कृषि क्षेत्र के तीन घटकों में महत्वपूर्ण है ‘पशुधन’

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पिछले एक दशक के दौरान अनेक विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए पशुधन व्यवसाय ने भारतीय कृषि व अर्थ व्यवस्था में व्यापक योगदान दिया है। इसके माध्यम से बड़ी संख्या में रोजगार का सृजन भी हुआ है । इसमें निहित संभावनाओं के पूर्ण दोहन के लिए आवश्यक है कि इसे प्राथमिकता वाले क्षेत्र में सम्मिलित किया जाए ।

भारत के नीति निर्माताओं ने पिछले एक दशक से कृषि क्षेत्र में आ रहे बदलाव को अंतत: स्वीकार कर लिया है । आज पशुधन का आर्थिक योगदान खाद्यान्नों से अधिक हो गया है । पारम्परिक तौर पर कृषि क्षेत्र के तीन घटक फसलें, पशुधन एवं मछलियों की पैदावर वृध्दि में योगदान करते हैं और खाद्यान्न का हिस्सा इनमें प्रमुख होता है । इसके परिणामस्वरूप सारी नीतियां और कार्यक्रम इसी पर केन्द्रित होते हैं । जब वर्ष 2002-03 में खाद्यान्नों के बजाय पशुओं का आर्थिक योगदान अधिक हो गया तो इस पर नीति निर्माताओं जो इसे अस्थायी मानते थे, का कहना था कि इसके पीछे की वजह लगातार पड़ते अकाल के कारण से कृषि उत्पादन में आ रही गिरावट है । राष्ट्रीय कृषि अर्थव्यवस्था एवं नीति अध्ययन केन्द्र के प्रमुख वैज्ञानिक प्रताप सिंह ब्रिथल का कहना है कि लेकिन तब से पशुधन का योगदान, लगातार 5 से 13 प्रतिशत तक अधिक रहा है । वास्तविकता यही है कि पिछले एक दशक में पशुधन एवं मछलियां वालाक्षेत्र बजाए फसलों के अधिक तेजी से वृध्दि कर रहा है । शीघ्र लागू होने वाली 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए दिसम्बर में तैयार एक रिपोर्ट में इस बदलाव को मान्यता देते हुए पशुधन को कृषि वृध्दि का इंजिन माना है ।
 

पशुधन की अब कृषि सकल घरेलू उत्पाद में भागीदारों एक चौथाई हो गई है । वर्ष 2010-11 में इसके माध्यम से 3,40,500 करोड़ रूपये का राजस्व (वर्तमान मूल्यों पर) अर्जित हुआ । यह कृषि जीडीपी का 28 प्रतिशत और देश की जीडीपी का करीब 5 प्रतिशत पड़ता है । लुधियाना स्थित गुरू अंगद देव पशु चिकित्सा एवं पशुविज्ञान विश्वविद्यालय के उपकुलपति वी.के. तनेजा का कहना है, पशुधन से कुल प्राप्तियां खाद्यान्न (3,15,6000 करोड़)एवं सब्जियां (2,08,800करोड़) से अधिक थी और भविष्य में इसके पर्याप्त् मात्रा में बढ़ने की भी संभावना है।

आणंद राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड के वरिष्ठ प्रबंधक राजशेखरन का कहना है कि कृषि जीडीपी में पशुधन के बाद सर्वाधिक योगदान धान का है । राष्ट्रीय सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009-10 में पशुधन से कुल प्राप्तियांधान से 2.50 गुना व गेहूं के मूल्य से तीन गुना तक अधिक थीं। वहीं श्री तनेजा का कहना है जानवर प्राकृतिक पूंजी हैं और इन्हें एक जीवित बैंक के रूप में आसानी से पुर्नउत्पादित भी किया जा सकता है और ये फसल के खराब होने और प्राकृतिक विपदाओं की स्थिति में आर्थिक हानि से बचाने में बीमे का भूमिका भी निभा सकते हैं ।

पशुधन तीन स्तरों पर सर्वाधिक तेजी से वृध्दि करने वाले घटक के रूप में सामने आ रहा है । इसका सन् 1981-82 कृषि जीडीपी में योगदान 15 प्रतिशत था जो कि सन् 2010-11 में बढ़कर 26 प्रतिशत पर आ गया । श्री ब्रिथल का कहना है कि पशुधन कृषि वृध्दि में सहायक सिध्द हो रहा है । सन् 1980 के दशक में इसकी वृध्दि दर 5.3 प्रतिशत थी जो कि फसलों से तकरीबन दुगनी थी । वहीं वर्ष 2000 के दशक में यह गिरकर 3.6 प्रतिशत आ गई है लेकिन इसके बावजूद यह अभी भी कृषि वृध्दि दर से दुगनी है ।

12 वींपंचवर्षीय योजना के लिए कृषि नीति तैयार करने वाली समिति के सदस्य एम.एम. राय का कहना है ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे एवं सीमांत किसान, भूमिहीन श्रमिक और महिलाएं अपनी स्थानापन्न आय एवं रोजगार के लिए पशुधन पर अधिक निर्भर है ।नीति निर्माता भी अब इस नई अर्थव्यवस्था को गंभीरता से लेने लग गए हैं और इसे व्यापक कृषि वृध्दि के प्रमुख सहायक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है । उदाहरण के लिएप्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने सन् 2010-11 के वित्तीय आकलन में आशाजनक कृषि वृध्दि का आधार पशुधन को ही बनाया है । 

पशुधन क्षेत्र के उभरने के प्रभाव गरीबी पर भी पड़ेगें । योजना आयोग की रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि उन रायों में जहां पशुधन कृषि आय में अधिक योगदान करता है उन रायों में ग्रामीण गरीबी भी कम है । पंजाब, हरियाणा, जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, केरल, गुजरात और राजस्थान इसके उदाहरण हैं । पशुधन व्यवसाय में अधिकांशतऱ् सीमांत किसान एवं जिन्होंने खेती छोड़ दी है, वे ही आ रहे हैं । श्री राय का कहना है भारत में पशुधन का करीब 70 प्रतिशत, 67 प्रतिशत छोटे एवं सीमांत किसानों एवं भूमिहीनों के स्वामित्व में है । इसे यदि एक अन्य तरह से देखें तो अब समृध्दि बजाय खेत या कृषि के प्रति व्यक्ति कितना पशुधन है,पर अधिक निर्भर हो गई है । श्री ब्रिथल का कहना है इससे यह भी पता चलता है कि पशुधन क्षेत्र की वृध्दि गरीबी हटाने में कृषि क्षेत्र से अधिक प्रभावशाली सिध्द हो सकती है ।

लेकिन वर्तमान में इसक्षेत्र की सम्पूर्ण संभावनाओं का दोहन भी नहीं किया जा सका है । नीति की अनुपस्थिति के कारण निर्धनतम को सहेजने वाले इस क्षेत्र का विकास अवरूध्द हो रहा है । भारतीय पशुधन की उत्पादकता वैश्विक औसत से 20 से 60 प्रतिशत तक कम है । चारे की कमी भी संभाव्य उत्पादकता में 50 प्रतिशत तक की कमीके लिए जिम्मेदार है । इसके अलावा अपर्याप्त् गर्भाधान और प्रजनन तथा जानवरों में बढ़ती बीमारियां भी निम्न उत्पादकता के लिए जिम्मेदार हैं ।
पशुधन एवं वर्षा आधारित कृषि के विशेषज्ञ एन.जी.हेगड़े का कहना है कि पशुधन को वैश्विक तापमान वृध्दि एवं जलवायु परिवर्तन से कम नुकसान पहुंचेगा अतएव इसे वर्षा आधारित खेती से अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है । परन्तु पशुधन पर कृषि क्षेत्र में होने वाले खर्च में से महज 12 प्रतिशत व्यय होता है और कुल सांस्थानिक ऋणों में इसकी हिस्सेदारी 4 से 5 प्रतिशत की है । इसके अतिरिक्त मुश्किल से 6 प्रतिशत पशुधन का ही बीमा है । पशुधन को लेकर वर्ष 2011-12के लिए बनी 15 करोड़ की एकमात्र योजना में से अभी तक पैसा भी खर्च नहीं हुआ है । वहीं श्री तनेजा का कहना है, पशुपालन विस्तार नेटवर्क की अनुपस्थिति की वजह से पशुधन संबंधित तकनीकों को भी कम ही अपनाया जा रहा है । वैसे 11 वीं पंचवर्षीय योजना में भारतीय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान परिषद की स्थापना का निर्णय लिया गया था। लेकिन ऐसा अभी तक संभव नहीं हो पाया है । 12वीं पंचवर्षीय योजना कार्यदल ने भी इस सुझाव को फिर दोहराया है ।

साभार -  देशबन्धु   लेखक - रिचर्डमहापात्र