बीमा के मायाजाल में उलझा किसान
कृषि उत्पादों के मूल्य पिछड़ने के कारण खेती घाटे का सौदा होती जा रही है। फलस्वरूप किसान ऋण लेने को मजबूर होता जा रहा है। ऋण लेने के बाद वे ब्याज और बीमा के प्रीमियम भी अदा करते हैं। उनकी आय पहले ही कम थी। अब उसमें एक हिस्सा सरकारी बैंकों तथा बीमा कंपनियों के हिस्से चला जाता है। किसान गरीब होता जा रहा है। किसान को राहत पहुंचानी है, तो केंद्र सरकार से कृषि मूल्यों में महंगाई से अधिक वृद्धि करनी चाहिए। तब किसान को मोबाइल खरीदने को पैसा होगा और ऋण लेने और बीमा की जरूरत नहीं रह जाएगी…
केंद्र सरकार ने फसल बीमा पर दी जाने वाली सबसिडी को बढ़ा दिया है। अब किसानों द्वारा दिए गए प्रीमियम पर 40 से 75 प्रतिशत तथा ज्यादा जोखिम वाली फसलों पर 75 प्रतिशत सबसिडी मिलेगी। पूर्व में सबसिडी की मात्रा कम थी। केंद्र सरकार की मंशा अच्छी है। प्राकृतिक कारणों से फसल बर्बाद होने पर किसान को बीमा से मुआवजा मिल जाएगा और वह अपनी जीविका चला सकेगा। परंतु इसी प्रकार की बीमा योजनाएं पूर्व में फेल हुई हैं, चूंकि मूल समस्या प्रीमियम की नहीं है, परंतु बीमा कंपनियों की कार्य प्रणाली की है। वर्तमान योजना में सबसिडी बढ़ाने से बीमा कंपनियों की कार्य प्रणाली में कोई परिवर्तन नहीं होगा। इसलिए मूल समस्या बनी रहती है और यह योजना न केवल फेल होगी, बल्कि बीमा कंपनियों को फर्जीबाड़ा करने के अधिक प्रलोभन मिल जाएंगे। बीमा की मुख्य समस्या कंपनी की नौकरशाही की है। मेरी आल्टो कार का मैंने कंप्रिहेंसिव इंश्योरेंस कराया था। एक छोटी दुर्घटना हो गई। मैंने वर्कशाप से एस्टीमेट बनवाया और क्लेम दाखिल किया। सर्वेयर साहब के आने के समय गाड़ी को लेकर वर्कशाप पहुंचा। निर्धारित समय के दो घंटे के बाद सर्वेयर साहब पहुंचे। जांच करने के बाद गाड़ी की मरम्मत कराई। दोबारा सर्वेयर साहब द्वारा जांच की गई। उन्होंने मुझसे लिखवा लिया कि जो क्लेम दिया जाएगा मुझे स्वीकार होगा। इस पूरी प्रक्रिया में मुझे 10 दिन लग गए। इस अवधि में मुझे टैक्सी का खर्च वहन करना पड़ा। यदि इंश्योरेंस के झंझट में न पड़ता तो तीन दिन में गाड़ी की मरम्मत हो जाती। इस मशक्कत के बाद 12 हजार के क्लेम पर मिला सात हजार। मेरे लिए इंश्योरेंस कराना घाटे का सौदा रहा। दो बार जांच के लिए वर्कशाप जाने और सात दिन तक अतिरिक्त टैक्सी का अतिरिक्त खर्च जोड़ लें तो मेरे 12 हजार से जादा खर्च हो गए। अब मैं थर्ड पार्टी इंश्योरेंस मात्र कराता हूं। मैंने अपनी बात इसलिए कही, क्योंकि किसान की स्थिति भिन्न नहीं है। मान लीजिए किसी किसान ने 50 हजार की फसल का बीमा कराया। इस पर 10 प्रतिशत से कुल प्रीमियम 5,000 रुपए बैठा। इसमें 2,500 रुपए किसान ने दिए और 2,500 की किसान से सबसिडी मिली। मान लीजिए ओले पड़े और आधी फसल बर्बाद हो गई। किसान ने 25,000 रुपए का क्लेम दाखिल किया। इस क्लेम को पाने के लिए उसे दस बार सर्वेयर तथा इंश्योरेंस कंपनी जाना पड़ा। जिसका खर्च लगभग 5,000 रुपए पड़ा। उसका कुल खर्च लगभग 7,500 रुपए हुआ। इसके बाद उसे क्लेम मिला 15,000 रुपए का। वह भी छह माह बाद। 15,000 रुपए का क्लेम लेने में उसके 7,500 रुपए लग गए। इस छोटी रकम को पाने के लिए उसके लिए इंश्योरेंस कराना घाटे का सौदा हो जाता है। इसी का परिणाम है कि किसान अपनी फसलों का बीमा ही नहीं करवा रहे हैं। मौजूदा समय में बहुत कम किसान ही अपनी फसलों का बीमा करवाते हैं। इसके पश्चात जो किसान बीमा करवाते भी हैं, वे क्लेम की राशि हासिल करने के झमेले में फंसकर हताश-निराश रह जाते हैं। लिहाजा कंपनियों की इसी जटिल कार्यप्रणाली से हतोत्साहित होकर अपनी फसल का बीमा करवाने से बचते हैं। सरकार की चिंता किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं हैं। किसान बैंक से अथवा साहूकार से लोन लेते हैं। फसल बर्बाद हो जाए तो किसान लोन का रीपेमेंट नहीं कर पाते हैं। बैंक द्वारा जमीन की कुर्की की जाती है अथवा साहूकार के गुंडे उसका जीना हराम कर देते हैं। फलस्वरूप किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं। किसान को इस दर्द से बचाने के लिए सरकार ने बीमा के प्रीमियम पर दी जाने वाली सबसिडी बढ़ा दी है। स्पष्ट है कि बीमा कराने की जरूरत मुख्यतः ऋण के पुनर्भुगतान करने को आसान बनाने की है। किसान यदि लोन न ले तो बीमा के झंझट में उसे पड़ने की जरूरत नहीं है। अतः आत्महत्या से बचने के लिए दो रास्ते हैं। एक रास्ता है कि किसान द्वारा ऋण लेकर बीमा कराया जाए। दूसरा रास्ता है कि ऋण ही न लिया जाए। किसान ऋण खेती के लिए कम और घरेलू जरूरतों के लिए ज्यादा लेते हैं। ऋण लेने से खेती में आय नहीं बढ़ती है। किसान पूर्व में भी यूरिया खरीद कर खेतों में डालता था। ऋण लेने के बाद भी यूरिया ही खरीद कर डालता है। ऋण लेने से आय नहीं बढ़ती है, चूंकि उत्पादन प्रणाली पूर्ववत रहती है। हां, यदि टिशू कल्चर अथवा उन्नत फूलों का उत्पादन करने के लिए ऋण लिया जाता है तो आय में वृद्धि हो सकती थी। परंतु आज देश में किसानों द्वारा पुरानी खेती को जारी रखने के लिए ही ऋण लिए जा रहे हैं। इसका परिणाम प्रतिकूल होता है। ब्याज अदा करने में उसकी आय घट जाती है। मान लीजिए पूर्व में किसान की आय 50,000 रुपए तथा यूरिया और सिंचाई में खर्च 20,000 रुपए था। आय तीस हजार रुपए थी। अब 25 हजार का ऋण लिया। इस पर 2,500 रुपए का ब्याज दिया। ऋण लेने के कारण बीमा कराना पड़ा। 1,250 रुपए प्रीमियम भी दिया। किसान पर 3,750 का अतिरिक्त खर्च पड़ा। उसकी आय 3,750 कम हो गई। अतः ऋण और बीमा किसान को चूसने के रास्ते हैं, न कि उसे राहत देने के। किसान के ऋण लेने की सार्थकता तभी है जब वह उस रकम से कुछ नया उत्पादन करे, लेकिन ऐसी संभावनाएं कम ही हैं। जिस प्रकार गुट[द्मद्मा खाने से तत्काल कुछ राहत मिलती है, परंतु आगे नुकसान होता है, वैसा ही असर ऋण का किसान पर होता है। किसान की समस्या ऋण या बीमा की नहीं, बल्कि कृषि उत्पादों के गिरते मूल्यों की है। महंगाई के अनुपात में देखें तो सरकार के द्वारा घोषित समर्थन मूल्य गिर रहे हैं। वर्ष 2011 से 2015 के बीच धान के समर्थन मूल्य में 36 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। इसी अवधि में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 42 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अर्थात कृषि उत्पादों के मूल्य महंगाई की तुलना में कम बढ़ रहे हैं। जैसे दो ट्रेन बगल चल रही हों, तो धीमे चलने वाली ट्रेन पिछड़ती दिखती है, यद्यपि वह भी आगे चल रही होती है।
इसी प्रकार मोबाइल, कपड़ा, बिजली आदि के मूल्य के सामने धान के मूल्य पिछड़ रहे हैं। कृषि उत्पादों के मूल्य पिछड़ने के कारण खेती घाटे का सौदा होती जा रही है। फलस्वरूप किसान ऋण लेने को मजबूर होता जा रहा है। ऋण लेने के बाद वे ब्याज और बीमा के प्रीमियम भी अदा करते हैं। उनकी आय पहले ही कम थी। अब उसमें एक हिस्सा सरकारी बैंकों तथा बीमा कंपनियों के हिस्से चला जाता है। किसान गरीब होता जा रहा है। किसान को राहत पहुंचानी है, तो केंद्र सरकार से कृषि मूल्यों में महंगाई से अधिक वृद्धि करनी चाहिए। तब किसान को मोबाइल खरीदने को पैसा होगा और ऋण लेने और बीमा की जरूरत नहीं रह जाएगी।
लेखक डा. भरत झुनझुनवाला , आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं