प्याज फसल पर लगने वाली बीमारियाँ और उनका उपचार
आद्र्र गलन (क्ंउउचपदह व)ि
यह रेाग स्केलेरोशियम राल्फसी नामक कवक से होता है। जोकि पौधशाला में बीज अंकुरण के बाद पौधों की बढ़वार के समय प्रभावति करता है। कवक के तन्तु पौधों के जमीन वाले भाग से प्रवेश कर पौधों को प्रभावित करते हैं। जिससे पौधों पीले पड़ने लगते हैं। पौधों का जमीन से लगने वाला भाग सड़ने लगता है और फिर पौधें सूखने लगते हैं। मुरझाये हुए पौधों के जमीन वाला भाग कवक के सफेद तन्तु विकसित होते हैं, जिन पर सफेद रंग छोटी दानेदार रचना होती है। जो कुछ दिन बाद सरसों के दाने के आकार के बन जाते हैं। ये सारे जमीन में कर्इ वषोर्ं तक सुसुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। लगातार एक ही स्थान पर पौधा तैयार करने से रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग से 10 से 90 प्रतिशत तक पौधें नष्ट हो सकते हैं। रोपार्इ के बाद भी खेतों का फैलाव बड़े पैमाने पर होता है। खरीफ मौसम में वातावरण इस रोग के फैलाव के लिए उपयुä होता है। अधिक नमी तथा 24-30 0 से. तापमान इस कवक की वृद्धि के लिए उपयुä होता है। रोपवाटिका में यदि जल निकास अच्छा न हो, तो इस रेाग का प्रकोप अधिक होता है।
रोकथाम
बुवार्इ से पूर्व बीज को डायथायोकार्बामेट या काबर्ौकिसन या डेल्टान (2 से 3 ग्राम किग्रा बीज) से उपचारित करना चाहिए।
ट्रार्इकोडर्मा विहरिडीस प्रति किलो 4 ग्राम की दर से बोजों को उपचारित करना चाहिए।
पौधशाला कभी भी उठी हुर्इ क्यारियों पर तैयार करना चाहिए। इससे जलनिकास अच्छा होता हैं।
प्रत्येक वर्ष पौधशाला का स्थान बदलते रहना चाहिए।
रोग का प्रकोप होन पर डेल्टान या कार्बोसफ्सीन का 2 ग्राम पति लीटर की दर से धोल बनाकर पौधे पास जमीन की अच्छी तरह तैयार करना चाहिए।
श्याम वर्ण (।दजीतंबदवेम) (काला धब्बा)
महाराष्ट्र राज्य में खरीफ मौसम में इस बीमारी का प्रकोप अधिक होता है। यह रोग कोलेटोट्रायकम ग्लेओस्पोराइडम कवक से होता है। रोग के प्रारम्भ में पत्तियों के बाहरी भाग पर जमीन से लगने वाले भाग में राख के रंग के चकते बनते हैं। जो बाद में बढ़ जाते हैं तथा सम्पूर्ण पत्तियों पर काले रंग के उभार दिखने लगते हैं। ये उभार गोलाकर होते हैं। इससे प्रभावित पत्तियाँ मुरझाकर मुड़ जाती है तथा अंत में सुख जाती है। लगातार एक के बाद एक पत्तियाँ काली हो जाती है और पौधे मर जाते हैं। इन धब्बों को पास से देखें तो इनके बीच वाला भाग सफेद रंग का दिखार्इ देता है तथा इसके आजू बाजू गोलाकार काले कांटेदार चकते दिखते हैं।
खरीफ में मौसम में नमी वाले वातावरण में इस रोग की शीध्र वृद्धि होती है, और रोगाणु, वर्षा के छीटों द्वारा एक दूसरे से पौधों पर पहुँच जाते हैं। इसी प्रकार यह राग पौधाशाला से खेतों में भी पहुँचता है। जलभराव, नमीयुक्त वातावरण, रिमझिम वर्षा या आकाश में बादलों से भरे मौसम आदि परिसिथतिया में इस रोग का प्रकोप बढ़ता है। फसल की वृद्धि के दौरान इस रोग के प्रकोप से पत्तियाँ सूखने लगते हैं, तथा कन्द नहीं बन पातें हैं।
रोकथाम
रोपार्इ से पूर्व पौधों के जड़ों को कार्बान्डाजिम या क्लोरोथलोनिल के 0.2: धोल में डुबाना चाहिए।
पौधशला के लिए उठी हुर्इ क्यारियाँ बनानी चाहिए।
पौधशाला में बीज पतला बोना चाहिए।
पौधों की आवश्यकतानुसार निर्इ-गुड़ार्इ करते रहना चाहिए।
खरीफ मौसम में अच्छे जलनिकास वाली भूमि में प्याज की खेती करनी चाहिए और मेढ़ों पर उठी हुर्इ क्यारियों पर रोपार्इ करनी चाहिए। एक मेड पर दो पंäयिँ (मेड के दोनो ओर) लगाना चाहिए। मेड़ों के शीर्ष पर एक अतिरिक्त पंä लिगानी चाहिए। इससे पौधे धने हो जाते हैं तथा रोग का प्रकोप बढ़ता है।
मेन्कोजैव (डार्इथेन एम-45) 30 ग्राम या कार्बान्डाजिम 20 ग्राम को 10 लीटर पानी में धोल कर 12 से 15 दिन के अन्तराल पर अदल-बदल कर छिड़काव करना चाहिए।
सफेद विगलन (ीपजम त्वज)
यह रोग स्केलेरोशियम राल्फसी नामक कवक से होता है। यह रोपार्इ के बाद पौधों के जड़ों में फेलती है। इसमें पौधों का जमीन के पास वाला भाग सड़ने लगता है तथा पंäयिें का उपरी भाग पीला पड़ने लगता है। पुरानी पंäयिँ रोग से पहले प्रभावति होती है। रोग की तीव्रता अधिक होने पर पत्तियाँ मुड़ कर जमीन पर गिरने लगती हैं। जड़ सड़ने के कारण रोप आसानी से उखड़ जाती है। बढ़ते हुए प्याज में भी जड़ें सड़ जाती है। तथा उनमें कपास जैसे रोयेदार कवक जाल की पृष्ठीय वृद्धि दिखार्इ देती है। संक्रमित भागों का अर्धजलिय विगलन होने लगता है। प्रारमिभक अवस्था में परपोषी की सतह तथा विगलित ऊतकों में धंसी हुर्इ सूक्ष्म विन्दुओं जैसे सफेद पृष्ठीय पत्रिका देखी जा सकती है। यदि शल्क कन्देां पर संक्रमण फसल की बाद की अवस्था में होता है तो, संचयन के समय थोड़ा सा विगलन दिखार्इ देता है परन्त्फ भण्डारण के दौरान यह संक्रमण बढ़ कर पूरे कन्दों को सड़ा देता है। खरीफ तथा रबी दोनों मौसम में इस रोग का प्रकोप होता है। जलनिकास अच्छा न होने पर इस रेाग से 40 से 60: तक नुकासन हो सकता है। रागे के कवक खेत में रोपवाटिका द्वारा या पिछली प्याज की फसल से फैलती है। इस रोग के रोगाणु भूमि में कर्इ वषोर्ं तक जीवति रह सकते हैं।
रोकथाम
खेत में बीमारी आने पर रोकथाम कठिन होता है। इसलिए खेत में रोग प्रकोप न हो इसका आरंभ से ही ध्यान रखना चाहिए। इसके लिए निम्नांकित उपयाय करने चाहिए।
आद्र विलगन रोग के लिए किए उपयों से इस रोग का नियंत्रण हो सकता है।
एक खेत में बार-बार प्याज की फसल नहीं लेना चाहिए।
प्यज के साथ अनाज वाली (धान्य) फसल को फसल चक्र में समिमलित करना चाहिए।
खरीफ मौसम में अच्छी अलनिकास वाली भूमि में प्याज की खेती करनी चाहिए।
ग्रमियों के मौसम में गहरी जुतार्इ कर मिट्टी को धूप से तपने देना चाहिए।
रोपार्इ से पूर्व पौधों की जड़ों को 2 ग्राम पति लीटर की दर से कार्बेन्डाजिम के धोल 10 से 15 मिनट तक उपचारित कर लगाना चाहिए।
आधार विगलन (थ्नेंतपनउ ठेंंस त्वज)
यह रोग अधिकांश प्याज उत्पादक क्षेत्रों में होता है। अधिक तापमान तथा अधिक आद्र्रता वाले क्षेत्रों में इस रोग का अधिक प्रकोप होता है। यह रोग फ्यूजेरियम आकिसस्पोरम (थ्नेंतपनउ वगलेचवतनउ णिेचण् बमचंम) नामक कवक से होता है। पौधों की कम वृद्धि तथा पंत्तियों का पीला पड़ना, इस रोग के प्रथम लक्षण हैं। इसके बाद पत्तियाँ सिरे से सूखनी आरम्भ होती है व मुरझाकर सड़ने लगती है।रोपार्इ किए हुए पौधों की जड़ें सड़ने लगती हैं तथा पौधें आसानी से उखड़ जाते हैं। रोगाग्रस्त पौधों की जड़ें कालापन लिए हुए भूरी हेाने लगती है तथा पतली हो जाती है। रोग की आरमिभक अवस्था में रोगों व अच्छे प्याज में विशेष अंतर नहीं दिखार्इ देता है। पीली पड़ी हुर्इ पत्ती वाले पौधे के प्याज को खड़ा काटे तो प्याज के अन्दर का भाग भूरा (तपकिरी) दिखार्इ पड़ता है। रोग के अधिक प्रकोप में कन्द जड़ के पास सड़ने लगते हैं तथा मर जाते हैं। कन्द बनने के बाद रोग के प्रकोप से कन्द भण्डारण में जड़ के पास वाले भाग से अधिक सड़ते हैं। महाराष्ट्र में अगस्त-सितम्बर माह में इस रोग की तीव्रता अधिक दिखार्इ देती है।
रोकथाम
इस रोग के कारक जमीन में रहते हैं। इस कारण उचित फसल चक्र अपनाना आवश्यक है।
गरमी के मौसम में गहरी जुतार्इ कर जमीन को तपने देना चाहिए।
डायथायोकार्बामेट (2ग्रामकिग्रा. बीज की दर) से बीज को उपचारित कर बोना चाहिए।
गोबर की खाद के साथ खेत में ट्रायकोडर्मा विहरीडीस 5 किलो प्रति हेक्टर की दर से मिलाना चाहिए।
बैंगनी धब्बा (च्नतचसम इसवजबी)
यह रोग अल्टरनेरिया पोरी नामक कवक से होता है। संसार में सभी प्याज उगाने वाले देशाें में यह बीमारी बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचाती है। यह रोग पौधों की किसी भी अवस्था में आ सकता है। इस रोग में पत्तियों या पुष्प् (फूल) गुच्छा की डणिडयों पर आरंभ में छोटे, दबे हुए, बैंगनी केन्द्र वाले लंबवत सफेद धब्बे बनते हैं। यह धब्बे धीरे-धीरे बढ़ने लगते हैंं तथा आरंभ में धब्बे बैंगनी होते हैं जो बाद में काले हो जाते है। ऐसे अनेक धब्बे बड़े होकर आपस में मिल जाते हैं और पत्तियाँ पीली पड़कर सूख जाती है। पौधे गरदन से नरम व कमजोर हो जाते हैं। फूलों की डन्डीयाँ भी मुड़कर गिर जाती है। इस रोग से 50 से 70: तक नुकसान हो सकता है।
खरीफ मौसम में इस रोग का अधिक प्रकोप होता है। पौधशाला एवं रोपार्इ के बाद फसल तथा बीज उत्पादन वाली फसल पर भी इस बीमारी का प्रकोप होता है। 18 से 200 से. तापमान तथा 80 : से अधिक आद्र्रता इस रोग को बढ़ाने में मदद करती है। रबी मौसम में जनवरी-फरवरी में बारिश होने तथा आकाश में बादल वाले वातावरण में इस बीमारी की तीव्रता अधिक हो सकती है। पछेती खरीफ मौसम की फसल में भी अनुकूल वातावरण में इस रोग का प्रभाव होता है।
रोकथाम
बुवार्इ से पूर्व बीज को 2 से 3 ग्राम डाइथायोकार्बामेट प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
छिड़काव के दौरान कवकनाशकों के साथ चिपकने वाला पदार्थ (सिटकर) का प्रयोग करना चाहिए।
नेत्रजन युä उर्वकरों का प्रमाण से अधिक और देर से प्रयोग नही करना चाहिए।
उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए।
मेन्कोजेब 30 ग्राम या कार्बान्डाजिम 20 ग्राम या क्लोरोथलोनिल 20 ग्राम नामक कवकनाशकों को 10 लीटर पानी में धोल कर 12 से 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।
कन्द एंव तना सड़ने वाले सूत्र : (छमउंजवकमे)
डिटीलिंकस डिपससी नामक सूत्र कृमि के कारण कन्द व तने सड़ने लगते हैं। इस सूत्र कृमि से प्याज, लहसुन, गोभी, आलू, रतालू, आदि फसलों के कन्द तथा तने प्रभावित होते हैं। पौधों की किसी भी अवस्था में सूत्र कृमिका प्रकोप हो सकता है। यदि इसका प्रकोप रोपार्इ के तुरन्त बाद पौधों में होता है तो पौधे छोटे रह जाते हैंं पत्तियाँ टेढ़ी-मेढ़ी होकर सफेद पड़ जाती हैं। कन्द बढ़वार के समय सूत्र कृमि का प्रकोप होने से प्यचाज के उपरी भाग अर्थात गर्दन के पास के ऊतक नरम हो जाते हैं। धीरे-धीरे सूत्र कृमि कन्द में प्रवेश करने लगते हैं। जिस कारण ऊतक नरम होकर सड़ने लगते हैं। इससे एक विशेष प्रकार की दुर्गन्ध आने लगते हैं। सूत्र कृमिका प्रसार प्याज के बीज, पत्तियाँ या सड़े हुए प्याज के द्वारा होता है। कर्इ बार कुछ खरपतवारों पर भी सूत्र कृमि पोषण करते हैं। प्याज में ये कृमिक न्द द्वारा प्रवेश कर फूलों के डंठल व बीज तक पहँुच जाते है। ऐसे बीजों को लगाया जाए तो इसका प्रसार होता है। जमीन का तापमान 20 से 240 सें. व अधिक नमी होन पर सूत्रकृमि तेजी से बढ़ते हैं। खरीफ मौसम में खराब जलनिकास वाली जमीन में इससे नुकसान अधिक होता है।
रोकथाम
फसल चक्र में धान्य फसलों को समिमलित करना चाहिए। इसी प्रकार फसल चक्र में सरसों या गेंदे की खेती अपनाना भी लाभदायक होता है।
खरीफ मौसम में अच्छे जलनिकास वाली हल्की जमीन मं प्याज की खेती करनी चाहिए।
स्टेमफीलिमय झुलसा (ैजमउचीलसपनउ) (भूरा धब्बा)
यह रोग स्टेमफीलियम वैसीकेरियम नामक कवक से होता है। इस रोग से कन्दों तथा बीज की फसलों पर बुर प्रभाव पड़ता है। इस रोग में पत्तियोंं या फूल की ड़झिडयों पर एक ओर पीले नारंगी रंग लिए हुए लंबाकार धब्बे बनते हैं। शीध्र ही इनका आकार बढ़ने लगता है तथा पत्तियाँ सूख जाती है। बीज की फसल में इसके प्रकोप से फूलों की डणिडयाँ कमजोर हो जताी है तथा मुड़कर गिर जाती है। यह रोग मुख्यत: रबी मौसम में अधिक होता पाया गया है। 15 से 200 सें. तापमान तथा 80 से 90 : आद्र्रता में इस रोग का फैलाव तीव्रता से होता है। फरवरी-मार्च महिने में वर्षा तथा बदली वाले वातारवरण से रोग का प्रकोप अधिक होता है। उत्तर भारत में रबी मौसम में इस तरह वातावरण मिलने के कारण इसका प्रकोप अधिक होता है। ठंड के दौरान होने वाली वर्षा से यह रोग शीध्रता से बढ़ता है। इसके कारण उत्तर भारत में बीज की फसल को 80 से 90 प्रतिशत तक नुकसान हो पाया गया है।
रोकथाम
रोग के लिए उपयुä वातावरण मिलने के कारण कवकनाशी का असर ठीक तरह से नहीं हो पाता है। इसलिए फसल चक्र, बीजोपचार, पौधों को कार्बान्डाजिम के धोल में डुबाकर रोपार्इ करने से इस बीमारी के प्रकोप को कम किया जा सकता है।
कार्बान्डाजिम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से धोल का 12 से 14 दिनों के अन्तर पर छिड़काव करना चाहिए। इसमें चिपकाने वाला पदार्थ (सिटकर) अवश्य मिलाना चाहिए। एक क्षेत्र के किसानों द्वारा एक साथ छिड़काव करने से बीमारी का अच्छी तरह से नियंत्रण हो सकता है।
मृदआसिता (क्वूदल उपसकमू)
यह रोग डिस्ट्रक्टर नामक कवक से होता है। रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों तथा फूल की डनिडयों पर दिखार्इ देते हैं। प्रारम्भ में पीलापन लिए हुए सफेद 5 से 6 इंच लम्बे बनते हैं। धीरे-धीेरे पत्तियाँ पीली होने लगती है तथा धब्बों के स्थान से पत्तियाँ तथा फूल की डनिडयाँ मुड़ जाती है और प्याज की वृद्धि रुक जाती है। सुबह की ओस में ये धब्बे स्पष्ट दिखार्इ देते हैं। इस रोग की बढ़वार अधिक नमी और कम तापमान वाले स्थानों पर बहुत अधिक होती है। भारत में यह रोग अधिक प्रमाण में नहीं आता है।
रोकथाम
कैराथेन 10 ग्राम या टि्रडेमार्क 10 ग्राम प्रति लीटर पानी में धोलकर छिड़काव करना चाहिए।
उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए।
23. भण्डारण के दौरान होने वाली बीमारियाँ
ग्रीवागलन (छमबातवज)
भण्डारण में होने वाली बीमारितयों में यह प्रमुख बीमारी है। इससे 50: तक नुकसान हो सकता है। यह रोग बोट्रार्इटिस आली नामक कवक से होता है। यह रोग जब प्याज निकालने पर आया होता है उस समय लगता है तथा रोग के लक्षण मात्र भण्डारण के बाद दिखार्इ देते हैं। रोग के रोगाणु कन्दों या पत्तियों के धावों या पत्तियों के कटे हुए सिरों से प्रवेश करते हैं। इससे गर्दन के पास के ऊत्तक कमजोर हो जाते है। प्याज को सीधे काटकर देखने से गर्दन के नीचे वाला भाग उबाला हुआ सदृश मटमैला पीला दिखार्इ देता है। कन्दों के शल्कों में राख के समान धूसर रंग की कवक की वृद्धि दिखार्इ देती है। इस रोग के रोगाणु जमीन में सड़े हुए कन्दों या फसल के अवशेष मेंं जीवित रहते हैं। प्याज निकालने के बाद अच्छी तरह से नहीं सुखाने तथा भण्डारण में तापमान 400 सें. से अधिक हेाने पर इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इसके अतिरिä संक्रमित बीज द्वारा भी इस रोग का प्रसार होता है।
रोकथाम
डाइथायोकार्बामेट से बीज को उपचारित कर बुवार्इ करनी चाहिए।
डचित फसल चक्र अपनाने से कवक का जीवन-चक्र रोका जा सकता है
प्याज निकालने से पूर्व 0.2: (20 ग्राम प्रति 10 लीटर) कार्बान्डाजिम का छिड़काव करना चाहिए।
प्याज निकालने के बाद उसे खेत में 3-4 दिन पत्तियों समेत सुखाना चाहिए। प्याज को लम्बी ड़णिडयों के साथ काटना चाहिए। फिर छँटार्इ कर छाया में 15-20 दिन सुखाने के बाद ही भण्डार गृह में रखना चाहिए।
भण्डार गृह में प्याज भरने से पहले 0.2: कार्बान्डाजिम का छिड़काव करना चाहिए, छिड़काव के बाद ही प्याज को भण्डार गृह में रखना चाहिए।
काली फफूंदी (ठसंबा उवनसक)
यह सर्वत्र पाया जाता है, परन्तु उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में इसका अधिक प्रकोप होता है। यह रोग एसपरजिलस नाइजर फफूंद से होता है। रोग का अरम्भ प्याज निकालने के बाद कन्दों के बाहरी शल्कों से होता है और कन्दों के बाहरी शल्कों में काले रंग का पाउडर सा दिखार्इ देता है। कवक बढ़ने के पश्चात यह प्याज के बाहरी एक-दो छिलकों में प्रवेश करता है। धीरे-धीरे यह बढ़कर पूरे प्याज के बाहरी आवरण में फैल कर उसे काला बना देता है। काली फफूंद अनेक सजीव और निर्जीव वस्तुुओं पर वृ द्धि करती है। नमीयुä गर्म वातावरण में इसकी शीध्र वृद्धि हेाती है। भण्डारगृह में 30-350 सें. से अधिक तापमान तथा 70 : से अधिक आद्र्रता होने पर यह शीध्र बढ़ने लगती है। महाराष्ट्र में जुलार्इ से सितम्बर माह में भण्डारगृहों में इसका अधिक प्रकोप देखा गया है।
रोकथाम
इस रोग के रोगाणुओं अनेक सजीव या निर्जीव वस्तुओं पर रहते हैं। प्याज या लहसुन जैसी फसल तथा उपयुä वातावरण मिलने पर इसका प्रकोप अधिक होता है। अत: इसके नियंत्रण के लिए प्यज के खेती के दौरान सभी अवस्थाओं में सावधानी रखना आवश्यक है। ग्रीवा गलन रोग के लिएकिए गये उपायों से इसका भी नियंत्रण हो जाता है। खेत में प्याज निकालने के पूर्व तथा भण्डार गृह में प्याज रखने के पूर्व कार्बेन्डाजिम के 0.2: प्रतिशत धोल का छिड़काव करना चाहिए।
नाली फफूंद (ठसनम डवनसक)
यह पेनिसिलयम नामक कवक से होता है। आरम्भ में कन्दों पर पीलापन लिए हुए गहरे निशान बनते हैं। जो शीध्र ही हरे-नीले रंग के हो जाते है। इस कवक के जीवाणु कन्देां केे साथ ही भण्डारगृह में जा कर रोग फैलाते हैं। भण्डारण में होने वाले अन्य रोगों के नियंत्रण के लिए किये जाने वाले उपयों से इस रोग का भी नियंत्रण हो जाता है।
भूरा विगलन (ठतवूद तवज)
इस रोग का आरम्भ प्याज के गर्दन के पास से होता है। इस रोग में भीतरी शल्क गहरे भूरे रंग के होकर सड़ने लगते हैं। यह रोग अन्दर के शल्कों से आरम्भ हेाकर बाहरी शल्कांें की ओर बढ़ता है। कन्द बाहर से अच्छे दिखते हैं, परन्तु दबाने पर आसानी से चिपतक जाते हैं तथा गर्दन से सफेद रंग का पानी निकलने लगता है। यह रोग सुडोमोनास आफजीनोसा नाम जीवाणु से होता है। जिसका प्रकोप खेत से ही आरम्भ हो जाता है। इसके नियंत्रण के लिए अन्य भण्डारण रोगों के रोकथाम के उपायों को अपनाना चाहिए।
काला धब्बा (ैउनकहम)
यह रोग कोलेट्राइकम सिरसिनेन्स नामक कवक से होता है। रोग का आरम्भ प्याज निकलने के कुछ दिन पूर्व होता तथा भण्डारण में इसकी तीव्रता बढ़ती है। प्याज के बाहरी आवरण पर छोटे-छोटे, हरे या काले धब्बे पड़ते हैं। इन धब्बों का आकार बढ़कर 1 इंच व्यास का हो जाता है। इस कवक की रचना बड़े से छोटे हुए कर्इ वलयों के रुप में दिखार्इ देती है। कभी-कभी काली फफूंदों शल्कों की शिराओं के मार्ग में फैली हुर्इ दिखती है। सफेद रंग के प्याज में इस रोग का अघिक प्रकोप होता है और तुलना में लाल या पीले प्याज पर इसका प्रकोप कम होता है। यदि प्रकोप हुआ भी तो वह प्याज के गर्दन के आसपास वाले भाग तक ही सीमित रहता है। लाल रंग के प्याज में पाये जाने वाले प्रोटोकेच्युर्इक अम्ल व केटेकाँल इस रोग की वृद्धि रोकने में सहायक होता है।
रोकथाम
सफेद रंग के प्याज में भण्डारण के दौरान नुकसान को कम करने के लिए प्याज निकालने से पूर्व पहले दर्शार्इ गर्इ कवकनाशकों का छिड़काव करना चाहिए।
प्याज को अच्छी तरह सुखाने के बाद ही भण्डारगृहों में भरना चाहिए।
प्याज के भण्डारगृह में नीचे से गंधक का धुआँ देना लाभदायाक होता है।
24. विषाणु जनित रोग
प्याज का पीला बौना रोग (व्दपवद लमससवू कूंत)ि
वह विषाणु जनित रोग प्याज, लीक, लहसुन, आदि फसलाें को प्रभावति करता है। इसमें प्याज के पौधे बौने रह जाते हैं। पत्तियाँ चपटी तथा कड़क होकर मुड़ जाती है। पत्तियों में पलेपन की तीव्रता हल्के पीलेपन से आरम्भ होती है और धीरे-धीरे पत्ती पीली हो जाती है। इस विषाणु का फैलाव माहू नामक कीड़ों द्वारा होता है।
रोकथाम
रोपार्इ के बाद पहले पानी के साथ प्रति एकड़ 4 किलो की दर से फोरेट डालना चाहिए।
विषाणु के फैलाने वाले कीड़ों के नियंत्रण के लिए फसल पर डायमेथोयट 10 मि.ली प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
रोगाग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
बीाजोत्पादन के लिए अच्छी तरह विकसित रोगमुक्त कन्दों का चयन करना चाहिए।
एस्टर येलो (।ेजमत लमससवू)
यह रोग माइकोप्लाजमा द्वारा होता है। रोग की शुरुवात नर्इ पत्तियों के आधार से हेाती है। पत्तियोें पर हरे रंग की पट्टियाँ दिखार्इ देती है। यह पीलापन, पत्तियों के आधार से उपरी सिरों की ओर बढ़ता है। फूल की डनिड़याँ पतली व संख्या में कम हो जाती है। पुष्प गुच्छ पूरी तरह नहीं भरते हैं तथा छोट-छोट रह जाते हैं। पुष्प गुच्छ में कुछ फूलों के वृन्त लम्बे हो जाते है व फूल एक समान लम्बार्इ के नहीं रहते हैं।
यह रोग रस चूसने वाले कीड़ों से फैलता है। रोग के प्रसार को रोकने के लिए इन कीड़ों का नियंत्रण अनिवार्य है।
रोगग्रस्त पौधों तथा कन्दों को तुरन्त निकालकर नष्ट कर देना चाहिए। बीज की फसल में प्रभावित पौधों को निकाल कर नष्ट करने से बीज द्वारा होने वाले इसके प्रसार को रोका जा सकता है।
आयरिश यलो स्पाट
पत्तियाँ तथा फूलों के डनिडयों पर पीले लंबवत चौकोनी आकार के चट्टे पड़ते हैं। इस कारण फूलों की ड़णिडयाँ भाग से गिरने लगती है और इन पर बीज नहीं बनते है या बहुत कमजोर होते हैं। यह रोग थि्रप्स द्वारा फैलते हैं। रबी प्याज व प्रमुखत: बीज के फसल पर इसका प्रकोप बड़े पैमाने पर होता है। इस रोग से बचने के लिए फसल लगाने के साथ ही थि्रप्स से अच्छी तरह बचाव करना ही एक प्रमुख उपया है। इसके अलावा फसल चक्र अपनाने से भी कुछ हद तक यह रोग नियंत्रित किया जा सकता है।
25. प्याज फसल पर कीट
थि्रप्स
थि्रप्स प्याज का प्रमुख नुकसानदायक कीट है। यह कीट आकार में बहुत छोटे होते हैं। पूर्ण वृद्धि होने पर भी इसकी लम्बार्इ लगभग 1 मि.मी. हो सकती है। इनका रंग हल्का पीला से भूरा होता है तथा इनके शरीर पर छोटे-छोटे गहरे चकते होते हैं। कीड़े की मादा पत्तियों पर सफेद रंग के 50 से 60 अण्ड़े देती हैं तथा अण्डे देने का अन्तराल 4 से 6 दिन का होता है। इन अण्डों से 6 से 7 दिनों में अभ्रक निकलते हैं। इन कीड़ों का सर्वाधिक जीवनकाल (23 दिवस) दिसम्बर माह में तथा सबसे कम (13 दिन) अप्रैल माह में होता है। कीड़ों की अधिकतम संख्या फरवरी से अप्रैल तथा अगस्त-सितम्बर माह में होती है। महाराष्ट्र में सर्वाधिक थि्रप्स फरवरी माह में देखे जाते हैं। अभ्रक तथा प्रौढ़ कीट नर्इ पत्तियों का रस चूसते हैं। कीड़ों के रस चूसने से पत्तियों पर असंख्य सफेद रंग के निशान दिखते हैं। अधिक प्रकोप से पत्तियाँ मुड़कर झुक जाती हैं। फसल की किसी भी अवस्था में कीड़ों का प्रकोप हो सकता है। रोपार्इ के तुरन्त बाद इनके प्रकोप से पत्तियाँ मुड़ने के कारण कन्दों का पोषण नहीं होता है। कन्द परिपô होन के समय इनके प्रकोप से पौधों में नयी पत्तियाँ आने लगती हैं। जिससे पौधोें की गर्दन मोटी हो जाती है तथा प्याज भण्डारण में टिकते नहीं। थि्रप्स के द्वारा किये गये सूक्ष्म धावों में बैंगनी, काला या भूरा धब्बा तथा अन्य कवकों के रोगाणु पौधों में प्रवेश कर जाते है तथा पौधों में रोग को प्रकोप भी बढ़ता हुआ पाया गया है। इसलिए जब-जब थि्रप्स का प्रकोप बढ़ता है, रोगों का प्रकोप भी बढ़ता पाया गया है। खरीफ मौसम में सितम्बर माह के बाद बारिश कम होने तथा तापमान बढ़ने से थि्रप्स्ज्ञ का प्रकोप बढ़ता है। शुष्क हवा तथा 24 से 300 सें. तापमान होने पर इनकी संख्या अधिक होती है। ऐसा वातावरण फरवरी से अप्रैल तक भी मिलता है। इस कारण रबी मौसम की फसल पर इन कीड़ों से बहुत नुकसान होता पाया गया है। थि्रप्स के कारण प्याज का उत्पादन 30 से 40 प्रतिशत तक धट सकता है।
रोकथाम
महाराष्ट्र में लगभग वर्षभर प्याज की खेती होती है। इसके कारण थि्रप्स को वर्षभर खाध समाग्री मिलती रहती है। इसके अतिरिä अनेक खरपतवार या अन्य सबिजयों पर भी कीट का प्रकोप होता है। ऐसी परिस्थ्ीति में इस हकीट का जीवन चक्र तोड़ने में कठिनार्इ हाती है तथा कीटनाशकों के छिड़काव से पर्याप्त नियंत्रण नहीं हो पाता है। इसके नियंत्रण के लिए निम्नांकित उपाय करने चाहिए।
प्यज की रोपार्इ से पूर्व खेत में फोरेट 10 जी 4 किग्रा. प्रति एकड़ या कार्बाफ्युरान 3 जी 14 किग्रा. प्रति एकड़ की दर से जमीन में मिलाना चाहिए।
रोपार्इ के पूर्व पैधों की जड़ों को कार्बासल्फान (1 मिल. दवा प्रति लीटर पानी के धोल में) दो धण्टे तक उपचारित कर लगाने से रोपार्इ के 20-25 दिन बाद तक कीट के प्रकोप से बचा जा सकता है।
प्रत्येक 12 से 15 दिन के अन्तराल पर डायमेथोयट (0.03:) 15 मिली. या इन्डोसल्फान (0.07:) 15 मिली. या मोनोक्रोटोफास (0.07:) 20 मिली. या साइपरमीथि्रन (10 र्इसी) 5 मिली. या कार्बोसफल्फान 20 मिली. या प्रोफेनोफास 10 मिली. आदि दवाओं में से कोर्इ एक दवा प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर अदल-बदल कर छिड़काव करना चाहिए। इस प्रकार कम से कम 4 से 5 छिड़काव की आवश्यकता होती है। छिड़काव करते समय यदि आवश्यक हो तो फूफंदनाशकों को प्रयोग कर सकते हैं। परन्तु इसके लिए सामंजस्यता वाले फफूंदनाशकों तथा कीटनाशकाें का प्रयोग करना चाहिए। कीटनाशकों से वांछनीय परिणामों के लिए चिपकाने वाला पदार्थ (सिटकर) जैसे सेन्डोविट, टीपाँल या चिपको आदि का प्रयोग करना चाहिए।
कीटनाशकों का छिड़काव उचित समय पर अर्थात प्रति पौधा थि्रप्स की संख्या 25 से 30 अधिक बढ़ने लगे तक तुरन्त करना चाहिए। इस अवस्था पर छिड़काव नहीं किया हो तो कीट के साथ-साथ रोग से रोग से भी नुकसान अधिक हो सकता है।
प्याज की रोपार्इ के लगभग 15-20 दिन पूर्व खेत में 10×10 मीटर या बड़े क्षेत्र में चारों ओर मôा फसल को दो कतारों में बुवार्इ कर सजीव बागोड़ (बाढ़) (मिदबपदह) तैयार करने से थि्रप्स को एक प्लाट या खेत से दूसरे में जाने से रोका जा सकता है या कम किया जा सकता है। इस कारण कीटनाशकों का 2-3 छिड़काव कम करते हुए अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जाता है।
कटवा (ब्नजूवतउ)
इस कीड़े की सूडि़याँ (इल्ली) पौधों को नुकसान पहुँचाते हैं। ये सूडि़याँ 30-35 मिमी. लम्बा राख के रंग की होती है। ये पौधों के जमीन के अन्दर वाले भागों को कतरती है। जिससे पौधं पाले पडने लगते हैं तथा उखाड़ने पर आसानी से उखड़ जाते हैं। ककरिली,रेतीली या हल्की मिट्टियों में इस कीड़े का अधिक प्रकोप होता है।
रोकथाम
पिछली फसल के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए।
आलू के बाद प्याज की फसल नहीं लेना चाहिए।
रोपार्इ से पूर्व फोरेट 10 जी 4 किग्रा. प्रति एकड़ या कार्बाफ्यूरान 3 जी 14 किग्रा. प्रति एकड़ की दर से खेत में डालना चाहिए।
उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए।
दीमक (ज्मतउपजमे)
कंकरिली, रेतीली या हल्की जमीन में दीमक से अधिक नुकसान होता है। इसके अलावा फसल के अवशेष ठीक से सड़े न हो या कच्ची गोबर की खाद या कम्पोस्ट डाला हो तो भी इससे नुकसान अधिक होता है। कर्इ बार खेत के बांध पर दीमक की बांबी हेाती है इस कारण प्याज फसल को भी नुकसान होता है। यह पौधाें की जड़ तथा कन्दों को कुतरते हैं जिससे पौधा सूख जाता है। इसका प्रकोप रोकन के लिए प्रति एकड़ 40 से 50 किलो हेप्टाक्लोर या क्लोरेडेन पाउडर जमीन में अच्छी तरह मिला दें व बाद में बांध पर दीमक की बांबीयों को नष्ट कर दें।
26. समेकित (एकातिमक) पौध संरक्षण की आवश्यकता
अब तक हमने प्याज पर फसल पर आने वाले रोग व कीड़ों की पहचान कर ली है। इनके बढ़वार और प्रसार के कारणों को भी जाना है। जिस प्रकार र्इश्वर का असितत्व जल, थल या हर स्थान पर मानते हैं उसी प्रकार कवक, जीवाणु, कृमी या कीड़ों का भी असितत्व सर्वत्र एवं किसी भी अवस्था में निसर्ग में रहता है। इसी प्रकार प्याज या लहसुन जैसी फसल के भक्षक लगभग वर्षभर कहीं ना कहीं उपलब्ध रहतें हैं। विषाणु या कवक एवं कीड़ों को उपयुä वातावरण एवं पोषक पौधे या फसल प्राप्त होते ही इनकी तीव्रता बढ़ने लगती है। कुल मिलाकर निसर्ग में रोग व कीट नियंत्रण भी बड़े पैमाने पर होते रहते हैं। निसर्ग का संतुलन बिगड़ने पर नियंत्रण करने वाली दवाओं का छिड़कावकरना पड़ता हैै। कर्इ बार महंगी दवाइयों का छिड़काव करने के बाद Òी रोग व कीड़ों का नियंत्रण अच्छी तरह नही हो पाता है। पशिचम महाराष्ट्र में प्याज की रोपार्इ लगभग वर्षभर होती है। इस कारण रोग व कीड़ों का जीवनचक्र किसी न किसी तरह विशेष परेशानियाँ में भी चलता रहता है। बरसात के समय दवार्इयों का छिड़काव असर कारक नहीं होता है । इसके अलावा प्याज की पत्तियाँ सीधी होती है एवं पत्तियों पर मोम की एक पतली तह होती है। यदि छिड़काव पंप का नोजल मोटा हो तो अर्थात असमें फवारा बार ीक न हो तो दवाइयाँ पत्तियों पर से जमीन पर गिर जाती है और रोग व कीट नियंत्रण का खर्च व्यर्थ ही चला जाता है। इस कारण दवार्इयाँ असर नहीं करती। बहुत से रोग के रोगाणु हवा या कीड़ों द्वारा फैलता है। इस कारण एक किसान कितनी भी दवार्इयाँ छिड़कें बाजू के खेत में उसी फसल पट दवा न छिड़की हो तो वह अधिक लाभदायक नहीं होती। अधिक मात्रा में एक की प्रकार की दवा छिड़कने से रोग व कीड़ों में प्रतिराोधक क्षमता बढ़ जताी है। जब तक एक रोग प्रतिरोधी किस्में विकसित न हो जाती है तब तक समेकित व सामूहित रोग व कीट नियंत्रण ही एक पर्यार है। इसके लिए निम्न लिखित बातों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
मौसम के अनुसार एक क्षेत्र के सभी किसानों द्वारा प्याज की रोपार्इ लगभग सप्ताह भर के अन्दर की जानी चाहिए। जिससे रोगजनकों तथा कीड़ों के जीवन चक्र को तोड़ा जा सकता है एवं होन वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
प्याज के साथा अनाज वाली फसलों को फसल चक्र में समिमलित करना चाहिए तथा उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए।
प्रमाणित बीज का ही उपयोग किया जाना चाहिए एवं बीजों को उपचारित कर बोना चाहिए।
पौधशाला के लिए उठी हुर्इ क्यारियाँ बनानी चाहिएएवं समय पर रोग व कीड़ों का नियंत्रण करना चाहिए।
प्याज की पौधों की जड़ों को रोपार्इ से पूर्व 1 मिली. कार्बासल्फान एवं काबेर्ंन्डाजिम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से दो धंटे उपचारित करना चाहिए।
खरीफ में मौसम में कम जल विकास वाली भूमि में प्याज की खेती करनी चाहिए।
छिड़काव करते समय कीटनाशकों या फफूंदनाशकों में 0.6 से 1.00 मिली. चिपकने वाला पदार्थ (सिटकर) प्रति लीटर की दर से मिलाना चाहिए।
रोगी या प्रभावित फसलों के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए। जिससे रोगाणु तथा कीड़ों की संख्या को कम किया जा सके।
समय पर कर्षण कि्रयाओं द्वारा रोग तथा कीड़ों को कम करने के सभी उपाय करने चाहिए। सही समय पर खाद, सूक्ष्म तत्व तथा पानी की व्यवस्था होनी चाहिए।
कीटनाशकों या फफूंदनाशकों के छिड़काव के लिए अच्छे पम्प का प्रयोग करना चाहिए। छोटी बूँदे होने से कीटनाशक या फफूंदनाशक पत्तियों पर अधिक देर तक चिपके रहते हैं तथा इनका असर बढ़ जाता है। बूँदों का आकार 50 माइक्रान से अधिक होने से अधिकांश मिश्रण (दवा) गुरुत्वाकर्षण के कारण जमीन पर गिर जाता है। इसलिए 30 से 50 माइक्रान की बूँदे छिड़काव करने वाले पम्प का प्रयोग करना चाहिए।
आवश्यक हो तो कीटनाशकों तथा फफूंदनाशकों का एक साथ प्रयोग करना चाहिए। लेकिन इसके लिए अच्छे सामंजस्य वाले रसायानों का चयन करना चाहिए।
कीड़ों तथा बीमारियों के नियंत्रण के लिए कीटनाशकों तथा कवकनाशकों का एक साथ पूरे क्षे में छिड़़काव करने से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं। इसके लिए प्रशिक्षण तथा किसानों को सामूहिक रुप से काम करने की आवश्यकता है।
सायपर मेथ्रीन जैसे सिन्थेटिक पायरेथ्रार्इड को बारंबार उपयोग में नहीं लाना चाहिए अन्यथा कीड़ों में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
दवा छिड़कते समय उसकी मात्रा का ध्यान रखना महत्वपूर्ण है।
निंबोली के अर्क का उपयोग छिड़काव करते समय लाभदायक हो सकता है।
किसी भी दवा का सही समय पर छिड़काव करन चाहिए अन्यथा उसका प्रभाव ठीक तरह से नहीं हो पाता है।
खेत में तथा आजू-बाजू खरपतवार नष्ट कर देना चाहिए। नही ंतो रोग या कीड़े फसल न होने पर जीवनचक्र पूर्ण कर सकते हैं या इस पर जीवन निर्वाह करते हैं एवं मुख्य फसल लगाने एवं उपयुä वातावरण्सा मिलने पर नुकसान पहुँचा सकते हैं।
प्याज में सामनान्यत: दवा छिड़कने के लिए प्रति हेक्टर पानी की मात्रा फसल के बढ़वार के अनुसार साधारण पम्प से छिड़काव करते समय 600 से 900 लीटर सिफारिश की गर्इ है। इसका ध्यान रखना आवश्यक है।