जड़ युक्त सब्जियों की जैविक खेती
हमारे जीवन में हरी पत्तेदार व जड़ वाली सब्जियों का महत्व है। जिसमें शलजम, मूली, गाजर, अरबी, कमल आदि अति आवश्यक है, जिसका अनुमान हम इस तथ्य से स्पष्ट कर सकते हैं कि विश्व में लगभग 46 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं। भारत में कुल जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा, विशेषकर महिलाएॅं तथा बच्चे कुपोषण से ग्रस्त हैं, जिसका मुख्य कारण आहार में कम सब्जियों का उपयोग होना है। आहार विशेषज्ञों के अनुसार संतुलित आहार में प्रतिदिन मनुष्य को 285 ग्राम सब्जियाॅं लेनी चाहिए, जिसमें 100 ग्राम जड़ व कन्दीय सब्जियाॅं, 115 ग्राम पत्तेदार सब्जियाॅं एवं 75 ग्राम अन्य सब्जियाॅं होनी चाहिए।
जड़ वाली सब्जियों में विभिन्न प्रकार के विटामिन ए, एस्कार्बिक अम्ल, लोहा, कैल्शियम, फास्फोरस, पोटेशियम तथा अमीनों अम्ल की पूर्ति होती है। साथ ही हम कुपोषण की समस्या से मुक्त हो सकते हैं तथा शारीरिक व मानसिक कमजोरी/अस्वस्थता को भी दूर कर सकते हैं विभिन्न प्रकार की सब्जियों में पेट के विकार को दूर करने की क्षमता के साथ-साथ भोजन को पचाने की शक्ति भी होती है।
फसल उत्पादन के लिए रासायनिक उर्वरकों के लगातार व ज्यादा मात्रा में प्रयोग करने पर मृदा की उत्पादकता, उर्वरता, शक्ति एवं सब्जियों की गुणवत्ता व भंडारण क्षमता में गिरावट आ रही है। इसका कारण यह है कि जड़ वाली सब्जियों व अन्य खाद्य पदार्थों को उगाने में नत्रजन का प्रयोग सर्वाधिक होता है। ज्यादा नाइट्रेट उर्वरकों के प्रयोग से मृदा एवं भूमिगत जल लगातार प्रदूषित हो रहे हैं, जो मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। अतः कार्बनिक खादों के प्रयोग से मृदा की उर्वरता व उत्पादन के टिकाऊपन को बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कार्बनिक खादों का मूल्य कम होता है, किन्तु उत्पादन का मूल्य अधिक मिलता है। अतः इनके इस्तेमाल से कम लागत पर जड़ वाली सब्जियाॅं उगाई जा सकती हैं तथा सब्जियों की गुणवत्ता अधिक उत्पादन एवं भूमि की उर्वरकता को बनाए रखा जा सकता है।
कार्बनिक खादों को जड़ वाली सब्जियों में बुवाई या रोपाई के 10-15 दिन पूर्व प्रयोग करना चाहिए। कार्बनिक खाद अच्छे से तैयार होना चाहिए, अन्यथा कीट एवं व्याधियों को आश्रय प्रदान करती है। कार्बनिक खेती में जैविक उर्वरकों जैसे एजोस्पाइरिलम, एजोटोबैक्टर, राइजोबियम, फाॅस्फेट, बायोजाइम (दानेदार एवं तरल), घुलनशील बनाने वाले सूक्ष्म जीव, वैस्कुलर आरवेस्कुलर कवक आदि के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाता है। इसके उपयोग से गुणवत्ता अधिक उत्पादन होने के साथ-साथ हानिकारक रसायनिक उर्वरकों की मात्रा में भी कटौती की जाती है। यही जैविक खेती कहलाती है।
जैविक खेती को प्राकृतिक खेती, कार्बनिक खेती तथा रसायन विहीन खेती आदि नामों से भी जाना जाता है। इसका उद्देश्य इस प्रकार से फसल उगाना है कि मृदा, जल एवं वायु को प्रदूषित किए बगैर दीर्घकालीन उत्पादन लिया जा सके। इसके लिए कई जैविक स्रोत का उपयोग किया जाता है। जैसे सम्बन्धित कम्पोस्ट, हरी खाद, जैविक उर्वरक, दलहनी फसलों का फसल चक्र में समावेश तथा फसल अवशेषों का उपयोग।
जैविक खेती के घटक
प्राथमिक स्रोत:- (1) गोबर की खाद अर्थात कम्पोस्ट (2) हरी खाद सनई, ढैंचा, लोबिया आदि (3) जैव उर्वरक राइजोबियम, एजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम, पीएसबी, बायोजाइम (समुद्री बूटी) आदि। (4) केंचुए की खाद (वर्मी कम्पोस्ट), मुर्गी खाद (5) कीड़े एवं रोग का जैविक नियंत्रण ट्रोइकोग्रामा ट्राइकोडर्मा, एनपीवी, फेरोमोन ट्रेप, नीम उत्पाद, ट्रेप फसल आदि।
पूरक स्रोत: (1) वानस्पतिक अवशिष्ठ जैसे- खलियाॅं, पुआल, भूसा एवं फसल अवशेष आदि। (2) जानवरों के अवशिष्ठ हड्डी का चूरा, मछली की खाद, खून आदि। (3) चीनी मिल की खाद (प्रेसमड), (4) जानवरों की अवशिष्ठ- हड्डी का चूरा, मछली की खाद, खून आदि। (5) कार्पेट अवशिष्ठ (ऊनी कालीन की कतरन)
जैव उर्वरक प्रयोग में सावधानियाॅं
(1) राईजोबियम जीवाणु फसल विशिष्ट होता है। अतः पैकिट पर लिखी फसल में ही प्रयोग करें। (2) जैव उवैरक के पैकेट को धूप व गर्मी से दूर किसी ठंडी जगह में रखें (3) जैव उर्वरक या जैव उर्वरक उपचारित बीजों को किसी भी रसायन या रासायनिक खाद के साथ न मिलायें। (4) यदि बीजों पर फफूंदीनाशी का प्रयोग करना हो तो बीजों को पहले फफूंदीनाशी से उपचारित करें, फिर जैव उर्वरक से उपचारित करें। (5) जैव उर्वरक का प्रयोग पैकेट पर लिखी अंतिम तिथि से पहले ही कर लेना चाहिए।
सब्जी उत्पादन में जैविक खेती का महत्व
(1) मृदा साल भर ढकी रहती है, जिस कारण क्षरण कम से कम होता है। (2) कम जुताई करने की वह से मुदा सख्त नहीं हो पाती है। (3) जानवरों के अवशिष्ठ, फसलों के अवशेषों और दूसरी सम्पदाओं के कारण मृदा की उर्वरता बनी रहती है। मृदा में जैविक पदार्थों, अंशों की मात्रा बढ़ जाती है। (4) फसल चक्र अपनाने से विविधता बढ़ जाती है। (5) बेहतरीन प्रबंधन तकनीकों को अपनाकर पौधे को संतुलित पोषक तत्वों की आपूर्ति की जाती है, पर साथ ही इतना ध्यान भी रखा जाता है कि जल प्रदूषित न होने पाये। (6) खेत में दालें और चारे की फसल लगाई जाती है। (7) मित्र कीटों और सूक्ष्मजीवियों की संख्या बढ़ाने के लिए खेत के चारों तरफ उगे पौधों और अन्य वनस्पतियों पर भी ध्यान दिया जाता है। (8) मित्र कीटों और परभक्षियों की सुरक्षा, भोजन, आश्रय पर पूरा ध्यान दिया जाता है। (9) वातावरण को रसायनों से होने वाले प्रदूषण में कमी आती है।
जलवायु व मिट्टी
सब्जियों का उत्पादन बहुत ही सावधानीपूर्वक व वैज्ञानिक ढंग से किया जाने वाला कार्य है, जिसमें लगातार सतर्क रहने की आवश्यकता है। जड़ वाली सब्जियों की अच्छी फसल ठंडी व नम जलवायु में होती है। इसके बीज का अंकुरण 10-15 सेंटीमीटर भूमि तापमान पर होता है। लेकिन छोटी, जल्दी बढ़ने वाली किस्में रेतीली दोमट भूमि में और बड़ी पछेती किस्में दोमट, मटियार-दोमट भूमि में अच्छी पैदावार देती हैं। भूमि में जल निकास की अच्छी व्यवव्था होनी चाहिए। फसल सब्जी उत्पादन के लिए क्षेत्र विशेष हेतु भूमि व जलवायु के अनुकूल संस्तुत की गई उन्नतशील किस्मों के बीजों का होना आवश्यक है। बीज विश्वसनीय संस्थान से ही प्राप्त करें। बीज प्रमाणित, शुद्ध, अच्छी जमाव क्षमता का रोग रहित होना चाहिए। बीज क्रय करते समय पैकेट पर पैकिंग तिथि तथा अवसान तिथि अवश्य देख लें।
खेत की तैयारी
3-4 बार खेत की जुताई व पटेला लगातार खेत की मिट्टी भुरभुरी व समतल हो जाती है। जुताई के पहले गोबर व खाद व उर्वरकों को मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। अच्छे जल निकास वाली जीवांशयुक्त उपजाऊ दोमट भूमि जड़ वाली सब्जियों की खेती के लिए उपयुक्त होती है। खेत की अच्छी तरह से जुताई करके उसमें आवश्यकतानुसार पकी गोबर की खाद मिलानी चाहिए। सम्पूर्ण खेत को छोटी-छोटी क्यारियों में बांट लेना चाहिए। क्यारी 10 मीटर लम्बी, 1-1.5 मीटर चैड़ी तथा जमीन से 15 सेंटीमीटर ऊॅंची होनी चाहिए, जिससे निराई-गुड़ाई में परेशानी न हो तथा क्यारी में 15-20 किलोग्राम पकी गोबर की खाद अच्छी तरह मिला देते हैं।
बुवाई
जिस भूमि में इन फसलों को लगाना हो, उसकी अच्छी प्रकार से जुताई करके मिट्टी को अच्छी प्रकार भुरभुरी बना लेना चाहिए। अब इस भूमि में बुवाई से पूर्व लाइन बना देनी चाहिए, अर्थात् अच्छी पैदावार के लिए लाइन से बुवाई करनी चाहिए।
सिंचाई, निराई, गुड़ाई व खरपतवार
जड़ वाली सब्जियों की अच्छी फसल लेने के लिए खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए। अगर बुवाई समय जमीन में नमी की कमी है, तो पहली सिंचाई-बुवाई के तुरंत बाद करते हैं। दूसरी सिंचाई पहली सिंचाई के 15-20 दिन बाद आवश्यकतानुसार करते हैं। पूरी फसल में 3-4 सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। पहली निराई-गुड़ाई बुवाई के 20 से 25 दिन के पश्चात करनी चाहिए। कुल 2-3 निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। अतः खुरपी से हल्की निराई-गुड़ाई करनी चाहिए, ताकि जड़ों को कोई नुकसान न पहुॅंचे तथा पौधों की जड़ पर मिट्टी भी चढ़ानी चाहिए। जिससे पौधे की जड़ का विकास अच्छा हो। खरपतवार नियंत्रण के लिए 1.20 किलोग्राम फ्लूक्लोरालिन 25 किलोग्राम, एलाक्लोर 2 किलोग्राम, बासालीन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करते हैं।
खाद
उत्पादक एवं गुणवत्ता बढ़ाने हेतु 20-25 किलोग्राम बायोजाइम गे्रन्यूल एवं 200-250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पकी गोबर की खाद के साथ खेत की तैयारी के समय प्रयोग करें एवं बायोजाइम वेजीटेबल (तरल) की 400-500 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर में तीन छिड़काव 20-25 दिन के अंतर पर करें।
कीट एवं रोग नियंत्रण
आधुनिक तकनीक के अनुसार किसान 200 ग्राम ट्राइकोडर्मा को 100 किलोग्राम पूर्णरूप से पकी एवं नम गोबर की खाद (कम्पोस्ट) में अच्छी प्रकार मिला लें तथा उसे एक दो दिनों तक के लिए छाया में पाॅलीथीन से ढक कर रखें। इससे ट्राइकोडर्मा में मिली कम्पोस्ट को फैलाकर 6 इंच मोटी परत बना लें तथा उस पर बीज की बुवाई करें। इस विधि से पौधे का विकास भी अच्छा होता है तथा उनमें आर्द्र गलन अथवा पौध गलन रोग का प्रकोप भी नहीं होता।
पौधों में आर्द्रगलन बीमारी से बचाव करने के लिए मृदा सौरीकरण एवं रसायन के अलावा जैविक विधि से भूमि शोधन भी काफी फायदेमंद है। ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियाॅं, सुडोमोनास फ्लोरोसंस तथा एस्परजिलस नाइजर को प्रयोग कर बीज शोधन एवं भूमि में प्रयोग किया जा सकता है। जैव नियंत्रक पदार्थ 10 से 25 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें, उसके एक-दो दिन बाद बीज की बुवाई करें।
बुवाई के समय
बुवाई से पूर्व खेत की अच्छी प्रकार तैयारी कर लें। खेत की तैयारी के समय मिलने वाली व्हाइट ग्रब एवं कट वर्म की सूंडियों को एकत्र कर नष्ट करें।
बीज की बुवाई से पूर्व ट्राइकोडर्मा की 250 ग्राम मात्रा 10 लीटर पानी में मिलाकर पौधों की जड़ों को 10 मिनट के लिए घोल में उपचारित करने के बाद बुवाई करें। फसलों में नुकसान पहुॅंचाने वाली सभी मृदा जनित बीमारियों के नियंत्रण हेतु 1-2 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा को 500 किलोग्राम पूर्णरूप से पकी और नम गोबर की खाद (कम्पोस्ट) में अच्छी प्रकार मिला लें तथा एक दो दिनों के लिए उसे छाये में पाॅलीथीन से ढक दें।
बुवाई से पूर्व ट्राइकोडर्मा और कम्पोस्ट के इस मिश्रण को एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में छिड़काव कर दें अथवा फैला दें। यह ध्यान दें कि कम्पोस्ट के छिड़काव के बाद मिट्टी में समुचित नमी बनी रहे। व्हाइट बटरफ्लाई पीले रंग के अंडे समूहों में देती है। व्हाइट कैटरपिलर के वयस्क भी अपने अंडे समूह में देते हैं, जो भूरे रंग के रोयेंदार संरचना से ढके रहते हैं। इन कीटों की सूंडियाॅं भी श्ुारू की अवस्था में समूह में रहती हैं। अतः किसानों को फसल की निगरानी के समय मिलने वाले अंडों और सूंडियों के समूहों को पत्तियों के साथ तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए। इससे इन कीटों का प्रकोप कम हो जाता है।
फसल की निगरानी के समय यदि ब्लैंक स्पाॅट और ब्लैक राॅट का प्रकोप दिखाई दे तो शुय की अवस्था में ग्रसित पत्तियों को तोड़कर नष्ट कर दें। इससे इन रोगों का प्रकोप कम हो जाता है। यदि फसल को काला सड़न रोग (ब्लैक राॅट) से आर्थिक नुकसान होने की आशंका हो तो स्ट्रेप्टोसाइक्लीन-1 ग्राम और काॅपर आॅक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर पौधों की जड़ों को सिंचित कर दें।
फसल की निगरानी के समय यदि जड़ गलन (रूटराॅट) और मृदु रोमिल आसिता (डाउनी मिल्ड्यू) में किसी भी रोग के प्रकोप से आर्थिक नुकसान होने की आशंका हो तो ट्राइकोडर्मा की 2-3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर फसल पर तथा जड़ के पास छिड़काव करें। आवश्यक होने पर दूसरा छिड़काव 7-10 दिनों के बाद किया जा सकता है। यदि माहू (एफिड) का प्रकोप होे तो क्राइसोपरला (परभक्षी कीट) को डिंभक अवस्था में बुरादे के साथ मिलाकर फसलों में 50000 प्रति हेक्टेयर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर आवश्यकतानुसार 2-3 बार प्रयोग करें। यदि फसल निगरानी समय लीफ वेबर, डायमण्ड बैक माथ, व्हाइट बटरफ्लाई, एफिड, कैबेज बोरर, कैबेज सेमीलूपर या टोबैको कैअरपिलर में से किसी भी कीटों का प्रकोप दिखाई दे तो बेसीलस थूरिनजिएन्सिस पर आधारित जैविक कीटनाशकों जैसे हाल्ट, बायेलेप या लि.बी.के. में से किसी एक का 2 ग्राम मात्रा/लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
यदि जैविक कीटनाशक के छिड़काव के बाद भी उपरोक्त पत्ती खाने वाले कीटों और माॅहू में से किसी का प्रकोप हो तो जैविक कीटनाशक का छिड़काव के 10-12 दिनों बाद नीम पर आधारित कीटनाशकों जैसे निम्बीसिडीन, इकोनीम, निमेक्टीन या बायोनीम में से किसी एक का 5 मिलीलीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
किसी भी प्रकाश स्रोत के नीचे चैड़े मुह वाले किसी बर्तन या टब इत्यादि में मिट्टी का तेल मिला हुआ पानी रख देना चाहिए, जिससे प्रकाश की ओर आकर्षित होकर गुबरैले जमीन पर रखे बर्तन में गिरकर नष्ट हो जाएं। रात्रि के समय खेतों में फसल अवशेषों को जलाकर भी गुबरैलों को आकर्षित किया जा सकता है। जलते हुए फसल अवशेषों को ढेर के पास भी चैड़े मुॅंह के बर्तन में मिट्टी का तेल मिला पानी रखना चाहिए, जिससे आग के प्रकाश की ओर आकर्षित होने वाले गुबरैले बर्तन में गिरकर नष्ट हो जाएं। खेतों में पड़े पुराने ठूठों और जड़ों को एकत्र कर जला दें। इससे कीट प्रकोप कम होता है।
अभिषेक बहुगुणा एवं संध्या बहुगुणा
गोबिन्द बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय,