मृदा उर्वरता बनाए रखने के लिए हरी खाद का उपयोग

हरी खाद की प्रक्रिया पर लंबे समय से चल रहे प्रयोगों व शोध कार्यों से सिद्ध हो चुका है कि हरी खाद का प्रयोग अच्छे व निरोगी फसल उत्पादन के लिए बहुत उपकारी है। भारत में हरी खाद के अंतर्गत 49.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल है। हरी खाद के लिए मुख्य रूप से दलहली फसलें उगाई जाती हैं। इसकी जड़ों में गांठें होती हैं। इन ग्रंथियों में विशेष प्रकार के सहजीवी जीवाणु रहते हैं जो वायुमंडल में पाई जाने वाली नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करके मृदा में नाइट्रोजन की पूर्ति करते हैं। इस प्रकार से स्पष्ट है कि दलहनी फसलें मृदा की भौतिक दशा को सुधारने के अलावा उसमें जीवांश पदार्थ एवं नाइट्रोजन की मात्रा भी बढ़ाती हैं। दलहनी फसलें खरपतवारों को नियंत्रित करने में भी सहायक हैं। हरी खाद का उपयोग करने वाले अग्रणी राज्य आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, प. बंगाल, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, पंजाब और हरियाणा हैं। इनके अतिरिक्त अन्य राज्यों में सीमित रूप में हरी खाद का प्रयोग होता है।
हरी खाद मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है-
 

हरी पत्तियों वाली हरी खाद

इसमें दूसरी जगह से पेड़-पौधों और झाड़ियों की हरी पत्तियों को एकत्र करके अन्य खेत में समान रूप से फैलाकर हैरो अथवा मिट्टी पलट हल से मिटटी में दबा दिया जाता है। यह कार्य मुख्य रूप से भारत के दक्षिणी और केंद्रीय भाग में होता है।
 

फसल को खेत मे उगाकर पलटना

हरी खाद- इस विधि में जिस खेत में हरी खाद वाली फसलें उगाई जाती हैं उसी खेत में उपयुक्त नमी में पुष्पावस्था पर मिट्टी पलट हल से मिटटी में दबा दिया जाता है। कभी-कभी हरी खाद को व्यावसायिक फसलों के बीच में उगाकर खाद के रूप में प्रयोग करते हैं। इससे व्यावसायिक फसल का उत्पादन कम मिलता है परंतु मृदा की उर्वराशक्ति का ह्रास नहीं होता है। साथ ही खरपतवारों की संख्या में कमी होती है और मृदा कटाव भी नियंत्रित रहता है।
 

हरी खाद के लाभ

जीवांश पदार्थ को बढ़ाना और मृदा संरचना को सुधारना- यह निम्नलिखित सस्य क्रियाओं पर निर्भर होता है जैसे उगाई जाने वाली फसल का प्रकार, सिंचाई का पानी, मृदा की प्रकृति और प्रकार, प्रकाश काल, पौधों की आयु, पोषक तत्वों की पूर्ति और टीकाकरण एवं कुल बायोमास आदि। औसतन, हरी खाद के प्रयोग से मृदा में काफी मात्रा में जीवांश पदार्थ की वृद्धि होती है। साथ ही मृदा संरचना में भी सुधार होता है।

नाइट्रोजन यौगिकीकरण- यह भी निम्नलिखित सस्य क्रियाओं पर निर्भर होता है। इसमें उगाई जाने वाली दलहन फसल की आयु, नाइट्रोजन, उत्पादित कुल बायोमास, फसल की प्रकृति, मृदा का पीएच एवं वातावरण की दशा, सस्य क्रियाएं और फसल की स्थिति इन सभी का सघन तालमेल हो जाए तो नाइट्रोजन यौगिकीकरण अवश्य अच्छा होता है। अन्यथा पौधों की संख्या कम होना, देर से बुवाई करना और सूखा होने पर नाइट्रोजन यौगिकीकरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मुख्य रूप से नाइट्रोजन यौगिकीकरण मृदा की उर्वरता, पानी की उपलब्धता और हरी खाद वाली फसल की किस्म पर निर्भर होता है। 

सबसे जल्दी कम समय में नाइट्रोजन यौगिकीकरण करने वाली मुख्य फसल है। इसे धान की रोपाई से पूर्व ऊंचे एवं नीचे स्थानों पर उगा सकते हैं। यह मृदा उर्वरता को अति शीघ्र बढ़ाती है। साथ ही नाइट्रोजन की आपूर्ति भी अगली फसल को बढ़ाती है जिससे उगाई जाने वाली फसल में कीटों एवं बीमारियों का प्रकोप कम होता है। मृदा में जलधारण क्षमता बढ़ती है परिणामस्वरूप फसल का उत्पादन बहुत अच्छा मिलता है।

सूक्ष्म मृदा जीवों की क्रियाशीलता बढ़ना- इसमें ताजा हरी खाद की फसल मृदा में मिट्टी पलट हल से दबाने पर सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता तीव्र हो जाती है जिससे हरी खाद वाली फसल जल्दी गल-सड़ जाती है और अगली फसल को नाइट्रोजन की आपूर्ति हो जाती है। मृदा में सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता मृदा में नाइट्रोजन-कार्बन अनुपात, मृदा तापक्रम, मृदा में नमी और पौधों की आयु व प्रकार पर निर्भर करती है। इस प्रकार हरी खाद वाली फसल को गलाने-सड़ाने में तीव्रता लाने के लिए मृदा में जैविक पदार्थ और कार्बन-नाइट्रोजन का अनुपात 15:1 और 25:1 के मध्य होना अति आवश्यक है।

मृदा में पहले से उपस्थित पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढ़ाना- नाइट्रोजन की आपूर्ति के अतिरिक्त दलहनी फसलें अन्य मुख्य पोषक तत्वों को पुनःचक्रीय अवस्था में लाने में सहायक हैं जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, मैग्नीशियम, सल्फर एवं सूक्ष्म पोषक तत्व हरी खाद वाली फसलों द्वारा फसल अवधि के दौरान संचित होते हैं। जब हरी खाद वाली फसल को मृदा में मिला दिया जाता है अथवा मृदा सतह पर गिरा दी जाती है तो जैसे-जैसे सड़ने की प्रक्रिया आरंभ होती है वैसे-वैसे पोषक तत्व अगली फसल को प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं और जैविक पदार्थ के सड़ते समय कार्बनिक और अन्य प्रकार के अम्ल (एसिड) बनते हैं। इसी समय उपलब्ध फास्फोरस और पोटाश तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता अगली फसल के लिए होती है।\

मृदा के भौतिक गुणों में सुधार- हरी खाद मुख्य रूप से मृदा के भौतिक गुणों को सुधारने में बहुत लाभकारी होती है। मृदा के भौतिक गुण जैसे मृदा संरचना एवं रचना, नमी धारण की क्षमता तथा पोषक तत्वों की सघनता आदि। इसके अलावा मृदा के भौतिक गुण जैसे वायुसंचार, रंध्रावकाश, अपधावन क्षमता, हाईड्रोलिक कंडक्टीविटी आदि को बनाए रखने में भी सहायक है।

खरपतवारों का दबना (घटाव)- हरी खाद वाली फसलों की सघनता अधिक होने से खरपतवारों का नियंत्रण होता रहता है। इसके अलावा पौधों द्वारा उत्पादित एलोपैथिक रसायनों के प्रभाव को भी कम करती है। हरी खाद उगाने वाले मौसम में पौधों के बीच प्रकाश, नमी एवं पोषक तत्वों को ग्रहण करने की प्रतिस्पर्धा भी रहती है जिससे मृदा के भौतिक गुणों में सुधार होता है जोकि अगली फसल की उपज बढ़ाने में बहुत लाभकारी है।

मृदा और जल संरक्षण- हरी खाद की फसल मृदा का संरक्षण करने में बहुत लाभकारी है तथा बिना फसल उगाए भी मृदा का कटाव रोकने अथवा बचाने में सहायक है। हरी खाद मृदा में रासायनिक अथवा यांत्रिक प्रकार से पानी के अपधावन को कम करने में भी सहायक है। विद्वानों के अनुसार मृदा सतह से वाष्पोत्सर्जन भी कम करने में सहायक है और वर्षाकाल में मृदा पर पपड़ी बनना रोकती है तथा पानी का मिट्टी में संचय बढ़ता है।

फसल उपज में बढ़ोतरी- हरी खाद के उपयोग से अगली फसल की वृद्धि और उत्पादन पर अध्ययन किया गया। हरी खाद के बाद धान उगाने पर बहुत लाभ मिलता है। इसके अलावा हरी खाद गेहूं, गन्ना और कपास की उपज बढ़ाने मे सहायक है।
 

हरी खाद वाली फसलों का प्रबंध

फसल का चुनाव- फसलों का चुनाव करते समय मुख्य रूप से दो बातों का ध्यान रखें। गर्म जलवायु के लिए चुनाव- सनई, ढ़ैंचा, सोयाबीन, लोबिया, अरहर और ठंडे मौसम के लिए- बरसीम, रिजका, सैंजी एवं घास आदि।

हरी खाद वाली फसलों का चुनाव करते समय निम्नलिखित बिंदुओं को ध्यान में रखें-

1. फसल अधिक वानस्पतिक वृद्धि वाली हो और मृदा की सतह को अधिक से अधिक ढक सके।
2. अधिक मात्रा में हरा पदार्थ प्रदान करने वाली हो। 
3. पोषक तत्वों को पुनःचक्रीय अवस्था में लाने की क्षमता रखती हो।
4. प्रक्षेत्र और फसल का प्रबंधन आसान हो।
5. बीमारियों और कीटों के प्रति अवरोधक हो। 
6. जड़ों की वृद्धि और विकास सुनिश्चित हो। 
7. बहुद्देशीय एवं उपयोगी हो। 
8. सूखा सहन करने की क्षमता रखती हो। 
9. उर्वरता को सहन कर अधिक वृद्धि करने में सक्षम हो। 
10. अच्छा बीज उत्पादन देने की क्षमता रखती हो। 
11. दलहनी वंशानुकुल की हो और प्रतिकूल मौसम को सहन कर सकती हो।
12. प्राकृतिक रूप से पुनः अंकुरित/बुआई योग्य हो। 
13. बीज प्रतिकूल परिस्थिति में भी अंकुरित होने की क्षमता रखता हो।

जुताई- वर्षा के मौसम में वर्षा आधारित क्षेत्रों में जहां पर हरी खाद की फसल उगाना चाहते हैं दो जुताई पर्याप्त रहती हैं। तथा परंपरागत विधि से उगाने पर एक जुताई व दो जुताई/पलटाई हैरो से करना पर्याप्त रहता है। नमक प्रभावित क्षेत्रों में (मृदाओं) दो-तीन जुताई करके पाटा चलाकर खेत समतल करना आवश्यक है।

बुवाई की विधि- ढ़ैंचा अथवा सनई जैसी हरी खाद वाली फसल की बुवाई छिटकवां विधि से कर सकते हैं। इससे पहले 10-12 घंटे बीज को भिगाने से बुवाई करने पर अंकुरण अति शीघ्र होता है बशर्ते कि बीज मृदा में अच्छी प्रकार से चिपक जाना चाहिए। भारत के पश्चिमी भाग में धान के साथ शुष्क बुवाई के लिए ढ़ैंचा/सनई का बीज 30-35 किग्रा/हेक्टेयर पर्याप्त रहता है। इसके अलावा हल से भी बुवाई कर सकते हैं। ऐसे में पाटा अवश्य लगाना चाहिए। छिटकवां विधि की अपेक्षा पंक्तियों में बुवाई करना अधिक लाभदायक रहता है।

बुवाई का समय- वर्षाकालीन मौसम का लाभ लेने के लिए मानसून के आने से पूर्व शुष्क बुवाई कर सकते हैं और वर्षा आधारित क्षेत्रों में भी वर्षा के आरंभ होने से पूर्व बुवाई करना लाभदायक रहता है। इसके अतिरिक्त उत्तरी भारत में वर्षा आधारित क्षेत्रों में हरी खाद वाली फसलों की बुवाई जुलाई के शुरू में कर सकते हैं। ग्रीष्मकाल में सिंचाई की सुविधा होने पर मध्य अप्रैल से मध्य मई तक बुवाई कर सकते हैं।

बीज दर- हरी खाद वाली फसलों की वृद्धि एवं विकास के लिए उच्च बीज दर रखने की संस्तुति की गई है। सामान्य दशा में बुवाई के लिए ढ़ैंचा व सनई की बीज दर 50 किग्रा/हेक्टेयर पर्याप्त रहती है जबकि नमक प्रभावित मृदाओं में जहां अंकुरण क्षमता कम होने की संभावना हो उच्च बीज दर रखना लाभकारी रहता है और दूसरी हरी खाद वाली फसलों की बीज दर 40-50 किग्रा/हेक्टेयर पर्याप्त रहती है।

टीकाकरण- हरी खाद वाली दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रंथियां (गांठें) होती हैं जो नाइट्रोजन यौगिकीकरण करने में सहायक हैं। इसके अलावा अनेक विद्वानों ने अपने शोध में पाया है कि हरी खाद वाली फसलों के बीज को राईजोबियम के टीके से उपचारित करके बोने से जड़ों में गांठों की संख्या में बढ़ोतरी होती है जिससे वायुमंडल से नाइट्रोजन यौगिकीकरण अधिक होता है। इससे कुल मिलाकर अगली फसल के उत्पादन में बढ़ोतरी मिलती है विशेष रूप से जिन खेतों में पहले कभी भी हरी खाद की फसल नहीं उगाई गई। ऐसी स्थिति में उन खेतों में बुवाई से पूर्व बीज को राईजोबियम जीवाणु उर्वरक खाद के टीके से उपचारित करके ही बोना चाहिए, इससे बहुत लाभ मिलता है। जिन मृदाओं में सुधार के लिए जिप्सम का प्रयोग किया जाता है ऐसे में भी राईजोबियम टीके का उपज बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान होता है।

उर्वरक उपयोग- हरी खाद की फसल को परंपरागत तरीके से उगाने पर बुवाई के समय 15-25 किग्रा/हेक्टेयर नाइट्रोजन और 30-45 किग्रा/हेक्टेयर फास्फोरस देना लाभदायक है।

सिंचाई- वर्षा आधारित क्षेत्रों में हरी खाद की फसलों को वर्षा ऋतु में उगाया जाता है। अतः इन क्षेत्रों में सिंचाई की उपलब्धता नहीं होती और न ही प्रायः आवश्यकता पड़ती है। ग्रीष्मकालीन हरी खाद वाली फसलों में आवश्यकतानुसार 2-3 सिंचाई करनी चाहिए।

मृदा पलटते समय फसल की आयु- अधिकतम लाभ लेने के लिए हरी खाद की फसल की किस अवस्था पर खेत में जुताई करें, यह एक मुख्य बिंदु है। कुछ विद्वानों के अनुसार मृदा में पलटाई का समय पुष्पावस्था अच्छा माना गया है। यह अवस्था बुवाई के लगभग 8 सप्ताह बाद आ जाती है। ढ़ैंचा की 8 सप्ताह बाद अधिकतम वानस्पतिक वृद्धि हो चुकी होती है जबकि सनई 60-70 दिन में पलटने योग्य हो जाती है। वैज्ञानिकों का मत है कि सामान्यतः हरी खाद की सभी फसलें 7-8 सप्ताह में जुताई योग्य हो जाती हैं। इससे धान-गेहूं को अधिकतम लाभ मिलता है जिसके फलस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होती है।

पलटाई/जुताई की विधि- खड़ी फसल को पहले पाटा चलाकर मृदा पर गिरा दिया जाता है। इसके बाद तवेदार हैरो/मिट्टी पलट हल से काटकर खेत को 15-25 दिन के लिए छोड़ दिया जाता है। यह कार्य बैलचालित यंत्र से भी कर सकते हैं। यदि हरी खाद वाली फसल के डंठलों की 25 सेमी के टुकड़ों में काटने वाले यंत्र से पलटाई करें तो खास लाभ मिलता है। ऐसा करने से फसल के सड़ने-गलने में कम समय लगता है। ध्यान रहे कि पलटाई उपयुक्त नमी, गहराई पर ही करें।

पलटाई /जुताई की गहराई- तीन वर्ष के अध्ययन से प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो चुका है कि हरी खाद की फसलों की पलटाई की गहराई 10-15 सेमी होनी चाहिए। उथली पलटाई की अपेक्षा गहरी पलटाई अपेक्षाकृत अधिक लाभदायक रहती है।

मृदा में पलटने और फसल बोने के बीच समय- अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए हरी खाद की फसलों की पलटाई और अगली फसल की बुवाई के बीच समय 15-25 दिन होना चाहिए। जुलाई के शुरू में बोई गई फसल सितम्बर तक अवश्य पलट देनी चाहिए इससे अक्टूबर-नवम्बर में बोई जाने वाली गेहूं की फसल को अच्छी प्रकार पोषक तत्वों की आपूर्ति हो जाती है।

कुल मिलाकर मृदा की उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का विशेष महत्व है। इसके उपयोग से मृदा में जैव पदार्थ की मात्रा में वृद्धि होती है जो अंततः मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणधर्मों में अच्छे परिवर्तन लाने में सहायक है। दलहनी फसलों का प्रयोग करने से अगली फसलों को नाइट्रोजन उर्वरक की कम मात्रा की आवश्यकता होती है और साथ ही उसकी पैदावार में भी वृद्धि होती है। हालांकि हरी खाद के अनेक लाभ हैं परंतु किसानों द्वारा इसका प्रयोग वृहद् स्तर पर नहीं हो पा रहा है। इसका मुख्य कारण है इसके लाभ उनको प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं पड़ते और न ही कोई आमदनी मिलती है। अतः जहां तक संभव हो हरी खाद की फसलों को उगाकर मृदा को सुरक्षित रखा जाए और अगली फसलों से अधिकाधिक पैदावार ली जाए।

(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के सस्य विज्ञान संभाग में कार्यरत हैं।)

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