर पानी में पकाना चाहिए जब पानी 20-25 किलोग्राम रह जाय उतार कर , ठंडा कर किसी बर्तन में सुरक्षित रख लेना चाहिए जब रोग या किसी भी प्रकार के किट का आक्रमण हो 200 लीटर पानी में 5 लीटर नीम का पानी और तो 10 लीटर गौ मूत्र अच्छी तरह मिलकर पम्प द्वारा प्रति एकड़ तर बतर कर छिड़काव करते रहना चाहिए जब तक रोग या किट का प्रकोप पूरी तरह से ख़तम न हो जाय . भूमि जनित और बिज जनित रोगों के लिए या किट पतंगों जैसे दीमक आदि के लिए आर्गनिक बिधि से बीजोपचार करना चाहिए और रासायनिक खाद छोड़ आर्गनिक खाद का उपयोग करना चाहिए

बीजउपचार 

 5  लीटर देसी गाय का मूत्र में बिज भिगोकर 2-3 घंटे बाद सूखने पर बुवाई करे .

देसी गाय का मट्ठा 5 लीटर लेकर 15 चने के आकार के बराबर हिंग लेकर पिस कर अच्छी तरह मिलाकर घोल बनाना चाहिए इस घोल को बीजो पर डाल कर भिगो देना चाहिए 2-3 घंटे बाद सुख जाने परबुवाई करे यह घोल एक एकड़ के लिए पर्याप्त है .

खेत में दीमक का प्रकोप होने पर केरासिन तेल से बीजउपचारित कर बुवाई करे .

साधारणतया छोटी फलियों वाली जातियां जैसे स्पैनिश आदि कि बुवाई फलियों को छीलकर दाने को बिज के रूप में प्रयोग किया जाता है अनुसंधानों के आधार पर यह पाया गया है फलियों का सीधा खेत में बोने पर बिज कि मात्रा प्रति इकाई क्षेत्र अधिक पड़ती है क्योकि फलियों कि बुवाई करने पर बिज का अंकुरण देर में होता है व पूरी कि पूरी फली नष्ट हो जाती है मृदा में प्रयाप्त नमी होने पर फलियों को बिज के रु में प्रयोग किया जाता है फलियों को बिज के रूप में लाने के लिए निम्नलिखित क्रियाये करना आवश्यक है : -

- 1 फलियों के छिलके को हलके दबाव से तोड़ना चाहिए जिससे कि दाने न टूट पायें व बिज को टूटे हुए छिलके के अन्दर ही बना रहने देना चाहिए .

- 2 बुवाई के पहले फलियों को 14 घंटे तक पानी में भिगोना चाहिएजिससे कि फलियाँ प्रयाप्त मात्रा में पानी या नमी का शोषण कर सके मूंगफली के दाने को बिज के रूप में प्रयोग करने से पहले फलियों से बाहर निकलना पड़ता है फलियों के दाने कि बुवाई से 1-2 पहले निकाल लेना चाहिए अधिक दिन पहले दानो को फलियों से बाहर निकालने पर भी दानो का अंकुरण क्षमता कम हो जाती है फलियों से दाने निकालने का कार्य अपने देश में अधिकांस रूप में हाथ से कियाजाता है फलियों से दाने निकलते समय यह ध्यान दिन रखना आवश्यक है कि दाने के ऊपर स्थित लाल छिलके पर किसी प्रकार का घात न आये लाल छिलके नष्ट होने पर भी बिज का अंकुरण शक्ति नष्ट हो जाती है बोने से पूर्ब 12-14 घंटे तक फलियों से निकले दाने को भी पानी में भिगोकर रखने से अंकुरण प्रतिशत बढ़ाती है और शीघ्र अंकुरण होता है अंकुरण इस अवस्था में और बाद में फसल पर बिज से उत्पन्न होने वाली बिमारियों का प्रकोप होता है - कभी कभी बिज अंकुरण से पहले ही सड़ कर नष्ट हो जाता है बुवाई से पहले बिज का उपचार उपरोक्त बिधि से कर लेना चाहिए .

कटाई - मड़ाई -

अधिक उपज और तेल कि मात्रा प्राप्त करने के लिए फसल कि उचित समय पर कटाई करना लाभदायक है अधपकी फसल को काटने पर उपज एवं तेल के गुणों में कमी आ जाती है मूंगफली के पौधों में फुल एक साथ न आक़र धीरे धीरे बहुत समय तक आते है गुच्छेदार जातियों में दो महीने तक व फैलने वाली जातियों में तिन महीने तक फुल आते रहते है दोनों जातियों में फलियों के बिकास के लिए दो माह का समय आवश्यक है खुदाई के के समय सभी फलियाँ पूर्ण रूप से पकी हुई नहीं होती : अत फसल कि खुदाई के समय ध्यान रखने योग्य बात यह है खुदाई ऐसे समय पर ही करे जब अधिकतर फलियाँ पक जाय देर से खुदाई करने पर पर जिन जातियों में सुषुप्ता अवस्था नहीं होती वे खेत में नमी मिलने पर : पुन अंकुरण कर सकती है इन जातियों में पौधों से पत्तियां गिर जाती है व पौधा सुख जाता है जब पौधे पीले पड़ जाय व अधिकांस पत्तियां गिर जाय तभी फसल कि कटाई करनी चाहिए फसल कि पूर्णतया परिपक्वता पर मृदा की किस्म मृदा में नमी कि मात्रा जलवायु व फसल कि जाती का प्रभाव पड़ता है सामान्य परिस्थितियों में अगेती जातियां 105 दिन पछेती जातियां 135 दिन तक कट जाती है बिभिन्न अवस्थाओ में फसल पकने की तथा खुदाई कि उपयुक्त अवस्था ज्ञात करने के लिए बनस्पति भागो को देखकर जब यह संभावना लगने लगे कि फसल पक गयी है तो कुछ दिनों के अंतर पर खेत से कुछ पौधे उखाड़ कर समय समय पर फसल के पकने का निरिक्षण करना चाहिए जब प्रति पौधे से अधिक से अधिक मात्रा में पूर्ण बिकसित तथा परिपक्व फलियाँ प्राप्त हो तभी फसल कि कटाई करनी चाहिए पौधों और फलियों में निम्नलिखित लक्षण प्रकट होने पर फसल के पकने का अनुमान लगाया जाता : है

पौधों कि पत्तियां पीली पड़ कर सूखने लगती है .

पौधे मुरझा कर गिरने लगते है .

फलियों के छिलके का रंग सुनहरा हो जाता है .

फलियों के दाने के ऊपर का छिलका अधिक चमकदार रंग का हो जाता है .

फलियों के छिलके कि सतह पर कुछ जातियों में धारियां अच्छी प्रकार दिखाई देने लगती है .

अपरिपक्व फलियाँ अँगुलियों से दबाने पर शीघ्र टूटती है . लेकिन परिपक्व फलियाँ दबाने पर आसानी से नहीं टूटती .

 कुछ जातियों के फलियों में पकाने पर छिलके कि अन्दर कि सतह पर काले धब्बे पड़ जाते है उपरोक्त लक्षण के स्पष्ट होने पर फसल कि खुदाई कर लेनी चाहिए फसल कि खुदाई हाथ से पौधों को उखाड़ कर देसी हल चलाकर या ब्लड हैरो से करते है खुदाई का कार्य अपने देश में श्रमिको द्वारा अधिकतर किया जाता है मशीनो से खुदाई करने का प्रचलन हमारे देश में अभी तक नहीं है हाथ से खुदाई करना या पौधों को उखाड़ना गुच्छेदार जातियों में लाभदायक है क्योकि इसमे फलियाँ जमीन के सतह के करीब बनती है हाथ से खुदाई कराते समय मृदा में नमी का होना आवश्यक है जिससे कि पौधे आसानी से उखाड़े जा सके फ़ैलाने वाली जातियों में फलियाँ निचे भूमि में गहरे तक बनती है इनकी खुदाई में अधिक श्रम कि आवश्यकता पड़ती है : अत इन जातियों कि खुदाई हल चलाकर लेते है कुछ स्थानों पर फावड़े से पौधों को उखाड़ कर फलियाँ अलग कर लेते है दक्षिणी भारत में कुछ स्थानों पर फसल कि पत्तियाँऔर तना पहले तोड़ लिया जाता है तथा खेत में प्रयाप्त पानी भरकर कई बार हल चला दीया जाता है इस प्रकार फलियाँ हलकी होने के कारण पानी में ऊपर तैरने लगती है इन तैरती हुयी फलियों को खेत में एकत्रित कर लिया जाता है फलियों को पौधों से अलग करने से पूर्ब उन्हें एक सप्ताह तक सुखाना चाहिए अधिक नमी वाले फलियों के गुणों में कमी आ जाती है : अत फलियों को तब तक सुखाना चाहिए जब तक फलियों में 9-10 % तक नमी रह जाये बीजो के लिएफलियों को अच्छी प्रकार सुखाना चाहिए तथा बिज को फली में ही रहने देना चाहिए .

उपज 

मूंगफली में फसल कि उपज बिभिन्न परिस्थितियों के अनुसार 10-12 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक पाई जाती है गुच्छेदार जातियां 8-10 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक व फ़ैलाने वाली जातियां 12 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है सिंचित क्षेत्रो में सभी मृदा व जलवायु कि परिस्थितियाँ अनुकूल होने 30 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज होती है 70% मूंगफलीसे बिज और तेल 40% तक प्राप्त होता है पर .

भण्डारण 

मूंगफली के फलियों का संग्रह गोदामों में ही करना चाहिए बीजो को फलियों से निकाल कर संग्रह करने पर बीजो के गुण में कमी आती है संग्रह के समय फलियों 5% से अधिक नमी नहीं होनी चाहिए उच्च ताप पर संग्रह से करने से सुषुप्तावस्था कि अवधी में  बृद्धि  होती है .

organic farming: 
जैविक खेती: