आड़ू की फसल से अधिक लाभ कैसे लें
किसान साथियों इस समय बरेली क्षेत्र में आड़ू के पेड़ों के ऊपर फल पक रहे हैं । बरेली जनपद में आम, अमरूद, व लीची के बाद आड़ू चौथी प्रमुख बागानी फसल है। वैसे तो आड़ू पर्वतीय क्षेत्र की मुख्य फसल है । लेकिन इसकी कुछ प्रजातियां समशीतोष्ण जलवायु, जैसे पंजाब से लेकर तराई भाभर, उत्तरी उत्तर प्रदेश व बिहार तक सफलतापूर्वक की जाती है। आड़ू एक बहुत ही स्वास्थ्य वर्धक फल है। आडू पेट के कीड़ों के लिए भी बहुत मुफीद माना गया है। विशेष रूप से कच्चा आड़ू सुबह-सुबह निहार मुंह खाने से पेट के कीड़े निकलने मे सहायता मिलती है। इससे अनेक उत्पाद भी बनाए जाते हैं। जैसे जैम, मार्मलेड, जैली, आडू का शरबत, जूस आदि।
समशीतोष्ण जलवायु (बरेली क्षेत्र) की फसल पर्वतीय क्षेत्र से आने वाले आड़ू की फसल से एक माह पहले बाजार में आ जाती है। चूंकि उस समय बाजार में आम, लीची की फलत भी नहीं आयी होती है, इसलिए नए फल के रूप में आडू का बाजार में स्वागत स्वरुप दाम भी अच्छा मिलता है। सामान्य रूप से किसान के खेत से आडू ₹35 से ₹40 प्रति किलो आसानी से बिक जाता है । जबकि यही आडू बाजार में 50 - 60 रुपए किलो फुटकर में बिकता है।
आडू की खेती करने के कुछ वैज्ञानिक सुझाव इस प्रकार हैं:
आड़ू ऐसी भूमि में लगाया जाए, जहां पानी ना ठहरता हो। आडू के लिए बलुई -दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त रहती है। आडू लगाने का सबसे उपयुक्त समय 15 दिसंबर से 30 जनवरी है। इसके पौधे 5 X 5 मीटर की दूरी पर लगाने चाहिए। इस प्रकार लगाने से 1 एकड़ खेत में लगभग 150 पौधे लगते हैं। पौधे लगाने से 1 माह पूर्व यानि नवंबर में 2 फुट गोलाई के गड्ढे खोद लें तथा गड्ढों को 20 किलो गोबर की खाद, 10 ग्राम ट्राइकोडरमा, 250 ग्राम नीम की खल, 25 ग्राम कॉपर सल्फेट, 25 ग्राम जिंक सल्फेट, मिलाकर बंद कर देना चाहिए। एक माह बाद गड्ढों का वातावरण पौधे लगाने के लिए उपयुक्त हो जाता है, तब 100 ग्राम एनपीके, आडू के पौधे लगाते समय गड्ढे की मिट्टी में मिला देना चाहिए ।
आड़ू के पौधे किसी पंजीकृत नर्सरी जैसे पंतनगर विश्वविद्यालय, जिला उद्यान विभाग, कंपनी गार्डन सहारनपुर, जिला उद्यान विभाग-मेरठ, मुरादाबाद, बरेली, बस्ती, लखनऊ आदि से प्राप्त किए जा सकते हैं। समशीतोष्ण जलवायु जैसा कि बरेली जनपद की है इसके लिए उपयुक्त प्रजातियां हैं; सहारनपुर प्रभात, शाने पंजाब, फ्लोरिडासन व शरबती। सहारनपुर प्रभात आड़ू की सबसे अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। यदि आप अप्रैल के पहले हफ्ते में आडू खाना चाहते हैं, तो फ्लोरिडॉसन लगाएं। जो लोग बहुत मीठा आडू खाना चाहते हैं, वह शरवती किस्म लगायें पर यह किस्म जुलाई में पकती है।
आड़ू के पौधों से 3 साल बाद पैदावार मिलना शुरू हो जाती है। अच्छी पैदावार पांच साल बाद मिलती है। सहारनपुर प्रभात सबसे ज्यादा पैदावार देने वाली प्रजाति है। इसके एक पौधे से 40 से 60 किलो तक आडू प्राप्त होता है। आड़ू की फसल को प्रतिवर्ष दिसंबर-जनवरी माह में खाद उर्वरक देना आवश्यक होता है । इसके लिए 20 से 30 किलो गोबर की खाद, ढाई किलो एनपीके साथ में 50 ग्राम कॉपर सल्फेट 50 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति पौधा देना चाहिए।
आड़ू में फूल फरवरी-मार्च महीने में आते हैं तथा फल बनने की अवस्था पर प्रत्येक पौधे के थावले में 50 ग्राम बोरेक्स (सुहागा) भी देना चाहिए। इससे फल बढ़वार पकड़ने पर काले होकर कर नही गिरते हैं। नियमित संतुलित खुराक ना देने से एक तरफ पौधे कमजोर हो जाते हैं। दूसरी तरफ फलत आने पर फल बढ़वार की अवस्था पर अधिक गिरते हैं।
कीट व रोग प्रबंधन
आड़ू की फसल को अनेकों कीट एवं बीमारी नुकसान पहुंचाते हैं। कीटों में सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाला कीट तना छेदक है। यह कीट ऐसे पौधों को बहुत नुकसान पहुंचाता है, जिनमें कैंकर या गमोसिस रोग लगे होते हैं। कीट की सूंडियां पेड़ तने में छेद कर, अंदर के भाग को खाती हैं। जिससे पौधा धीरे-धीरे करके सूख जाता है। कीट के प्रबंधन हेतु बाग की नियमित जुताई करते रहे।समय पर खरपतवार नियंत्रण करते रहे । प्रभावित पौधों पर कीट की बनाई सुरंगों की पहचान करके, उनमें पेट्रोल अथवा मेलाथियान कीटनाशक के घोल मे डूबी हुई रुई के फाहे को सुरंग में अच्छी तरह भर देते है व उसके मुंह को चिकनी मिट्टी से बंद कर देते हैं। यह क्रिया वर्ष में दो बार जून-जुलाई व फरवरी-मार्च में करने से कीट के ऊपर प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।
माइट माइट का प्रकोप पत्ती की निचली सतह पर होता है, जिससे पत्ती सिकुड़ने लगती है व नीचे की तरफ मुड़कर बेलन की आकृति बनाती है। इससे पौधे कमजोर होने लगते हैंव उत्पादन प्रभावित होता है। इस कीट के नियंत्रण के लिए डायको फोल नामक रसायन का 2 मिली /लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें ।
आड़ू की फसल को बीटल भी नुकसान पहुंचाता है। जब आड़ू के फल छोटे होते हैं तो बीटल उन फलों को खुरच कर खाता है जिससे फल बड़े होने पर बीमारी ग्रस्त हो जाते हैं और बाजार में बिक्री के योग्य नहीं रहते। इस कीट के नियंत्रण के लिए पेड़ के थावलों की नियमित गुड़ाई करते रहे। बाग में सफाई साफ सफाई का ध्यान रखें।
रोगों में मुख्य रूप से स्टेम कैंकर एवं गमोंसिस बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए कॉपर सल्फेट 125 ग्राम प्रति पौधा थावले में जुलाई माह में मिलाएं। पेड़ों के ऊपर कॉपर ऑक्सिक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर की दर से दो स्प्रे जुलाई व अगस्त माह में करें ।
फलों का सड़ना; आडू में ब्राउन राट नामक रोग फलों को बहुत नुकसान पहुंचाता है। जब फल पकने की अवस्था पर आते हैं तो फलों के ऊपर लाल भूरे धब्बे पड़ना शुरू हो जाते हैं। और फल तेजी से जमीन में गिरते हैं। प्रभावित फलों को पेड़ से तोड़कर अथवा जमीन से एकत्र करके नष्ट कर देना चाहिए। और पेड़ों के ऊपर डाय-ईथेन एम पैतालीस नामक रसायन का 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
आड़ू के फलों में फल मक्खी की समस्या बहुत आती है। इसके लिए फल मक्खी प्रपंच 8 प्रपंच प्रति एकड़ की दर से बाग में जगह-जगह टांगना चाहिए।
तुड़ाई के समय ध्यान रखने योग्य बातें
आडू के फलों की तुड़ाई कुछ पत्तों व डंडी सहित करनी चाहिए। जिससे नई कली आती है। अगले वर्ष उस पर फूल आ जाता है। आड़ू की फसल जुलाई में पूरी तरह से तोड़ ली जाती है। जुलाई से फरवरी तक आड़ू के बागों में पेठे की एक अतिरिक्त सह फसली खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। इसके लिए अप्रैल माह में ही पेड़ों की दो लाइनों के बीच में दो 2 मीटर की दूरी पर थावले बनाकर उसमें पेठे के बीजों को बो देना चाहिए। जब पेठे की बेले चार- पांच फीट की हो जाएं तब पेड़ों से सहारा लेकर सुतली व डोरी का मचान बना दें और बेलों को उन पर फैला दें। 1 एकड़ खेत से लगभग 200 कुंटल तक पेठा प्राप्त किया जा सकता है।
इस प्रकार किसान साथियों वैज्ञानिक विधि से यदि आप आड़ू के बाग की फसल करेंगे और साथ में सहफसली खेती के रूप में पेठा करेंगे तो आप पाएंगे कि अन्य फसलों की तुलना में यह मिश्रित खेती बहुत ही लाभदायक है।
रंजीत सिंह (विषय वस्तु विशेषज्ञ उद्यान)
डॉ आर के सिंह, अध्यक्ष कृषि विज्ञान केंद्र बरेली