ऑवला के बाग को कीड़ों से रखें

ऑवला के बाग को कीड़ों से रखें मुक आंवला अपने अद्वितीय औषधीय एवं पोषक गुणों के कारण भारतीय पौराणिक सहित्य में इस फल को जीवन दात्री अथवा अमृत फल के समान लाभकारी माना है। ऑवला कम रख रखाव में भी अधिक उत्पादन एवं आय प्राप्त कराता है, तथा मुख्य फलों की तुलना में इसमें विपरीत परिस्थितियों को सहने की क्षमता अधिक होती है। आंवले की विषेषताऐं प्रति ईकाई उच्च उत्पादकता (15-20टन /हे.) विभिन्न प्रकार की बंजर भूमि (ऊसर, बीहड़, खादर, षुष्क , अर्धषुष्क ) हेतु उपयुक्तता, पोषण एवं औषधीय गुणों से भरपूर तथा विभिन्न रूपांे में उपयोगी। आंवला के विभिन्न भागों में विषेष औषधीय गुण होेते है, आंवला त्रिदेाष वात, पित, कफनासक होता है, यह षरीर की त्वचा, सिर के बाल, नेत्रो की ज्योति, मुंह के दांत मसुडे़, कब्ज और पेट के पाचन तंत्र के लिये अत्यंत गुणकारी है। आंवला में विटामिन ‘सी ‘ की मात्रा अन्य फलों से बहुत अधिक मात्रा में (500-750 मिली ग्राम प्रति 100ग्राम खाध भाग) पाई जाती हैं। फल औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है, इससे प्रसिद्ध औषधि च्वनप्राष और त्रिफला में आंवला एक प्रमुख घटक है, इसके फल से मुरब्बा, जैम, अचार, चटनी, सिरप, सूखी चिप्स, टाफी, पाउडर आदि परिरक्षित पदार्थ तैयार किये जाते है। फल द्वारा आंवला का तेल व षैम्पू भी तैयार किया जाता है। प्रस्तुत लेख में ऑवला में लगने वाले कीट एवं नियंत्रण के बारे में विस्तार में दिया जा रहा है। कीडे़ एवं नियंत्रण:- ऑवला में लगने वाले कीट में छाल भक्षी/छालखाने वाली सुण्डी (इल्ली), शूट गाल मेकर , स्केल कीट (षल्क कीट) एवं दीमक मुख्य कीट माने जाते हैं। छालभक्षी कीट/ छाल खाने वाला कीटः- यह कीट जिन बागों की ठीक से देख-भाल नहीं होती, उनमें छालभक्षी कीट का इनडरबेला टेट्राओनिस का प्रकोप अधिक पाया जाता है। इस कीड़े की इल्ली तने एवं मुख्य शाखाओं में घुसकर छाल को खाते एवं छेद करते हैं। जिसकी पहचान प्ररोहों, शाखाओं एवं तनों पर बनायी गयी अनियमित सुरंगों से होती है, जो रेषमी जालों, जिसमें चबायी हुई छाल के टुकड़े छिद्र के पास बुरादे जैसा चाकलेटी रंग का अवशेष छोड़ता है और उनके मल सम्मिलित होते हैं, से ढकी होती है। इसके आवासीय छिद्र विषेष कर प्ररोहों एवं शाखाओं के जोड़ पर देखे जा सकते हैं । प्ररोह सूख कर मर जाते हैं, जिससे पेड़ बीमार सा दिखायी देता है। नियंत्रणः- इस कीट के प्रकोप को रोकने के लिए छिद्र की सफाई करके छिद्रों में बारीक तार डालकर कीड़ों को मार देना चाहिए । अधिक प्रकोप होने पर सुरंगों एवं आवासीय छिद्रों को साफ कर रूई के फाये को 0.025 प्रतिषत डाइक्लोरवॉस के घोल में भिगो कर छिद्रों में या छिद्रों में एक भाग मेटासिस्टाक्स या डाईमिथोएट और 10 भाग मिट्टी का तेल मिलाकर और उसमें रूई भिगोकर छिद्रों में डालकर, गीली मिट्टी से छिद्रों बन्द कर देना चाहिए या 0.05 प्रतिषत मोनोक्रोटोफॉस या 0.05 प्रतिषत क्लोरपाइरीफॅास का घोल बनाकर छिद्रों में इन्जेक्षन वाली सूई द्वारा डाल कर गीली मिट्टी से बन्द कर देना चाहिए । शूट गाल मेकर:- इसकी छोटी इल्लियाँ छोटे पौधों एवं पुराने फलदार वृक्षों की शाखाओं के शीर्ष भाग में छेदकर भीतर घुस जाती है, जिससे ग्रसित भाग फूल कर गॉल (पीटिका) या गाँठ के रूप में दिखाई देने लगता है। जिसमें काले रंग का कीड़ा पाया जाता है। प्रकोप के शुरूआत में तनों/प्ररोहों के अग्र भाग में सूजन सी आ जाती है जो समय के साथ - साथ बड़ी होकर पिटिका या गॉल का आकार ले लेती है। इसके गम्भीर प्रकोप अवस्था में पेड़ की शाखाओं का शीर्ष भाग बढ़ना बंद हो जाता है। जिससे पुष्पन और फलन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। नियंत्रण:- इस कीट के प्रकोप को रोकने के लिए मार्च के महीने में जब पेड़ की पत्तियाँ झड़ जायें उस समय गाल वाली प्ररोहों की पहचान आसानी से की जा सकती, । वैसे गाल ( गांठ ) वाली प्ररोहों को समय - समय पर काट कर कीड़ों को सहित जला देना चाहिए । काटकर गांठ के काटने पर पौधे की जो वृद्वि रूक गई हो वह पुनः शुरू हो जाती है। सूट गाल मेकर की मादा मई महीने में रात्रि के समय अण्डे देकर भाग जाती है। ऐसी दषा में 3 मि. ली. डाइमेक्रान/रोगर 10 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव कर देने से अण्डे और गिडारें मर जाती हैं। जिन बागों में इसका लगातार प्रकोप होता है वहां मौसम के शुरूआत में मोनोक्रोटोफास या पैराथियान या मेटासिस्टाक्स कीटनाषक दवा का 10 से 20 मि. ली. दवा, 10 लीटर पानी में घोलकर, पौधे में अच्छा छिड़काव करना चाहिये, आवष्यकता पड़ने पर इसका दूसरा छिड़काव 15 दिनों के बाद किया जा सकता है एवं जुलाई-अगस्त में मोनोक्रोटोफोस 1.25 मि.ली. प्रति लीटर पानी या फास्फेमिडान 0.6 मि. ली. प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करके काफी हद तक क्षति को रोका जा सकता है। शल्यकीट:- आवंलें की पत्तियों मंे फरवरी-मार्च में यह कीट आक्रमण करता है। इस कीट की पहचान यह है कि उसमें पत्तों पर चीटें लगने लगते है। ये कीट सूक्ष्म तथा हल्के पीले रंग के होते हैं। इनके झुंड के झुंउ पत्तियों, टहनियों तथा फूलों पर चिपके रहते हैं और उनका रस चूसते हैं। सफेद रूई जैसे पदार्थ से ये कीट ढ़के रहते हैं। प्रौढ़ एवं षिषु कीट एक प्रकार का मीठा तरल पदार्थ निकालते हैं, जिससे काली फफूँदी से पत्तियों का प्रकाष संष्लेषण रूक जाता है । इसके फलस्वरूप पौधों की वृद्धि रूक जाती है व उपज में कमी हो जाती है। अत्यधिक प्रकोप होने पर पौधे भी सूख जाते हैं। नियंत्रणः- इसके नियंत्रण के लिये रोगर या डेमाक्रान या मोनोक्रोटोफास किसी भी एक कीटनाषक दवा को 10 से 20 मि. ली. दवा 10 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। जिसके फलस्वरूप यह कीट जमीन पर गिर जाते हैं और फिर दोबारा यह तनो पर चड़नें लगते हैं। इसलिए दवा छिडकाव करते समय पौधों के थालो के पास भी छिडकाव 6-7 दिन के अंतर पर करें और आस-पास खरपतवार को उगने न दे, नही तो यह कीट इन खरपतवारों पर चले जायेंगें और जैसे ही दवा का असर कम होगा वैसे ही दोबारा आक्रमण करेंगें। दीमक:- दीमक एक बहतु बडी़ समस्या है छाटेे पौधेे दीमक से अधिक प्रभावित होते हैं, इसलिए पौधे लगाते समय अच्छी तरह से सड़ी गली गोबर की खाद प्रयोग में ली जानी चाहिए। गड्ढ़ा भरते समय पौधे लगाने से पहले 50 मि. ली. क्लोरपाईरिफोस 20 ई.सी. को 5 ली. पानी में मिलाकर प्रति गड्ढ़ा डालें। दवाई का घोल डालने से पहले प्रत्येक गढ़े में 2-3 बाल्टी पानी लगा दें। नये पौधे लगाने के बाद, लगे हुए पौधों में 1 लीटर क्लोरपाईरिफोस 20 ई.सी. या 1 लीटर एण्डोसल्फान 35 ईसी प्रति एकड सिचाई करते समय डालें।

जैविक खेती: