किसान की समृद्धि और विकास मतलब देश की समृद्धि

किसान की समृद्धि और विकास मतलब देश की समृद्धि

भूमि' कृषि प्रधान भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है। देश की दो तिहाई से अधिक आबादी आज भी  कृषि, पशुपालन और इससे सम्बंधित व्यवसायों पर निर्भर है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली देश की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पूरी तरह भूमि पर निर्भर है, लेकिन हाल के वर्षों में सरकार भूमि अधिग्रहण से ग्रामीण क्षेत्रों की कृषि योग्य निजी और सार्वजनिक जमीन निरन्तर सिकुड़ती जा रही है।
शहरी विस्तार से जुडी विभिन्न योजनाओं, औद्योगिकरण और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के नाम पर सरकार अधिग्रहण कर देश को  जाने-अंजाने में एक बड़े संकट की ओर धकेल रही है। इसमें आने वाले समय में देश की जरूरत के लिए खाद्यान्न और कृषि उत्पादों का संकट पैदा होने की आशंका बढ़ गई  है तो दूसरी ओर  किसानों और ग्रामीण आबादी को उनकी पुस्तैनी जमीन से बेदखल किए जाने से विस्थापन और सदियों पुरानी ग्रामीण समाज व्यवस्था के नष्ट होने का खतरा बढ़ गया है।
यह स्थिति कम या ज्यादा कमोबेश  पूरे देश की है। संक्षेप में कहा जाए तो शहरी विस्तार और अधाधुंध औद्योगीकरण से  देश का सामाजिक ताना-बाना भी प्रभावित होता  है। अगर हम एक नजर पर्यावरण संकट पर डाले तो स्पस्ट है, कि विश्व की करीब एक चौथाई जमीन बंजर हो चुकी है, अर्थात् इस बंजर जमीन पर कृषि नही की जा सकती है और यही स्थिति रही तो  सूखा प्रभावित क्षेत्र  की करीब 70 प्रतिशत जमीन कुछ ही समय में बंजर हो जायेगी। 
जलवायु परिवर्तन अपने साथ तापमान और बारिश में बदलाव लाता है जो कीड़ों और बीमारियों में बढ़ोत्तरी  करता है। फसलों के उत्पादन को प्रभावित करता है, और वैश्विक जैव विविधता और पारिस्थितिकी के लिए खतरा है और बाद में कृषि के उत्पादन में विभिन्नता ,खाद्य सुरक्षा जैसे मसलों और कुपोषण के तौर पर सामने आता है और  आखिर  में लोगों  के  कल्याण  पर असर डालता है।
किसान हैल्प के कार्यक्रम में राधा कान्त ने अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहा
आज किसी भी चीज का मापदण्ड है 'विकास'। राननीति से लेकर प्रशासन तक का केवल एक ही मुद्दा है 'विकास'। इस विकास को नापने का एक पैमाना भी बनाया गया है और वह है 'समृद्धि'। व्यक्ति का विकास मतलब व्यक्ति की समृद्धि और देश का विकास मतलब देश की समृद्धि। समृद्धि का भी अर्थ निश्चित और सीमित कर दिया गया है। पैसों और संसाधनों का अधिकाधिक प्रवाह ही समृद्धि का अर्थ है। पैसे भी संसाधनो से ही आते हैं, इसलिए कुल मिलाकर अधिकाधिक संसाधन चाहिए।भारत में विकास का जो प्रारूप विकसित हुआ, उसमें मनुष्य के साथ प्रत्येक जीव व् जड़ प्रकृति की आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया था। मनुष्य के केवल भौतिक पक्ष  की ही चिंता करने की बजाए उसके सामाजिक, मानसिक और आत्मिक पक्षो की भी चिंता की गई थी। केवल  मनुष्य को सुख-सुविधाओं से लैस करने की कभी कोई योजना अपने यहां नहीं बनाई गई, इसलिए देश में एक मुहावरा प्रचलित हुआ "उत्तम खेती, मध्यम बान; निकृष्ट  चाकरी, भीख निदान" इसका अर्थ बहुत साफ़ है। नौकरी करने को अपने देश में एक मुहावरा के तौर पर लिया गया अर्थात् नौकरी को कभी महत्ता नहीं दी गई। पशु,भूमि और मनुष्य इस प्रकार पूरी प्रकृति मात्र का पोषण करने वाली खेती को ही सर्वोत्तम माना गया। खेती की इस भारतीय अर्थव्यवस्था में पशु सहायक हुआ करते थे 'बोझ' नहीं, इसलिए किसान  के लिए कभी उपयोग में नहीं लाता था।
उन्होंने इस मौके पर कहा कि खेती को फायदे का धंधा बनाएं जरूर, लेकिन लोगों की जान की कीमत पर नहीं। किसानों को जैविक और परंपरागत खेती करने की सलाह भी दी। किसान खेती को जहरीला नहीं बनाएं। रसायनों का कम उपयोग करें। 
किसान अन्नदाता हैं और देश का पेट भरते हैं इसलिए लोगों के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। अपनी बात को रखने के लिए जब भी धरना या प्रदर्शन करें तो राजनीतिक दलों के व्यवहार से अलग दिखें, ऐसा कुछ करें। 
युवाओं को खेती से जोड़ने का प्रयास
कार्यक्रम में उन्होंने बार बार युवा किसानों को आमंत्रित किया ।उनका मानना है कि युवा आज किसानी छोड़कर नौकरी की ओर रुख कर रहा है। उन्हें नौकरी के बजाय खेती से जोड़ने के लिए प्रेरित किया जाए ।

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