जैव-विविधता क्षरण का गहराता संकट संरक्षण समय की सबसे बड़ी आवश्यकता
जैव-विविधता अथवा जैविक-विविधता जीवों के बीच पायी जाने वाली विभिन्नता है जो कि प्रजातियों में, प्रजातियों के बीच और उनकी पारिस्थितिकतंत्रों की विविधता को भी समाहित करती है। सर्वप्रथम जैव-विविधता शब्द का प्रयोग आज से लगभग 25 वर्ष पूर्व वाल्टर जी0 रासन ने 1985 में किया था। जैव-विविधता के तीन स्तर होते हैं। (i) आनुवंशिक विविधता, (ii) प्रजातीय विविधता; तथा (iii) पारस्थितिकतंत्र विविधता।
प्रजातियों में पायी जाने वाली आनुवंशिक विभिन्नता को आनुवंशिक विविधता के नाम से जाना जाता है। यह आनुवंशिक विविधता जीवों के विभिन्न आवासों में विभिन्न प्रकार के अनुकूलन का परिणाम होती है। प्रजातियों में पायी जाने वाली विभिन्नता को प्रजातीय विविधता के नाम से जाना जाता है। किसी भी विशेष समुदाय अथवा पारिस्थितिकतंत्र के उचित कार्य के लिए प्रजातीय विविधता का होना अनिवार्य होता है। पारिस्थितिकतंत्र विविधता पृथ्वी पर पायी जाने वाली पारिस्थितिकतंत्रों में उस भिन्नता को कहते हैं जिसमें प्रजातियों का निवास होता है। पारिस्थितिकतंत्र विविधता विविध जैव-भौगोलिक क्षेत्रों जैसे झील, मरूस्थल, ज्वारनदमुख आदि में प्रतिबिम्बित होती है।
जैव-विविधता का महत्व
जैव-विविधता का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। जैव-विविधता के बगैर पृथ्वी पर मानव जीवन असंभव है। जैव-विविधता के विभिन्न लाभ निम्नलिखित हैं:
1. जैव-विविधता भोजन, कपड़ा, लकड़ी, ईंधन तथा चारा की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। विभिन्न प्रकार की फसलें जैसेगेहूँ, धान, जौ, मक्का, ज्वार, बाजरा, रागी, अरहर, चना, तोरिया, मसूर आदि से हमारी भोजन की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है जबकि कपास जैसी फसल हमारे कपड़े की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। सागवान, साल, शीशम आदि जैसे वृक्ष की प्रजातियाँ निर्माण कार्यो हेतु लकड़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। बबूल, शिरीष, सफेद शिरीष, जामुन, खेजरी, हल्दू, करंज आदि वृक्षों की प्रजातियों से हमारी ईंधन संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है जबकि शिरीष, घमार, सहजन, शहतूत, बेर, बबूल, करंज, नीम आदि वृक्षों की प्रजातियों से पशुओं के लिए चारा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
2. जैव-विविधता कृषि पैदावार बढ़ाने के साथ-साथ रोगरोधी तथा कीटरोधी फसलों की किस्मों के विकास में सहायक होती है। हरित क्रान्ति के लिए उत्तरदायी गेंहूं की बौनी किस्मों का विकास जापान में पाये जाने वाली नारीन-10 नामक गेहूँ की प्रजाति की मदद से किया गया था। इसी प्रकार धान की बौनी किस्मों का विकास ताइवान में पाये जाने वाली डी-जिओ-ऊ-जेन नाम धान की प्रजाति से किया गया था। 1970 के प्रारम्भिक वर्षों में विषाणु के संक्रमण से होने वाली धान की ग्रासी स्टन्ट नामक बिमारी के कारण एशिया महाद्वीप में 160,000 हेक्टेयर से भी ज्यादा फसल को नुकसान पहुँचाया था। धान की किस्मों में इस बीमारी के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने हेतु मध्य भारत में पायी जाने वाली जंगली धान की प्रजाति ओराइजा निभरा का उपयोग किया गया था। आई आर 36 नामक विश्व प्रसिद्ध धान की किस्म के भी विकास में ओराइजा निभरा का उपयोग किया गया है।
3. वानस्पतिक जैव-विविधता औषधीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। एक अनुमान के अनुसार आज लगभग 30 प्रतिशत उपलब्ध औषधियों को उष्णकटिबंधीय वनस्पतियों से प्राप्त किया जाता है। उष्णकटिबंधीय शाकीय पौधा सदाबहार विनक्रिस्टीन तथा विनव्लास्टीननामक क्षारों का स्रोत होता है जिनका उपयोग रक्त कैंसर के उपचार में होता है। सर्पगंधा नामक पौधा रेसर्पीन नामक महत्वपूर्ण क्षार का स्रोत होता है जिसका उपयोग उच्च-रक्तचाप के उपचार में किया जाता है। गुग्ल नामक पौधे से प्राप्त गोंद का उपयोग गठिया के इलाज में किया जाता है। सिनकोना वृक्ष की छाल से प्राप्त कुनैन नामक क्षार का उपयोग मलेरिया ज्वर के उपचार में किया जाता है। इसी प्रकारआर्टिमिसिया एनुआ नामक पौधे से प्राप्त आर्टिमिसिनीन नामक रसायन का उपयोग मस्तिष्क मलेरिया के उपचार में होता है। जंगली रतालू (डायसकोरिया डेल्टाइडिस) से प्राप्त डायसजेनीन नामक रसायन का उपयोग स्त्री गर्भनिरोधक के रुप में होता है।
4. जैव-विविधता पर्यावरण प्रदूषण के निस्तारण में सहायक होती है। प्रदूषकों का विघटन तथा उनका अवशोषण कुछ पौधों की विशेषता होती है। सदाबहार (कैथरेन्थस रोसियस) नामक पौधे में ट्राइनाइट्रोटालुइन जैसे घातक विस्फोटक को विघटित करने की क्षमता होती है। सूक्ष्म-जीवों की विभिन्न प्रजातियाँ जहरीले बेकार पदार्थों के साफ-सफाई में सहायक होती हैं। सूक्ष्म-जीवों की स्यूडोमोनास प्यूटिडा तथाआर्थोबैक्टर विस्कोसा में औद्योगिक अपशिष्ट से विभिन्न प्रकार के भारी धातुओं को हटाने की क्षमता होती है। राइजोपस ऐराइजस नामक कवक में यूरेनियम तथा थोरियम जैसे घातक तत्वों को हटाने की क्षमता पायी जाती है। इसी प्रकार पेनिसिलियम क्राइसोजिनियम में रेडियम को संचय करने की क्षमता पायी जाती है।
पौधों की कुछ प्रजातियों में मृदा से भरी धातुओं जैसे कापर, कैडमियम, मरकरी, क्रोमियम के अवशोषण तथा संचयन की क्षमता पायी जाती है। इन पौधों का उपयोग भारी धातुओं के निस्तारण में किया जा सकता है। भारतीय सरसों (ब्रैसिका जूनसिया) में मृदा से क्रोमियम तथा कैडमियम के अवशोषण की क्षमता पायी जाती है। जलीय पौधे जैसे जलकुम्भी, लैम्ना, साल्विनिया तथा एजोला का उपयोग जल में मौजूद भारी धातुओं (कापर, कैडमियम, आइरन एवं मरकरी) के निस्तारण में होता है।
5. जैव-विविधता में संपन्न वन पारिस्थितकतंत्र कार्बन डाईऑक्साइड के प्रमुख अवशोषक होते हैं। कार्बन डाईआक्साइड हरित गृह गैस है जो वैश्विक तपन के लिए उत्तरदायी है। उष्णकटिबंधीय वनविनाश के कारण आज वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है जिसके कारण भविष्य में विश्व की जलवायु अव्यवस्थित होने का खतरा दिनोंदिन बढ़ रहा है।
6. जैव-विविधता मृदा निर्माण के साथ-साथ उसके संरक्षण में भी सहायक होती है। जैव-विविधता मृदा संरचना को सुधारती है, जल-धारण क्षमता एवं पोषक तत्वों की मात्रा को बढ़ाती है। जैव-विविधता जल संरक्षण में भी सहायक होती हैं क्योंकि यह जलीय चक्र को गतिमान रखती है। वानस्पतिक जैव-विविधता भूमि में जल रिसाव को बढ़ावा देती है जिससे भूमिगत जलस्तर बना रहता है।
7. जैव-विविधता पोषक चक्र को गतिमान रखने में सहायक होती है। वह पोषक तत्त्वों की मुख्य अवशोषक तथा स्रोत होती है। मृदा की सूक्ष्मजीवी विविधता पौधों के मृत भाग तथा मृत जन्तुओं को विघटित कर पोषक तत्वों को मृदा में मुक्त कर देती है जिससे यह पोषक तत्व पुनः पौधों को प्राप्त होते हैं।
8. जैव-विविधता पारिस्थितिकतंत्र को स्थिरिता प्रदान कर पारिस्थितिक संतुलन को बरकरार रखती है। पौधे तथा जन्तु एक दूसरे से खाद्य श्रृंखला तथा खाद्य जाल द्वारा जुड़े होते हैं। एक प्रजाति की विलुप्ति दूसरे के जीवन को प्रभावित करती है। इस प्रकार पारिस्थितिकतंत्र कमजोर हो जाता है।
9. पौधे शाकभक्षी जानवरों के भोजन के स्रोत होते हैं जबकि जानवरों का मांस मनुष्य के लिए प्रोटीन का महत्वपूर्ण स्रोत होता है।
10. समुद्र के किनारे खड़ी जैव-विविधता संपन्न ज्वारीय वन (मैन्ग्रुव वन) प्राकृतिक आपदाओं जैसे समुद्री तूफान तथा सुनामी के खिलाफ ढ़ाल का काम करते हैं।
11. जैव-विविधता के विभिन्न सामाजिक लाभ भी हैं। प्रकृति अध्ययन के लिए सबसे उत्तम प्रयोगशाला है। शोध, शिक्षा तथा प्रसार कार्यों का विकास प्रकृति एवं उसकी जैव-विविधता की मदद से ही संभव है। इस बात को साबित करने के लिए तमाम साक्ष्य है कि मानव संस्कृति तथा पर्यावरण का विकास साथ-साथ हुआ है। अतः सांस्कृतिक पहचान के लिए जैव-विविधता का होना अति आवश्यक है।
12. जैविक रूप से संपन्न वन पारिस्थितिकतंत्र वन्य-जीवों तथा आदिवासियों का घर होता है। आदिवासियों की संपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति वनों द्वारा होती है। वनों के क्षय से न सिर्फ आदिवासी संस्कृति प्रभावित होगी अपितु वन्य-जीवन भी प्रभावित होगा।
जैव-विविधता का क्षरण
पृथ्वी का जैविक धन जैव-विविधता लगभग 400 करोड़ वर्षों के विकास की देन है। इस जैविक धन के निरंतर क्षति ने मनुष्य के अस्तित्व के लिए गम्भीर खतरा पैदा किया है। दुनिया के तीसरे देशों में जैव-विविधता क्षरण चिन्ता का विषय है। एशिया, मध्य अमेरिका, दक्षिण अमेरिका तथा अफ्रिका के देश जैव-विविधता संपन्न हैं जहां तमाम प्रकार के पौधों तथा जानवरों की प्रजातियाँ पायी जाती हैं। विडम्बना यह है कि अशिक्षा, गरीबी, वैज्ञानिक विकास का अभाव, जनसंख्या विस्फोट आदि ऐसे कारण हैं जो इन देशों में जैव-विविधता क्षरण के लिए जिम्मेदार हैं।
कोई नहीं जानता कि दुनिया में कुल कितनी प्रजातियाँ है लेकिन एक अनुमान के अनुसार इनकी संख्या 30 लाख से 10 करोड़ के बीच है। दुनिया में 1,435,662 प्रजातियों की पहचान की गयी है। हलांकि बहुत सी प्रजातियों की पहचान अभी भी होना बाकी है। पहचानी गई मुख्य प्रजातियों में 7,51,000 प्रजातियाँ कीटों की, 2,48,000 पौधों की, 2,81,000 जन्तुओं की 68,000 कवकों की 30,000 प्रोटिस्ट्स की, 26,000 शैवालों की, 4,800 जीवाणुओं की तथा 1,000 विषाणुओं की है। पारिस्थितिकतंत्रों के क्षय के कारण लगभग 27,000 प्रजातियाँ प्रतिवर्ष विलुप्त हो रही हैं। इनमें से ज्यादातर उष्णकटिबंधीय छोटे जीव हैं। अगर जैव-विविधता क्षरण की वर्तमान दर कायम रही तो विश्व की एक-चौथाई प्रजातियाँ 2050 तक समाप्त हो जायेगी।
पृथ्वी के पूर्व के पचास करोड़ वर्ष के इतिहास में छः बड़ी विलुप्ति लहरों ने पहले ही दुनिया की बहुत सी प्रजातियों का खात्मा कर दिया जिसमें छिपकली परिवार के विशालकाय डायनोसोर भी शामिल हैं। विलुप्ति लहरों के क्रमवार काल में पहला आर्डोविसियन काल (50 करोड़ वर्ष पूर्व), दूसरा डेवोनियन काल (40 करोड़ वर्ष पूर्व), तीसरा परमियन काल (25 करोड़ वर्ष पूर्व), चौथा ट्रायसिक काल (18 करोड़ वर्ष पूर्व) है। पांचवां क्रिटेसियस काल (6.5 करोड़ वर्ष पूर्व), छठवां प्लाइस्टोसीन काल (10 लाख वर्ष पूर्व) था। जुरासिक काल में पृथ्वी पर राज करने वाले विशाल जीव डायनोसोर क्रिटेसियस काल में ही इस पृथ्वी से समाप्त हो गये। विलुप्ति की छठवीं लहर में विशाल स्तनधारियों एवं पक्षियों की बहुत सी प्रजातियों का पृथ्वी से पतन हो गया। उक्त सभी छः विलुप्ति लहरों का प्रमुख कारण प्राकृतिक था जबकि सातवीं विलुप्ति का वर्तमान दौर मानव की विध्वंसक गतिविधियाँ हैं।
उष्णकटिबंधीय वर्षावन, जैव-विविधता संपन्न होते हैं जिन्हें ‘पृथ्वी का फेफड़ा’ कहा जाता है क्योंकि यह आक्सीजन के प्रमुख उत्सर्जक तथा कार्बन डाईऑक्साइड के अवशोषक होते हैं। इनका विस्तार पृथ्वी की कुल 7 प्रतिशत भौगोलिक भूमि पर है। दुनिया की कुल 50 प्रतिशत पहचानी गई प्रजातियाँ इन्हीं वनों में पायी जाती हैं। चूंकि ज्यादातर वर्षावन दुनिया की विकासशील देशों में पाये जाते हैं इसलिए जनसंख्या विस्फोट इन वनों के विनाश का प्रमुख कारण है। दुनिया के पन्द्रह वर्षावनों तथा तीन विरान (उजाड़) क्षेत्रों को जैव-विविधता के ‘मुख्यस्थल’ में पहचाना गया है। जैव-विविधता के मुख्यस्थल वह स्थान हैं जो जैव-विविधता संपन्न हैं तथा वहां जैविक दबाव के कारण वनस्पतियों तथा जन्तुओं के लिए खतरा है।
समय रहते अगर संरक्षण को नही अपनाया गया तो बहुत जल्द इनमें 90 प्रतिशत आवासों का विनाश होगा परिणामस्वरूप 15,000 से 50,000 प्रजातियों की क्षति प्रतिवर्ष होगी। उष्णकटिबंधीय वनविनाश आने वाले अगले 50 वर्षों में जैव-विविधता क्षरण का प्रमुख कारण होगा।
संपूर्ण विश्व में पौधों की लगभग 60,000 प्रजातियाँ तथा जन्तुओं की 2,000 प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर खड़ी हैं। यद्यपि कि इसमें से ज्यादातर प्रजातियाँ पौधों की है पर इसमें कुछ प्रजातियाँ जन्तुओं की भी हैं। इनमें मछलियाँ (343), जलथलचारी (50), सरीसृप (170), अकशेरूकी (1,355), पक्षियाँ (1,037) तथा स्तनपायी (497) शामिल हैं।
आनुवंशिक क्षरण
जीन कोष से जीन के क्षति को आनुवंशिक क्षरण कहते हैं जिससे पृथ्वी के आनुवंशिक संसाधनों में कमी होती है। पिछली सदी, फसलों में 75 प्रतिशत आनुवंशिक विविधता की क्षति की गवाह रही है। पिछली सदी के अंत तक अधिक पैदावार देने वाली किस्मों ने गेहूँ तथा धानकी खेती वाले क्षेत्रों के 50 प्रतिशत क्षेत्रफल पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। आनुवंशिक क्षरण के निम्नलिखित दो प्रमुख कारण हैं:
(1) फसल संख्या: पूर्व में अधिक संख्या में पौधों का उपयोग विभिन्न कार्यों हेतू होता था लेकिन धीरे-धीरे इन पौधों की संख्या में गिरावट आयी। उदाहरण के लए 3,000 भोजन पौधों की प्रजातियों में केवल 150 का वाणिज्यीकरण हुआ। कृषि में 12 प्रजातियों का प्रभुत्व है जिनमें 4 चार फसलों की प्रजातियाँ कुल पैदावार का 50 प्रतिशत पैदा करती हैं (धान, गेहूँ, मक्का एवं आलू)।
(2) फसलों की किस्में: आज एक किस्म में ज्यादा से ज्यादा अच्छे गुणों को समावेश करने का चलन है। जैसे ही किस्म विकसित होती है उसका बड़े पैमाने पर उपयोग होता है परिणामस्वरूप स्थानीय स्वदेशी किस्मों का उपयोग बन्द हो जाता है जिससे स्थानीय प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती है। आनुवंशिक क्षरण गंभीर चिन्ता का विषय है क्योंकि यह भविष्य में फसलों के सुधार कार्यक्रम को प्रभावित करेगा। फसलों की स्थानीय तथा पारंपरिक प्रजातियों में उपयोगी गुण होते हैं जिनका उपयोग फसलों की वर्तमान प्रजातियों के विकास में किया जा सकता है। इसलिए फसलों की विविधता को बनाये रखना अति आवश्यक है।
आनुवंशिक क्षरण गंभीर चिन्ता का विषय है क्योंकि इसका प्रत्यक्ष प्रभाव फसल प्रजनन कार्यक्रम पर पड़ेगा। फसलों की पारंपरिक किस्में तथा उनकी जंगली प्रजातियों में बहुत से उपयोगी जींस होते हैं जिनका उपयोग फसलों की वर्तमान किस्मों के सुधार में किया जा सकता है।
भारत की जैव-विविधता
भारत जैव-विविधता संपन्न देश है। दुनिया की कुल भूमि के 2.4 प्रतिशत भूमि का प्रतिनिधित्व करने वाले भारत की जैव-विविधता में 8 प्रतिशत हिस्सेदारी है। देश की जलवायु तथा उसकी भौगोलिक स्थिति उसे जैव-विविधता संपन्न देश बनाती है। भारत की गिनती दुनिया की कुल 12 ‘विराट जैव-विविधता’ वाले देशों में से होती है। भारत में 45,000 वनस्पतियों की प्रजातियाँ पायी जाती हैं जो विश्व के कुल 7 प्रतिशत वनस्पतियों का प्रतिनिधित्व करती हैं जबकि देश में जन्तुओं की कुल 75,000 प्रजातियाँ पायी जाती हैं जो विश्व के कुल 6.5 प्रतिशत जन्तुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।
देश की 33 प्रतिशत वनस्पतियों तथा 62 प्रतिशत जन्तु देश के लिए स्थानिक हैं अर्थात् ये दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाये जाते हैं। देश की कुल 45,000 वनस्पति प्रजातियों में 5,000 प्रजातियाँ शैवालों की, 20,000 प्रजातियाँ कवकों की, 1,600 प्रजातियाँ लाइकेन्स की, 2,700 प्रजातियाँ ब्रायोफाइट्स की, 600 टेरिडोफाइट्स की तथा 15,000 पुष्पीय पौधों की प्रजातियों की पहचान तथा वर्णन अब तक किया गया है। देश की पुष्पीय पौधों की प्रजातियाँ दुनिया के लगभग 12 प्रतिशत पुष्पीय पौधों का प्रतिनिधित्व करती हैं। कुल 15,000 पुष्पीय प्रजातियों में से लगभग 1,000 प्रजातियाँ संकटग्रस्त श्रेणी में पहुँच चुकी हैं।
जहाँ तक जन्तुओं की विविधता का सवाल है भारत 60,000 कीटों 1,700 मछलियों, 1,200 पक्षियों, 540 सरीसृपों, 200 जलथलचारी 6,500 अकशेरूकी 1,000 मोलस्का तथा 5,000 स्तनपायी प्रजातियों का घर है जिसमें से 62 प्रतिशत जलथलचारी तथा 32 प्रतिशत सरीसृप भारत के लिए स्थानिक हैं। देश पशु विविधता में भी संपन्न है। मवेशियों की 27, भेड़ों की 40, बकरियों की 22 तथा भैसों की 8 देशी नस्लें देश में उपलब्ध हैं।
भारत, का उत्तर-पूर्व, पश्चिमी घाट, पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिम की हिमालय ‘स्थानिकता’ में संपन्न हैं। कम से कम 200 स्थानिक प्रजातियाँ, अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह में पायी जाती हैं। दुनिया को भारत ने 167 प्रजातियों के पौधों के साथ 320 जंगली प्रजातियों तथा पालतू पशुओं के विभिन्न प्रजातियों को दिया है। गन्ना, पटसन, कटहल, अदरक, छोटी इलायची, काली मिर्च, हल्दी, बांस, ऊँट तथा मिथुन की उत्पत्ति भारत में हुयी है।
भारत में कृषि के परम्परागत फसलों में धान, अनेक दूसरे अनाज, सब्जियाँ और फलों की 30,000 से 50,000 प्रजातियाँ हैं। इन पौधों की सबसे अधिक विविधता, पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट, उत्तरी हिमालय और पूर्वोत्तर की पहाड़ियों के भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में भी है। दुनिया के कुल 18 जैव-विविधता के मुख्यस्थल हैं जिनमें से 2 भारत में पाये जाते हैं। पश्चिमी घाट तथा पूर्वी हिमालय देश में जैव-विविधता के दो मुख्यस्थल हैं।
जैव-विविधता क्षरण के कारण
जैव विविधता क्षय के विभिन्न कारण हैं जिनमें आवास का विनाश, आवास का विखण्डन, पर्यावरण प्रदूषण, विदेशी मूल के पौधों का आक्रमण, अति-शोषण वन्य-जीवों का शिकार, वनविनाश, अति-चराई, बिमारी, चिड़ियाघर तथा शोध हेतु प्रजातियों का उपयोग नाशीजीवों तथा परभक्षियों का नियंत्रण, प्रतियोगी अथवा परभक्षी प्रजातियों का प्रवेश आदि प्रमुख हैं।
1. आवास विनाश: मानव जनसंख्या वृद्धि एवं मानव गतिविधियाँ आवास के विनाश का प्रमुख कारण हैं। आवास की क्षति वर्तमान में अकशेरूकी जीवों के विलुप्ति का एक प्रमुख कारण है। बहुत से देशों में विशेषकर द्वीपों पर जब मानव जनसंख्या घनत्व में बढ़ोत्तरी होती है तो ज्यादातर प्राकृतिक आवास नष्ट हो जाते हैं। दुनिया के 61 में से 41 प्राचीन विश्व उष्णकटिबंधीय देशों में 50 प्रतिशत से ज्यादा वन्य-जीवों के आवास नष्ट हो चुके हैं।
ज्यादातर स्थितियों में आवास विनाश के प्रमुख कारक औद्योगिक तथा वाणिज्यिक गतिविधियाँ है जिनका संबन्ध वैश्विक अर्थव्यवस्था जैसे-खनन, पशु पालन, कृषि, वानिकी, बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं की स्थापना आदि से है। वर्षावन, उष्णकटिबंधीय शुष्कवन, नमभूमियाँ, ज्वारीयवन तथा घास के मैदान संकटग्रस्त आवास हैं।
2. आवास विखण्डन: आवास विखण्डन वह प्रक्रिया है जिसमें एक विशाल क्षेत्र का आवास क्षेत्रफल में कम हो जाता है और आमतौर से दो या अधिक टुकड़ों में बंट जाता है। जब आवास नष्ट हो जाता है तो टुकड़े बहुधा एक दूसरे से अलग-अलग क्षरित अवस्था में प्रकट होते हैं। आवास का विखण्डन प्रजातियों के विस्तार तथा स्थापना को सीमित कर देता है, जिससे जैव-विविधता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
3. पर्यावरण प्रदूषण: बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण जैव-विविधता क्षरण का एक प्रमुख कारण बनता जा रहा है। पर्यावरण प्रदूषण के लिए नाशिजीवनाशक, औद्योगिक रसायन तथा अपशिष्ट आदि मुख्यतः उत्तरदायी हैं।
नाशिजीवनाशक प्रदूषण के परिणामस्वरूप मृदा के सूक्ष्मजीवी वनस्पतियों तथा जन्तुओं की मृत्यु हो जाती है। इसके अतिरिक्त जल वर्षा के बहाव से जब नाशिजीवनाशक जल स्रोतों में पहुंचते हैं तो वहां भी सूक्ष्मजीवी वनस्पतियों तथा जंतुओं को मार देते हैं। परिणामस्वरूप जैव-विविधता का क्षय होता है। नाशिजीवनाशक डी0डी0टी0 पक्षियों की गिरती आबादी का एक प्रमुख कारण हैं। डी0डी0टी0 खाद्य श्रृंखला के जरिए पक्षियों के शरीर में पहुंचता है जहाँ वह इस्ट्रोजेन नामक हार्मोन के गतिविधि को प्रभावित करता है जिससे अण्डे की खोल कमजोर हो जाती है परिणामस्वरूप अण्डा समय से पहले फूट जाता है जिससे भ्रूण की मृत्यु हो जाती है। अम्ल वर्षा के कारण नदियों तथा झीलों का अम्लीकरण जलीय जीवों के लिए एक प्रमुख खतरा बनता जा रहा है।
4. विदेशी मूल के पौधों का आक्रमण: विदेशी मूल के पौधों के आक्रमण के परिणामस्वरूप जैव-विविधता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है इसलिए इन्हें ‘जैविक प्रदूषक’ की संज्ञा दी जाती है। सफल विदेशी मूल के पौधे की प्रजाति देसी प्रजातियों को विस्थापित कर उन्हें विलुप्ति के स्तर तक पहुँचा देती है। इसके अतिरिक्त वह आवास पर विपरीत प्रभाव डालकर देसी प्रजाति के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर देती है। भारत में बहुत से विदेशी मूल के पौधे जैसे पार्थिनियम हिस्ट्रोफोरस, लैंटाना कमरा, गैलिंसोगा पार्विफोलिया, यूपेटोरियम एडिनोफोरम, यूपेटोरियम ओडोरेटम, प्रोसोपिस जूलिफ्लोरा आदि जैव-विविधता क्षरण के प्रमुख कारण साबित हो रहे हैं।
5. अति-शोषण: बढ़ती मानव जनसंख्या के कारण जैविक संसाधनों का दोहन भी बढ़ा है। संसाधनों का उपयोग तब ज्यादा बढ़ जाता है जब पूर्व में उपयोग नहीं हुई अथवा स्थानीय उपयोग वाली प्रजाति के लिए वाणिज्यिक बाजार विकसित हो जाता है। अतिशोषण दुनिया के लगभग एक-तिहाई संकटग्रस्त कशेरूकी जीवों के लिए प्रमुख खतरा है। बढ़ती ग्रामीण बेरोजगारी, उन्नत शोषण विधियों का विकास तथा अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण ने बहुत से प्रजातियों को विलुप्ति के शीर्ष पर पहुंचा दिया है। अगर प्रजाति पूरी तरह से खत्म नहीं होती है तो भी उसकी जनसंख्या उस स्तर तक गिर जाती है जहाँ से वह अपना पुनरुद्धार करने में अक्षम होती है।
6. शिकार: जन्तुओं का शिकार आमतौर से दाँत, सींग, खाल, कस्तूरी आदि के लिए किया जाता है। अंधाधुंध शिकार के कारण देश में जानवरों की बहुत सी प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर पहुँच चुकी हैं। असम राज्य में एक सींघ वाले गैण्डे की जनसंख्या में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गयी है क्योंकि इसका शिकार इसकी सींघ के लिए किया जाता है जिसका उपयोग कामउत्तेजक दवाओं के निर्माण में होता है। इसी प्रकार पूर्वोत्तर राज्यों विशेषकर मणिपुर में चीरू नामक जानवर का शिकार उसकी खाल के लिए किया जाता है जिससे शाहतूस शाल का निर्माण होता है। बाघ, तेन्दुआ, चिंकारा, कृष्ण मृग तथा मगरमच्छ का शिकार भी खाल के लिए किया जाता है। हाथियों का शिकार दाँत के लिए किया जाता है जबकि बारहसिंगा का शिकार सींग के लिए किया जाता है। कस्तूरी मृग का शिकार कस्तूरी के लिए किया जाता है।
7. वनविनाश: विकास कार्यों तथा कृषि के विस्तार के कारण उष्णकटिबंधीय देशों में जंगलों को बड़े पैमाने पर नष्ट किया गया है जिसके परिणामस्वरूप उष्णकटिबंधीय वनों में जैव-विविधता का क्षरण हुआ है। उष्णकटिबंधीय देशों में आदिवासियों द्वारा की जाने वाली झूम कृषि (स्थानान्तरी कृषि) भी जैव-विविधता क्षरण का एक प्रमुख कारण रही है। भारत के आदिवासी बहुल पूर्वोत्तर राज्यों में झूम कृषि के कारण वनों के क्षेत्रफल में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गयी है।
8. अति-चराई: शुष्क तथा अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में चराई जैव-विविधता क्षरण का एक प्रमुख कारण है। भेड़ों, बकरियों तथा अन्य शाकभक्षी पशुओं द्वारा चराई के कारण पौधों की प्रजातियों को नुकसान पहुंचता है। अतिचराई के कारण पौधों का ¬प्रकाश-संश्लेषण वाला भाग नष्ट हो जाता है जिससे पौधों की मृत्यु हो जाती है। बहुत सी कमजोर प्रजातियाँ शाकभक्षी पशुओं द्वारा कुचल दी जाती हैं। भारी चराई प्रजाति को समुदाय से नष्ट कर देती है।
9. बीमारी: मानव गतिविधियाँ वन्य-जीवों की प्रजातियों में बिमारियों को बढ़ावा देती हैं। जब कोई जानवर एक प्राकृतिक संरक्षित क्षेत्र तक सीमित होता है तब उसमें बिमारी के प्रकोप की संभावना ज्यादा होती है। दबाव में जानवर बीमारी के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। ठीक इसी प्रकार मनुष्य की कैद में वन्य-जीव बीमारियों के प्रति अत्यन्त ही संवेदनशील होते हैं।
10. चिड़ियाघर तथा शोध हेतु प्रजातियों का उपयोग: चिकित्सा शोध, वैज्ञानिक शोध तथा चिड़ियाघर के लिए जानवरों को पकड़ना प्रजाति के लिए खतरनाक साबित होता है क्योंकि इससे इनकी जनसंख्या में गिरावट होने की संभावना रहती है जिससे ये जानवर विलुप्ति के कगार पर पहुँच सकते हैं। चिकित्सा शोध महत्वपूर्ण क्रिया है लेकिन यह संकटग्रस्त जंगली प्राइमेट्स जैसे गुरिल्ला, चिम्पांजी तथा ओरांगुटान के लिए खतरनाक है।
11. नाशीजीवों एवं परभक्षियों का नियन्त्रण: फसलों तथा पशुओं को नाशीजीवों तथा परभक्षियों से सुरक्षा ने भी बहुत से प्रजातियों को विलुप्ति के कगार पर पहुँचा दिया है। विष के इस्तेमाल से एक विशेष प्रजाति को नष्ट करने के प्रयास में कभी-कभी उस प्रजाति के परभक्षी भी विष के शिकार हो जाते हैं जिससे पारिस्थितिकतंत्र में खाद्य श्रृंखला अव्यवस्थित हो जाती है और नियंत्रित प्रजाति नाशीजीव का रूप धारण कर जैव-विविधता को क्षति पहुँचाती है।
12. प्रतियोगी अथवा परभक्षी प्रजातियों का प्रवेश: प्रवेश कराई गयी प्रजाति दूसरी प्रजातियों को उनके शिकार, भोजन के लिए प्रतियोगिता, आवास को नष्टकर अथवा पारिस्थितिक संतुलन को अव्यवस्थित कर उन्हें प्रभावित कर सकती है। उदाहरणस्वरुप हवाई द्वीप में 1883 में गन्ने की फसल को बर्बाद कर रहे चूहों के नियंत्रण हेतु नेवलों को जानबूझकर प्रवेश कराया गया था जिसके फलस्वरुप बहुत सी अन्य स्थानीय प्रजातियाँ भी प्रभावित हुई थी।
जैव-विविधता का संरक्षण
चूँकि जैव-विविधता मानव सभ्यता के विकास की स्तम्भ है इसलिए इसका संरक्षण अति आवश्यक है। जैव-विविधता हमारे भोजन, कपड़ा, औषधीय, ईंधन आदि की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। जैव-विविधता पारिस्थितिक संतुलन को बनाये रखने में सहायक होती है। इसके अतिरिक्त यह प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, सूखा आदि से राहत प्रदान करती है। वास्तव में जैव-विविधता प्रकृति की स्वभाविक संपत्ति है और इसका क्षय एक प्रकार से प्रकृति का क्षय है। अतः प्रकृति को नष्ट होने से बचाने के लिए जैव-विविधता को संरक्षण प्रदान करना समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
जैव-विविधता संरक्षण में जोखिमग्रस्त प्रजाति का महत्व
जोखिमग्रस्त प्रजाति: अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संघ ने संरक्षण हेतु पौधों या जन्तुओं की कम होती प्रजातियों को निम्नलिखित श्रेणियों में बाँटा है।
1. असहाय प्रजाति: वे प्रजातियाँ जो कि संकटग्रस्त प्रजातियाँ बन सकती है अगर वर्तमान कारक का प्रकोप जारी रहा जो इनकी जनसंख्या के गिरावट के लिए जिम्मेदार है।
2. दुर्लभ प्रजाति: यह वे प्रजातियाँ होती हैं जिनकी संख्या कम होने के कारण उनकी विलुप्ति का खतरा बना रहता है। भारत मेंशेर इसका उदाहरण है।
3. अनिश्चित प्रजाति: वे प्रजातियाँ जिनकी विलुप्ति का खतरा है लेकिन कारण अज्ञात हैं। मेक्सिकन प्रेरी कुत्ता इसका उदाहरण है।
4. संकटग्रस्त प्रजाति: वे प्रजातियाँ जिनके विलुप्ति का निकट भविष्य में खतरा है। इन प्रजातियों की जनसंख्या गम्भीर स्तर तक घट चुकी है तथा इनके प्राकृतिक आवास भी बुरी तरह घट चुके हैं। नीला ह्वेल तथा लाल भेड़िया इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
5. गंभीर संकटग्रस्त प्रजाति: वे प्रजातियाँ जो निकट भविष्य में जंगली अवस्था में विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रही हों। ग्रेट इण्डियन बस्टर्ड (सोहन चिड़िया) तथा फ्लोरिडा पैंथर इसके उदाहरण हैं।
जैव-विविधता संरक्षण का आशय जैविक संसाधनों के प्रबंधन से है जिससे उनके विस्तृत इस्तेमाल के साथ-साथ गुणवत्ता भी बनी रहे। विश्व संरक्षण रणनीति ने जैव-विविधता संरक्षण के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये हैं:
(1) उन प्रजातियों के संरक्षण का प्रयास होना चाहिए जो कि संकटग्रस्त हैं।
(2) विलुप्ति पर लगाम के लिए उचित योजना तथा प्रबंधन की आवश्यकता।
(3) खाद्य फसलों, चारा पौधों, मवेशियों, जानवरों तथा उनके जंगली रिश्तेदारों को संरक्षित किया जाना चाहिए।
(4) प्रत्येक देश की वन्य प्रजातियों के आवास को चिंहित कर उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करना चाहिए।
(5) वह आवास जहाँ प्रजातियाँ भोजन, प्रजनन तथा बच्चों का पालन-पोषण करती हैं को सुरक्षा प्रदान करना चाहिए।
(6) जंगली पौधों तथा जन्तुओं के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर नियंत्रण होना चाहिए।
पौधों एवं जन्तुओं की प्रजातियों तथा उनके आवास को बचाने के लिए समयबद्ध कार्यक्रम को लागू करने की आवश्यकता है जिससे जैव-विविधता संरक्षण को बढ़ावा मिल सके। अतः संरक्षण की कार्ययोजना आवश्यक रूप से निम्नलिखित दिशा में होनी चाहिए:
(i) द्वीपों सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों में पाये जाने वाले जैविक संसाधनों को सूचीबद्ध करना।
(ii) संरक्षित क्षेत्र के जाल जैसे राष्ट्रीय पार्क, जैवमण्डल रिजर्व, अभयारण्य, जीन कोष आदि के जरिए जैव-विविधता का संरक्षण।
(iii) क्षरित आवास का प्राकृतिक अवस्था में पुनरुद्धार।
(iv) प्रजाति को किसी दूसरी जगह उगाकर उसे मानव दबाव से बचाना।
(v) संरक्षित क्षेत्र बनने से विस्थापित आदिवासियों का पुर्नवास।
(vi) जैव-प्रौद्योगिकी तथा ऊतक सवर्धन की आधुनिक तकनीकों से संकटग्रस्त प्रजातियों का गुणन।
(vii) देसी आनुवंशिक विविधता संरक्षण हेतु घरेलू पौधों तथा जन्तुओं की प्रजातियों की सुरक्षा।
(viii) जोखिमग्रस्त प्रजातियों का पुनरुद्धार।
(ix) बिना विस्तृत जांच के विदेशी मूल के पौधों के प्रवेश पर रोक।
(x) एक ही प्रकार की प्रजाति का विस्तृत क्षेत्र पर रोपण को हतोत्साहन।
(xi) उचित कानून के जरिए प्रजातियों के अतिशोषण पर लगाम।
(xii) प्रजाति व्यापार संविदा के तहत अतिशोषण पर नियन्त्रण।
(xiii) आनुवंशिक संसाधनों के संपोषित उपयोग तथा उचित कानून के द्वारा सुरक्षा।
(xiv) संरक्षण में सहायक पारंपरिक ज्ञान तथा कौशल को प्रोत्साहन।
जैव-विविधता संरक्षण की विधियाँ
जैव-विविधता संरक्षण की मुख्यतः दो विधियां होती हैं जिन्हें यथास्थल संरक्षण तथा बहिःस्थल संरक्षण के नाम से जाना जाता है।
1. यथास्थल संरक्षण: इस विधि के अन्तर्गत प्रजाति का संरक्षण उसके प्राकृतिक आवास अथवा मानव द्वारा निर्मित पारिस्थितिकतंत्र में किया जाता है जहाँ वो पाये जाते हैं। इस विधि में विभिन्न श्रेणियों के सुरक्षित क्षेत्रों का प्रबंधन विभिन्न उद्देश्यों से सामाज के लाभ हेतु किया जाता है। सुरक्षित क्षेत्रों में राष्ट्रीय पार्क, अभयारण्य तथा जैवमण्डल रिजर्व आदि प्रमुख हैं। राष्ट्रीय पार्क की स्थापना का मुख्य उद्देश्य वन्य-जीवन को संरक्षण प्रदान करना होता है जबकि अभयारण्य की स्थापना का उद्देश्य किसी विशेष वन्य-जीव की प्रजाति को संरक्षण प्रदान करना होता है। जैवमण्डल रिजर्व बहुउपयोगी संरक्षित क्षेत्र होता है जिसमें आनुवंशिक विविधता को उसके प्रतिनिधि पारिस्थितिकतंत्र में वन्य-जीवन जनसंख्या, आदिवासियों की पारंपरिक जीवन शैली आदि को सुरक्षा प्रदान कर संरक्षित किया जाता है।
भारत ने यथास्थल संरक्षण में उल्लेखनीय कार्य किया है। देश में कुल 89 राष्ट्रीय पार्क हैं जो 41 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल पर फैले हैं। जबकि देश में कुल 500 अभयारण्य हैं जो कि लगभग 120 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल पर फैलें हैं। देश में कुल 15 जैवमण्डल रिजर्व हैं। नीलगिरि जैवमण्डल रिजर्व भारत का पहला जैवमण्डल रिजर्व था जिसकी स्थापना 1986 में की गयी थी। यूनेस्को ने भारत के सुन्दरवन रिजर्व, मन्नार की खाड़ी रिजर्व तथा अगस्थमलय जैवमण्डल रिजर्व को विश्व जैवमण्डल रिजर्व का दर्जा दिया है।
2. बहिःस्थल संरक्षण: यह संरक्षण कि वह विधि है जिसमें प्रजातियों का संरक्षण उनके प्राकृतिक आवास के बाहर जैसे वानस्पतिक वाटिकाओं, जन्तुशालाओं, आनुवंशिक संसाधन केन्द्रों, संवर्धन संग्रह आदि स्थानों पर किया जाता है। इस विधि द्वारा पौधों का संरक्षण सुगमता से किया जा सकता है। इस विधि में बीज बैंक, वानस्पतिक वाटिका, ऊतक संवर्धन तथा आनुवंशिक अभियान्त्रिकी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
जहाँ तक फसल आनुवंशिक संसाधन का संबंध है भारत ने बहिःस्थल संरक्षण में भी प्रसंशनीय कार्य किया है। जीन कोष में 34,000 से ज्यादा धान्य फसलों तथा 22,000 दलहनी फसलों का संग्रह किया गया है जिन्हें भारत में उगाया जाता है। इसी तरह का कार्य पशुधन, कुक्कुट पालन तथा मत्स्य पालन के भी क्षेत्र में किया गया है।
निष्कर्ष:
मानव सभ्यता के विकास की धुरी जैव-विविधता आज आवास विनाश, आवास विखण्डन, विदेशी मूल के पौधों के आक्रमण, शिकार, अति-चराई, वनविनाश, पर्यावरण प्रदूषण आदि के कारण खतरे में है। जैव-विविधता से न सिर्फ हमारी भोजन, कपड़ा, ईधन, लकड़ी, औषधियों आदि की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है अपितु यह पारिस्थितिक संतुलन को बनाये रखने तथा खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने में भी सहायक होती है। अतः पर्यावरण संरक्षण, पारिस्थितिक स्थिरता, फसल उत्पादन में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ वैश्विक तपन, बाढ़, सूखा, भूमि क्षरण आदि से बचाव के लिए जैव-विविधता संरक्षण समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। अंततः संक्षेप में कहा जा सकता है कि जैव-विविधता प्रकृति की स्वभाविक संपत्ति है इसलिए जैव-विविधता को नष्ट करना प्रकृति को नष्ट करना है।
डा. अरविन्द सिंह