भारत में दलहन उत्पादन : एक परिद्रश्य?
भारतीय कृषि पद्धति में दालों की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है। दलहनी फसलें भूमि को आच्छाद प्रदान करती है जिससे भूमि का कटाव कम होता है। दलहनों में नत्रजन स्थिरिकरण का नैसर्गिक गुण होने के कारण वायुमण्डलीय नत्रजन को अपनी जड़ो में सिथर करके मृदा उर्वरता को भी बढ़ाती है। इनकी जड़ प्रणाली मूसला होने के कारण कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में भी इनकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। इन फसलों के दानों के छिलकों में प्रोटीन के अलावा फास्फोरस अन्य खनिज लवण काफी मात्रा में पाये जाते है जिससे पशुओं और मुर्गियों के महत्वपूर्ण रातब के रूप में इनका प्रयोग किया जाता है। दलहनी फसलें हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाती है जिससे भूमि में जीवांश पदार्थ तथा नत्रजन की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है। दालो के अलावा इनका प्रयोग मिठाइयाँ, नमकीन आदि व्यंजन बनाने मे किया जाता है। इन फसलों की खेती सीमान्त और कम उपजाऊ भूमियों मे की जा सकती है। कम अवधि की फसलें होने के कारण बहुफसली प्रणाली मे इनका महत्वपूर्ण योगदान है जिससे अन्न उत्पादन बढ़ाने में दलहनी फसलें सहायक सिद्ध हो रही है। भारत की प्रमुख दलहनी फसलों मे चना, मसूर, खेसरी, मटर, राजमा की खेती रबी ऋतु मे की जाती है।
दलहन उत्पादन: एक परिद्रश्य
संसार में दालो की खेती 70.6 मिलियन हैक्टर क्षेत्र में की जाती है जिससे 61.5 मिलियन टन उत्पादन ह¨ता है । दलहनो की विश्व ओसत उपज 871 किग्रा. प्रति हैक्टर है । भारत में दालों का उत्पादन मांग की तुलना में नहीं बढ़ रहा है। इससे बढ़ती जनसंख्या के कारण दलहनों की प्रति व्यक्ति खपत कम होती जा रही है। वर्ष 2005-06 के दौरान देश में दलहनों का कुल उत्पादन 134 लाख टन था जो 2006-07 में बढ़ कर 142 लाख टन और 2007-08 में बढ़कर 148 लाख टन हो गया।
दलहनो का उत्पादन बढ़ने की वजाय वर्ष 2008-09 में यह 145.7 लाख टन तथा वर्ष 2009-10 में 147 लाख टन रह गया । देश में दालों की कमी कोई नई बात नहीं है क्योंकि उत्पादन की तुलना में खपत अधिक होती है। एक अनुमान के अनुसार देश में दालों की वार्षिक खपत लगभग 180 लाख टन है जबकि उत्पादन 130 से 148 लाख टन के बीच घूम रहा है। इस प्रकार देश में 30-40 लाख टन दालो की कमी पड़ती है । अपनी खपत को पूरा करने के लिए भारत को प्रतिवर्ष 25-30 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता है। वर्तमान में दालो की कीमतें आसमान छू रही है । इससे देश में दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी कम होती जा रही है। वर्श 1951 में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता 60 ग्राम थी जो वर्ष 2010 में घट कर 34 ग्राम के आसपास आ गई जबकि अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार यह मात्रा 80 ग्राम होनी चाहिए।विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा विश्व खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रति दिन 104 ग्राम दालों की सस्तुति की गई है। दालो की उपलब्धता बढाने और इनके दामो पर अंकुष लगाने के लिए भारत सरकार ने दालों के निर्यात पर 2006 से लगी पाबंदी को बढ़ा दिया है।
भारत में दलहनी फसलो की पैदावार विकसित देशो की अपेक्षा काफी कम आती है। वर्ष 1971-2010 तक भारत में दलहनी फसलो के अन्तर्गत सिर्फ 10 प्रतिशत क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हुई है । विगत 20 वर्षो से दलहनो की ओसत उपज अमूमन स्थिर (1990 में 580 किग्रा. प्रति हैक्टर से वर्ष 2010 में लगभग 607 किग्रा. प्रति हैक्टर) भारत में सबसे ज्यादा (77 प्रतिशत) दलहन उत्पादन करने वाले प्रमुख राज्यो में मध्य प्रदेश (24 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश(16 %), महाराष्ट्र(14%), राजस्थान(6%), आन्ध्र प्रदेश (10%) और कर्नाटक (7 प्रतिशत) राज्य है । शेष 23 प्रतिशत उत्पादन में गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा और झारखण्ड राज्यो की हिस्सेदारी है ।भारत में प्रति व्यक्ति कम से कम दालो की न्यूनतमतम उपलब्धता 50 ग्राम प्रति दिन तथा बीज आदि के लिए 10 प्रतिशत दलहने उपलब्ध कराने के उद्देश्य से वर्ष 2030 तक 32 मिलियन टन दलहन उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है जिसके लिए हमें वार्षिक उत्पादन में 4.2 प्रतिवर्ष की बढ़ोत्तरी प्राप्त करनी होगी । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है की दलहनी फसलो की खेती भी अच्छी भूमिओ में बेहतर सस्य प्रबंधन के आधार पर की जाए।
दलहन उत्पादन के प्रमुख कारक
सुनिश्चित मूल्य और सुनिश्चित बाजार के कारण ही चार प्रमुख फसलों, गेहूं, चावल, गन्ना और कपास की पैदावार बढ़ी है। केवल इन चार फसलों पर ही बाजार टिका है । मुख्यतः इसी कारण दालों का उत्पादन नहीं बढ़ पाया है। यद्यपि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य तो घोषित कर रही है, किंतु पैदावार की सरकारी खरीद का कोई कारगर प्रणाली नही है। सुनिश्चित खरीद न होने के कारण किसानों को बाजार में सस्ते दामों में उपज बेचनी पड़ती है। इसलिए किसानों का दालों की खेती से रुझान कम हो रहा है। देशमें ऐसे क्षेत्रों को चिह्निंत किया जाए, जहां दलहन की खेती को प्रोत्साहन देने की आवष्यकता है। और इसके बाद धान-गेहूँ की तरह मंडियों का जाल बिछाया जाए। न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी के साथ-साथ सरकार को यह भी सुनिष्चित करना चाहिए कि दलहन की पूरी उपज की सरकारी खरीद की जाएगी। दालों की पैदावार के लिए बहुत उपजाऊ जमीन और अधिक पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती। साथ ही यह मिट्टी में नाइट्रोजन का स्तर भी बढ़ाती हैं। दालों की खेती को बढ़ावा देने से देश टिकाऊ खेती की दिशा में बढ़ेगा और किसान भी गरीबी के चक्रव्यूह से निकल पाएंगे। दलहन उत्पादन से संबंधित रणनीत बनाने से पूर्व देश में दलहनों की औसत पैदावार कम होने के कारणो की व्याख्या करना आवश्यक है । दलहन उत्पादन के प्रमुख कारको का विवरण यहां प्रस्तुत है -
1. जलवायु सम्बन्धी कारक
दलहनी फसलें जलवायु के प्रति अति संवेदनशील होती है। सूखा, पाला, निम्न और उच्च तापमान, जल मग्नता का दलहनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारत में 87 प्रतिशत क्षेत्र में दहलनों की खेती वर्षा पर निर्भर करती है। उत्तरी भारत में पाले के प्रकोप से दहलनों विशेषकर अरहर, चना, मसूर, मटर आदि की उत्पादकता कम हो जाती है। तराई क्षेत्र मे मृदा आद्रता अधिक होने के कारण उकठा रोग से दलहनों को क्षति होती है। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में सूखे के प्रकोप से दलहन उत्पादन कम होता है।
2. उच्च उपज वाली किस्मो का अभाव
दहलनें प्रचीन काल से ही सीमान्त क्षेत्रों में उगाई जाती रही है तथा आज भी व्यसायिक फसलों की श्रेणी में न आने के कारण, इन फसलों पर शोध कार्य सीमित हुआ है जिसके फलस्वरूप उच्च गुणवत्ता वाली लागत संवेदी किस्में उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं। दलहनी फसलों की कीट-रोग और सूखा रोधी का अभाव है।
3. अवैज्ञानिक सस्य प्रबन्ध
दलहनों की खेती बहुधा किसान अवैज्ञानिक ढंग से करते है जिसके कारण वांछित उपज नहीं मिलती है। प्रमुख सस्य प्रबन्ध कारण निम्न हैं-
(अ) खराब प्रबन्ध स्तर: शुष्क और सीमान्त क्षेत्रों के किसानों की आर्थिक दशा अच्छी नहीं होती है जिससे वे उन्नत किस्म के बीज, उर्वरक आदि का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा फसलो में जल प्रबन्ध, खरपतवारों, कीट - रोगो का प्रबन्धन भी नहीं हो पाता है जिसके कारण उत्पादकता कम आती है।
(ब) राइजोबियम जीवाणुओं के संवर्ध की अनुपलब्धता: दलहनी फसलों के लिए अलग-अलग जीवाणु संवर्ध की आवश्यकता होती है, परन्तु सभी दलहनों के जीवाणु संवर्ध अभी तक उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा राइजोबियम जीवाणुओं के लिए उचित तापक्रम नियंत्रक न होने के कारण, ज्यादातर संवर्धन (ब्नसजनतम) प्रभावहीन हो जाते हैं जिससे वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हो पाते हैं।
(स) समय पर बुआई न होना : सिंचाई सुविधा न होने के कारण प्रायः दलहनी फसलो की अगेती बोआई की जाती है जिसके कारण दलहनो की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है तथा उत्पादन कम हो पाता है।
(द) दोषयुक्त बुआई विधि : आमतौर पर दलहनी फसलों की बुआई छिटकवाँ विधि से की जाती हैं जिसके कारण बीज अंकुरण एक सार नहीं हो पाता है और प्रति इकाई ईष्टतम पौध संख्या स्थापित नहीं हो पाती है। निंदाई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण भी ठीक से नहीं हो पाता हैं, जिससे फसल उत्पादन कम प्राप्त होता है।
(इ) अक्षम कीट व रोग नियंत्रण : दलहनी फसल में प्रोटीन पदार्थ अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक होने से वे सरस होते हैं जिसके कारण कीट रोग अधिक लगता है। सीमान्त क्षेत्रों के किसान आर्थिक तंगी और अज्ञानता के कारण पौध संरक्षण उपायों को नहीं अपनाते हैं, जिससे उपज में भारी कमी आती है।
4. जैविक कारण
(अ) असीमित पौध वृद्धि: दलहनी पौधों की प्रकृति असीमित वृद्धि वाली होती है जिसके कारण पौधे के अग्र भाग की वृद्धि सतत् रूप से चलती है तथा पत्तियों के कक्ष में फूल और फलियों का निर्माण भी होता रहता है। इससे नीचे वाली फलियों के पकने के समय ऊपर वाली फलियाँ अपरिपक्व रहती हैं तथा ऊपर वाली फलियों के पकने तक नीचे वाली फलियों के दाने झड़ने लगते हैं। इस प्रकार से उपज में भारी कमी आती है।
(ब) प्रकाश एवं ताप के प्रति संवेदनशीलता: दलहनी फसलें प्रकाश व ताप के प्रति अति संवेदनशील होती हैं अर्थात् इनमें पुष्पन की क्रिया मौसम एवं जलवायु पर आधारित होती है। वर्षा पोषित क्षेत्रों में संचित नमी का उपयोग करने प्रायः बोआई जल्दी कर दी जाती है, जिससे फसल की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है। पौधे प्रकाश संवेदी होने के कारण उनमें पुश्पन तभी होता है जब उन्हें उचित प्रकाश व ताप उपलब्ध होता है। इसके विपरीत देर से बोआई करने पर फसल की वानस्पतिक वृद्धि काफी कम हो पाती है, क्योंकि जैसे ही पौधों को उपयुक्त मौसम प्राप्त होता है, उनमें पुष्पन हो जाता है। इस प्रकार से दोनों ही परिस्थितियों में उपज प्रभावित होती हैं।
(स) धान्य फसलें स्टार्च की पूर्ति के लिए उगाई जाती है, जबकि दलहनी फसलें प्रोटीन से भरपूर बीजों के लिए उगाई जाती है। प्रोटीन के निर्माण में फसल को ज्यादा ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है और फोटोसिंथेट की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है, जबकि स्टार्च उत्पादन में इसकी कम आवश्यकता पड़ती है इसलिए दलहनी फसलों की उत्पादकता तथा कटाई सूचकांक धान्य फसलों की अपेक्षा कम होता है।
(द) दलहनी फसलों में फूलों का झड़ना एवं फलियों के चटकने जैसी पैतृक बाधांये विद्यमान होती हैं, जो निश्चय ही इनकी उत्पादकता कम करती हैं। दलहनी फसलो में कीट-व्याधियों का प्रकोप भी अधिक होता है।
5. संस्थागत कारण : दहलनों की क्षेत्रवार उत्पादन तकनीक तथा उपलब्ध तकनीक का प्रसार न होने के काररण किसान परंपरागत विधि से ही इनकी खेती करते आ रहे है। उन्नत किस्म के कृषि यत्रो (बोआई एवं गहाई यंत्र) का अभाव है। भंडारण की उचित व्यवस्था का अभाव बना हुआ है। दलहनों मे प्रोटीन की अधिकता होने के कारण भंडारण के समय भी इनमे कीट - रोग का प्रकोप अधिक होता है। भंडारण की उचित व्यवस्था न होने तथा दाल मिलों की कमी होने के कारण कटाई के बाद भी दलहनो को कीट - व्याधियो से क्षति पहुँचती है जिससे दालो की उपलब्धता घटती है।
6. सामाजिक बाधायें: सीमान्त क्षेत्रो के किसानों मे यह आम धारणा रहती है कि दलहनों की खेती लाभकारी नहीं है। इसलिए इनकी खेती अनुपजाऊ भूमियो में बगैर खाद - उर्वरक के की जाती है। इसके अलावा दलहनों को ज्यादातर क्षेत्रों में मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है। इससे इनकी उपज कम प्राप्त होती है।
दलहन उत्पादन बढ़ाने की संभावनायें
खाद्यन्न उत्पादन के मामले में भारत ने न केवल आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है, अपितु खाद्यान्न के सुरक्षित भण्डार की व्यवस्था भी कर ली है । दलहन व तिलहनी फसलों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने के उद्देश्य से अब फसल विविधीकरण पर किसानो का ध्यान आकर्षित किया जा रहा है। राज्योदय के बाद से छत्तीगढ़ में भी फसल विविधीकरण योजना के तहत उच्चहन भूमि पर दलहन तिहलन फसलें लगाने किसानों कोे प्रेरित किया जा रहा है, जिसके उत्साहजनक परिणाम सामने आ रहे है। उपलब्ध नवीन तकनीक के माध्यम से छोटे किसान भी शत - प्रतिशत उत्पादन बढ़ा सकते है। दलहन उत्पादन बढ़ाने की दिशा में निम्न उपाय सार्थक हो सकते हैं -
(1) प्राचीन काल से ही उन्नत बीज कृषि का महत्वपूर्ण अंग रहा है। उर्वरा भूमि के बाद कृषि के लिए ऋषि ने उन्नत बीज को ही महत्व दिया है। उन्नत बीज केवल शुद्ध किस्मो से प्राप्त होता है और स्वस्थ बीज से ही उत्तम फसल मिलसकती है। देशी किस्मों की तुलना मे उन्नत किस्मों से उपज को दोगुना किया जा सकता है। वर्तमान में नये बीजों द्वारा पुराने बीजों का विस्थापन मात्र 7 प्रतिशत ही है, जो कम से कम 15 - 20 प्रतिशत होना चाहिए। अतः दलहनों का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्नत किस्मो के प्रमाणित बीजों की समय पर उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक है।
(2) प्रकाश एवं ताप असंवेदी किस्मो के विकास की आवश्यकता है जिससे फसल की परिपक्वता एक साथ होने से कटाई एक साथ हो सके ।
(3)किसानो को समय पर आवश्यक गुणवत्ता परक आदान जैसे उर्वरक, राइजोबियम कल्चर, बीज, उपकरण आदि उचित दर पर उपलब्ध कराना चाहिए ।
(4) दलहनी फसलों की बोआई छिंटकवाँ विधि से न करके कतारो में की जानी चाहिए तथा आवश्यकतानुसार खरपतवार, कीट और रोग नियंत्रण उपाय अपनाये जाने चाहिए।
(5) वर्तमान मे प्रति इकाई दलहनों की पैदावार काफी कम है। उन्नत विधि से खेती करके उपज में प्रति हेक्टेयर 2 से 4 क्विंटल की बढ़त की जा सकती है जिससे राष्ट्रीय उपज व प्रति व्यक्ति उपलब्धता में बढ़ोत्तरी हो सकती है। क्योंकि अनुसंधानों में ही नहीं बल्कि किसानों के खेतों पर डाले गये प्रदर्शनों में अरहर से 58 व मूंग की उपज में 55 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है।
(6) धान्य फसलो के साथ दलहनों की बहुफसली पद्धति व अंतः फसली खेती करके अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता है।
(7) धान उत्पादक क्षेत्रों में धान के खेतों की मेड़ पर 2 से 4 कतारे अरहर (तुअर) की लगाकर बोनस उपज का लाभ लिया जा सकता है।
(8) खरीफ और रबी फसलों के बीच सिंचित क्षेत्रों में मूंग, उड़द, लोबिया आदि की खेती आसानी से की जा सकती है ।
(9) दलहनी फसलो में 1-2 सिंचाई देने से उपज में अच्छी बढ़¨त्तरी की जा सकती है ।
(10) खरीफ ऋतु में लगाई जाने वाली दलहनी फसलो के लिए खेत में जल निकास की व्यवस्था करने से उपज में निश्चित बढ़ोत्तरी होती है । अधिक वर्षा या जल भरावसे फसल को नुकसान होता है ।
(11) दलहनी फसलो में कीट-रोगो का प्रकोप अधिक होता है जिससे उपज में भारी क्षति हो जाती है । समय पर पौध संरक्षण के उपाय उप्नाने से उपज को बढाया जा सकता है ।
(12) दलहनों की समर्थन मूल्य पर खरीदी करने की व्यापक व्यवस्था ह¨नी चाहिए तथा दलहनो के प्रसंस्करण की सुविधा एवं भंडारण की उचित व्यवस्था करने से दलहनों की खेती को बढ़ावा मिल सकता है।