किसानों के लिए अधिक लाभदायक है औषधीय पौधों की खेती

औषधीय पौधों की खेती

किसानों के लिए अधिक लाभदायक है औषधीय पौधों की खेती

भारत जैसे  विशाल देश में तरह-तरह की जमीनें मौजूद हैं। यहां कुछ क्षेत्र तो ऐसे हैं जहां बेपनाह उपजाऊ भूमि है। कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां थोड़े बहुत प्रयासों के बाद अपनी इच्छानुसार भूमिगत् जल दोहन कर लिया जाता है। यहीं तमाम ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां तमाम  प्रयासों के बावजूद पानी उपलब्ध नहीं होता तथा ऐसे क्षेत्रों के किसान केवल इन्द्र देवता की मेहरबानी पर ही रहते हैं तथा बारिश की प्रतीक्षा में आसमान की ओर टकटकी लगाए देखा करते हैं।  वहीं तमाम क्षेत्र  ऐसे हैं जहां पथरीली या रेतीली जमीनें हैं, ऐसे क्षेत्रों में गहरे से गहरे नलकूप लगाने के बावजूद जल दोहन नहीं हो पाता। जबकि तमाम क्षेत्र ऐसे भी हैं जो या तो सूखे की मार झेल रहे होते हैं या फिर भीषण बाढ़ का प्रकोप सहने के लिए मजबूर रहते हैं। इन सब बातों  के बावजूद यदि किसान अच्छी फसल पैदा कर भी लेता है तो जो पैदावार  मु यतय: उसके खेत खलिहानों में नजर आती है वह सर्वप्रथम या तो गेहूं होता है या फिर चावल(धान)। इसके अतिरिक्त दलहन व तिलहन से स बन्धित जिन्स की पैदावार भी कुछ राज्यों में की जाती है।
 
       
इस देश में किसानों द्वारा प्राय:  यह आवाज उठाई जाती है कि उन्हें उनकी मेहनत  की भरपूर कीमत नहीं मिल पाती। किसानों से जुड़े संगठन तथा राजनैतिक दल अक्सर गेहूं, चावल का स ार्थन मूल्य बढ़ाए जाने की बातें करते दिखाई देते हैं तथा लगभग प्रत्येक वर्ष इनके मूल्यों में कुछ न कुछ बढ़ोत्तरी भी होती ही रहती है। कृषक समाज द्वारा सरकार  पर उनकी पैदावार वर्तमान निर्धारित दर से भी अधिक मंहगी खरीदे जाने की मांग को अनुचित भी नहीं कहा जा सकता। बिजली की बढ़ती कीमतें, डीजल के मूल्यों में लगातार होती वृद्धि, खाद और बीज के बढ़ते मूल्य, खेतिहर मजदूरों  द्वारा अधिक दिहाड़ी की  मांग करना, फसल में छिड़के जाने वाली कीटनाशक दवाईयों के दामों में होने वाली लगातार बढ़ोत्तरी जैसी तमाम बातें हैं जो किसानों को अपनी फसल का और अधिक मूल्य मांगने पर मजबूर करती है। इसी सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि अन्न के मंहगा होने का प्रभाव जिस गैर कृषक समाज अथवा आम लोगों पर पड़ता है वह भी पहले से ही निरन्तर बढ़ती मंहगाई की चौतरफा मार झेल रहा होता है। अत: गेहूं, चावल, तिलहन जैसी अत्यावश्यक दैनिक उपयोगी वस्तुओं की बढ़ती कीमतों को वह कतई पसन्द नहीं करता। जाहिर है ऐसी स्थिति में कृषि उपज के मूल्यों को लेकर समाज के दो प्रमुख वर्गों अर्थात किसान  तथा उपभोक्ता के मध्य विरोधाभास की स्थिति बनी रहती है।
 
यह परिस्थितियां हमें ऐसे उपाय तलाश करने  को विवश करती हैं जिनसे कि हमारे देश का किसान इतनी ही या इससे भी कम मेहनत में वर्तमान समय में होने वाली आय से भी कई गुना अधिक धन कमा सके। हमें ऐसे  उपाय भी तलाश करने होंगे जिनसे कि ऊसर, बंजर, रेतीली, पथरीली तथा तराई क्षेत्रों की ऊबड़-खाबड़ जमीनें भी कृषि के  कार्यों हेतु प्रयोग में लाई जा सकें। जाहिर है  कि गेहूं, चावल, सूरजमुखी, सरसों, मूंगफली तथा तमाम िकस्म की होने  वाली दालों व मौसमी सब्िजयों की पैदावार के लिए निर्धारित जल, तापमान (जलवायु) आदि की जरूरत होती है। जबकि आयुर्वेदिक दवाईयों के प्रयोग में लाई जाने वाली तमाम िकस्म की जड़ी बूटियां ऐसी क़िस्मों की होती हैं जो अलग-अलग तापमानों में विभिन्न प्रकार की जमीनों पर यहां तक कि रेतीली व पथरीली बंजर जमीनों पर भी उगाई जा सकती है। जैसा कि सर्वविदित है कि  जड़ी बूटियों की पैदावार की कीमत भी पर परागत कृषि से प्राप्त होने वाली फसलों से कई गुणा अधिक होता है। अधिकांश जड़ी बूटियों  की फ़सल तो ऐसी होती है जिन्हें न तो कीड़े-मकोड़े द्वारा किसी प्रकार का नुकसान पहुंचाए जाने का डर होता है न ही उन्हें कोई चौपाया जानवर नुकसान पहुंचाता है। तमाम जड़ी बूटियां तो ऐसी होती हैं जिनकी जड़, तना, छाल, पत्ते व बीज सब कुछ अलग- अलग मूल्यों पर बेचे जा सकते हैं।
 
 
देश में जहां कहीं भी  किसानों को पानी की कमी के चलते या खेतों के ऊबड़-खाबड़ या बंजर होने की वजह से पार परिक खेती किये जाने में किसी प्रकार की समस्या का सामना करना पड़ रहा हो उनके लिए निश्चित रूप से  ऐसे आयुर्वेदिक औषधीय पौधों की खेती का मार्ग चुनना एक वरदान  साबित हो सकता है। लगभग प्रत्येक  राज्य सरकारों यहां तक कि केन्द्र सरकार  द्वारा भी वन मन्त्रालयों के अन्तर्गत ऐसे विशेष प्रकोष्ठï का गठन किया जा चुका है जो औषधीय पौधों  की खेती  किये जाने के लिए किसानों का मार्ग दर्शन करता है व उन्हें पूरा सहयोग व सुझाव भी देता है।
  
 
ईसबगोल, बहेड़ा, हरड़, मुलेठी, हल्दी, आंवला, अकरकरा, गवारपाठा (धृतकुमारी), अश्वगंधा, सफ़ेद मूसली, गुग्गल, रत्नजोत, सर्पगंधा, सनाय, गुड़मार, शतावर तथा कालमेघ आदि इस प्रकार के औषधीय पौधों की सैकड़ों ऐसी प्रजातियां हैं जिनकी खेती कर  किसान न सिर्फ स्वयं को आर्थिक  रूप से सुदृढ़ व पूर्ण रूप से आत्म निर्भर बना सकता है बल्कि इस से देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हरि अवतार भगवान धनवन्तरि का कथन है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि  चारों ही पुरूषार्थों की सिद्धि का मूल कारक आरोग्य अर्थात रोग रहित जीवन व्यतीत करना है। यदि भगवान धनवन्तरि की बात को मानें तो हर प्रकार से मनुष्य को अपने स्वास्थ्य की रक्षा करनी चाहिए। कहना गलत नहीं होगा कि औषधीय पौधों की कृषि में लगने वाला किसान  भगवान धनवन्तरि की इच्छाओं व आकांक्षाओं  की पूर्ति में सक्रिय रूप से अपना योगदान  कर रहा होता है। इस देश में पृथ्वी का एक बहुत बड़ा भाग लगभग प्रत्येक शहर, कस्बों तथा मु य मार्गों के किनारों पर ऐसा देखने को मिलता है जहां पर जड़ी बूटियां प्राकृतिक रूप से उग रही होती हैं परन्तु  साधारण  किसानों व आम लोगों का उन जड़ी बूटियों से किसी प्रकार का परिचय न होने के कारण तथा उनकी उपयोगिता की पूरी जानकारी के अभाव की वजह से या तो उन्हें मात्र जंगली पैदावार समझ कर  काट कर फेंक दिया जाता है अथवा जला दिया जाता है। यदि उन्हीं पौधों की किसानों को पूरी जानकारी हो तो निश्चित रूप से वे उनकी व्यवसायिक रूप से खेती  करना शुरू कर देंगे।
 
 
 
आज  आवश्यकता इस बात की है कि कृषक समाज का पढ़ा लिखा वर्ग खेती के पर परागत तौर तरीकों  से बाहर निकलने का प्रयास करे। औषधीय पौधों की खेती किसी भी किसान को निर्यातक भी बना सकती है तथा अपने औषधीय पौधों की खेती से जुड़े उद्योग स्थापित कर  वही किसान  निर्यातक के साथ-साथ उद्योगपति भी बन सकता है।  केवल आवश्यकता है तो उसके भीतर मानसिक रूप से एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाए जाने की जो हजारों वर्ष प्राचीन कृषि के पर परागत आवरण से उसे बाहर निकाल सके तथा औषधीय पौधों  की खेती किये जाने के  लिए उसे प्रोत्साहित कर सके।  भारत के पूर्व राष्टï्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम से भी भारतीय किसान प्रेरणा ले सकते हैं जिन्होंने राष्टï्रपति भवन में प्र्याप्त मात्रा में औषधीय पौधे लगाये जाने की शुरूआत की।  निश्चित रूप से किसानों के  साथ-साथ ग्रा य विकास  स्तर पर सरकारी प्रयासों व समाज  सेवी संस्थाओं को भी इस कार्य में सक्रिय रूप से अपनी भागीदारी भी निभानी होगी।
 
निर्मल रानी
 

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