बदल रहे हैं अनाज के कटोरे

 deष के अनाज के कटोरे

करीब 50 साल पहले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को देशवासियों से यह अपील करनी पड़ी थी कि वे दिन में एक वक्त खाना न खाएं. 1965 के सूखे के बाद देश में अनाज की आपूर्ति काफी तंग हो गई थी और देशभक्ति की भावना के तहत अनाज के अतिशय उपभोग के खिलाफ चेताया जा रहा था. लोगों से कहा जा रहा था: आप खाने के बाद जितना छोड़ देते हैं, बाकी लोगों के पास उतना भी नहीं है.

आज यह सोचना असंभव लगता है कि कोई प्रधानमंत्री भारतीयों से यह अपील करे कि वे कम उपभोग करें और यह उम्मीद करे कि लोग उसे बख्श देंगे. कुछ भी हो, देश अब तंगी से लगभग असंभव उत्पादन वाले दौर में पर्याप्त रूप से बदल चुका है. हरित क्रांति इसकी एक बड़ी वजह रही है. लेकिन अगर इस बात पर गौर करें कि भारत किस तरह से पैदावार और खपत कर रहा है तो पूरी रूपरेखा में बदलाव होता दिख रहा है.

1964 के मध्य में अनाज की तंगी से हलकान, जिसके बाद लगातार दो साल तक 1965 और 1966 में भी मानसून की बारिश में क्रमश: 18.2 फीसदी और 13.2 फीसदी की कमी का झटका सहना पड़ा, सरकार ने कई कदम उठाए—भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) की स्थापना की गई, एक कृषि मूल्य आयोग (एपीसी) की स्थापना (कृषि लागत एवं मूल्य आयोग-सीएसीपी की पूर्ववर्ती संस्था) की गई और गेहूं की ऊंची पैदावार वाली किस्मों की खेती होने लगी ताकि देश में हरित क्रांति आ सके.

चाहे वह मैक्सिको में विकसित गेहूं की बौनी प्रजातियां हों या फिलीपींस में विकसित चावल की अर्द्ध-बौनी प्रजाति, खाद्यान्नों की तंगी को दूर करने के लिए भारत ने हर उपाय का स्वागत किया. इससे उत्तर-पश्चिमी भारत (पंजाब और हरियाणा) में खेती का परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया और यह क्षेत्र देश का फूड बास्केट यानी खाद्यान्न मुहैया करने का केंद्र बन गया और इसके साथ ही आंध्र प्रदेश भी चावल का प्रमुख उत्पादक बनता गया.

अब चावल और गेहूं की पैदावार का भूगोल एक बार फिर बदल चुका है, जिसमें सरप्लस उपज देने वाले कई नए राज्य उभरे हैं और इसके साथ ही अगर ग्रामीण भारत में ब्रॉयलर फार्म (मुर्गी पालन) के उभार को भी देखें. 2014 के आसपास फूड बास्केट के नक्शे में भारी बदलाव आया है.

राहत देती हरियाली
अनाज खरीद की राजनैतिक अर्थव्यवस्था और ज्यादा-से-ज्यादा पैदावार करने के पारिस्थितिकीय प्रभाव की वजह से अब हरित क्रांति वाले मूल इलाकों पर दबाव दिखने लगा है. सार्वजनिक खरीद तंत्र इसलिए बनाया गया था ताकि पंजाब और हरियाणा में खाद्यान्न की अतिरिक्त पैदावार को अनाज की तंगी वाले क्षेत्रों में भेजा जा सके, लेकिन इसका फायदा उक्त राज्य सरकारों के निहित स्वार्थी तत्वों और किसानों ने उठाया है.

इसका नतीजा यह हुआ कि धान और गेहूं किसानों के लिए नकदी फसल बन गए क्योंकि इसकी सरकारी खरीद होने के नाते उन्हें आमदनी का भरोसा मिल गया और राज्य सरकारों ने खरीद प्रक्रिया से टैक्स हासिल करने के इरादे से इसे बनाए रखा.

लेकिन धान-गेहूं का फसल चक्र इन क्षेत्रों की जमीन की उर्वरता और भूमिगत जल संसाधनों के लिए भारी साबित हुआ है. देश का फूड बास्केट बने रहने के लिए इन किसानों ने ज्यादा-से-ज्यादा उर्वरक इस्तेमाल किए और गहराई में स्थित पानी को खींचने के लिए ज्यादा बिजली का इस्तेमाल किया जिससे उनकी लागत बढ़ती गई.

इसके विपरीत कई दूसरे राज्यों ने पैदावार और उत्पादकता में वृद्धि की, जिससे पंजाब और हरियाणा को उस दुष्चक्र से बाहर निकलने में मदद मिली जिससे जमीन की उर्वरता घट रही थी और जल स्तर नीचे खिसकता जा रहा था. देश में खाद्यान्न पैदावार के नए केंद्र बन गए हैं: धान के लिए छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और गेहूं के लिए मध्य प्रदेश.

धान का नया कटोरा
2004-05 में पंजाब, हरियाणा और आंध्र प्रदेश धान की सबसे ज्यादा सरप्लस पैदावार वाले क्षेत्र थे. राष्ट्रीय धान खरीद में इनका योगदान करीब 60 फीसदी था, जबकि कुल उपज में इनका हिस्सा महज 27.7 फीसदी था. इसके करीब एक दशक बाद कुल खरीद में इन तीनों राज्यों का हिस्सा घटकर 52 फीसदी और उनकी पैदावार भी मामूली गिरावट के साथ महज 25.2 फीसदी रह गया है (2012-13 के आंकड़े).

धान के कटोरे में उनका यह हिस्सा छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड ने हासिल कर लिया है. 2004-05 में राष्ट्रीय पैदावार में करीब 10 फीसदी की ही हिस्सेदारी रखने वाले इन राज्यों की अब कुल धान पैदावार में हिस्सेदारी बढ़कर 16 फीसदी हो गई है. नतीजतन राष्ट्रीय खरीद में भी इनका योगदान 2004-05 के 12.9 फीसदी से बढ़कर अब 18.6 फीसदी हो गया है. इसे दूसरे तरीके से देखते हैं.

धान की पैदावार में 2 करोड़ टन से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है, 2004-05 के 8.31 करोड़ टन से बढ़कर 2012-13 में 10.44 करोड़ टन, और पैदावार के इस उछाल में करीब 84.5 लाख टन (करीब 40 फीसदी) का योगदान उक्ïत तीनों राज्यों का है. इसके विपरीत इस बढ़त में पंजाब, आंध्र प्रदेश और हरियाणा का योगदान महज 15 फीसदी (32 लाख टन) रहा है.

छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड में धान की पैदावार 85.3 लाख टन (2004-05) से बढ़कर 1.7 करोड़ टन (2012-13) तक पहुंच गई है, जो पैदावार में 100 फीसदी की बढ़त को दर्शाता है, जबकि इस दौरान पूरे देश में पैदावार महज 25 फीसदी ही बढ़ी थी.

खासकर बिहार में धान की पैदावार में 200 फीसदी की उछाल देखी गई है, 2004-05 के 24.7 लाख टन से बढ़कर 2012-13 में 73.4 लाख टन, जो छत्तीसगढ़ के साथ इसके भी धान के कटोरे के रूप में उभरने का महत्वपूर्ण संकेत दे रही है. इस दौरान छत्तीसगढ़ में धान की पैदावार में 50 फीसदी की बढ़त हुई है.

नए इलाकों में धान सघनीकरण तंत्र (एसआरआइ) जैसे कृषि विज्ञान के नए दस्तूर अपनाने से धान की पैदावार में यह भारी उछाल आई है.

बिहार के मुख्य सचिव (कृषि) अमृत लाल मीणा बताते हैं, ''इस सकारात्मक बदलाव के लिए व्यापक रणनीति अपनाई गई है. इसमें प्रमाणित बीजों के माध्यम से गहन बीज बदलाव, खेती का मशीनीकरण और हरित खाद का इस्तेमाल शामिल हैं. सबसे महत्वपूर्ण रहा सरकारी विस्तार कार्यकर्ताओं की तैनाती के माध्यम से खासकर एसआरआइ जैसी तकनीक हस्तांतरित करना.”

केंद्र सरकार के आंकड़ों से पता चलता है कि 2012-13 में बिहार ने धान की पैदावार के मामले में छत्तीसगढ़ को पछाड़ दिया है. हालांकि, छत्तीसगढ़ के मजबूत खरीद तंत्र की वजह से वह अनाज बास्केट में योगदान करने के मामले में अब भी बिहार से आगे है.

धान की खेती के पैटर्न में इस बदलाव से पंजाब और हरियाणा पर इस ज्यादा पानी गटकने वाली फसल की खेती का दबाव कम होगा, जिसकी वजह से उनके यहां जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है और इससे देश की खाद्य सुरक्षा पर भी कोई जोखिम नहीं आएगा.

पूर्व केंद्रीय कृषि आयुक्त और फिलहाल कृषि वैज्ञानिक भर्ती बोर्ड के अध्यक्ष गुरबचन सिंह कहते हैं, ''पारिस्थितिकीय लिहाज से देखें तो पूर्वी भारत के इलाके-बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड चावल के वास्तविक उत्पादक क्षेत्र हैं क्योंकि वहां पानी प्रचुर मात्रा में है और फसल के लिए मिट्टी और जलवायु भी अच्छी है. पहली हरित क्रांति के इलाकों में पैदावार स्थिर हो चुकी है और भूजल भी घटता जा रहा है.

इसके विपरीत नए इलाकों में अभी उत्पादकता कम है और वहां धान की खेती के लिए अच्छी संभावना है. अब समय आ गया है हरित क्रांति के मूल इलाकों में धीरे-धीरे धान की खेती बंद करें और वहां फसलों में विविधीकरण को अपनाएं.”

गेहूं का इलाका भी बदल रहा 
पिछले दशक में गेहूं की पैदावार और खरीदी के केंद्रों में भी जबरदस्त बदलाव आया है. मध्य प्रदेश अब गेहूं के सरप्लस वाले नए राज्य के रूप में उभर रहा है जो देश की खाद्य सुरक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए हरित क्रांति के मूल इलाकों का बोझ कम करने को तैयार है.

2004-05 में पंजाब और हरियाणा का राष्ट्रीय पैदावार में योगदान जहां करीब 35 फीसदी का था, वहीं गेहूं खरीद में इन राज्यों के सरप्लस का योगदान करीब 85.5 फीसदी था. लेकिन 2012-13 में गेहूं की राष्ट्रीय पैदावार में इन राज्यों का योगदान महज 30 फीसदी रह गया है और राष्ट्रीय खरीद में भी इनका योगदान घटकर 56.35 फीसदी रह गया. 

इसके विपरीत, गेहूं के राष्ट्रीय स्तर पर उत्पादन में मध्य प्रदेश सबसे बड़े योगदान वाले राज्य के रूप में उभरा है. इसका योगदान 10.5 फीसदी से बढ़कर 14.2 फीसदी तक पहुंच गया. वास्तव में, इस राज्य में गेहूं का उत्पादन करीब 83 फीसदी बढ़ा है और यह 2004-05 के 71.8 लाख टन से बढ़कर 2012-13 में 1.31 करोड़ टन तक पहुंच गया.

नतीजतन मध्य प्रदेश सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गेहूं के योगदान के मामले में दूसरा सबसे बड़ा राज्य बन गया है और उसने हरियाणा को इस पायदान से खिसकाकर तीसरे स्थान पर पहुंचा दिया है. यह उस राज्य के लिए उल्लेखनीय उपलब्धि ही कही जाएगी जिसका 2004-05 में गेहूं खरीद में योगदान 5 लाख टन से भी कम था. यह आंकड़ा 2012-13 में बढ़कर 85 लाख टन तक पहुंच गया है.

इस बदलाव को एक और नजरिए से देखें, देश में गेहूं की कुल पैदावार 6.86 करोड़ टन (2004-05) से बढ़कर 9.24 करोड़ टन (2012-13) तक पहुंच गई है और इस बढ़त में अकेले मध्य प्रदेश का योगदान करीब 25 फीसदी रहा. उसने अपनी पैदावार में 59.5 लाख टन की बढ़त की. इस दौरान गेहूं की पैदावार की राष्ट्रीय वृद्धि में पंजाब और हरियाणा का योगदान महज 34.7 लाख टन रहा (15 फीसदी से कम).

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहते हैं, ''इस सुधार के पीछे कई कारक हैं. पहली वजह यह है कि सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया गया है. जब मैं मुख्यमंत्री बना था (2005 में) तो यह करीब 7 लाख हेक्टेयर तक थी जो बढ़कर 27 लाख हेक्टेयर तक हो गई है.

दूसरी वजह, हमने बीज बदलाव अनुपात को बढ़ाकर करीब 30 फीसदी तक पहुंचा दिया है. इसके साथ ही, हमने यह सुनिश्चित किया है कि बिजली और उर्वरक समय पर मिल सकें. हमने शून्य फीसदी ब्याज दर पर कृषि लोन की पेशकश की है, साथ ही किसानों को बोनस की पेशकश कर ज्यादा पैदावार के लिए भी प्रोत्साहित किया है.” हालांकि, चौहान ने कहा कि आगे चलकर बागबानी फसलों और फूड प्रोसेसिंग पर भी जोर दिया जाएगा ताकि किसानों की आमदनी बढ़ सके.

कुक्कुट क्रांति
बढ़ती आमदनी और शहरीकरण की वजह से आने वाली मांगों को पूरा करने के लिए कृषि क्षेत्र की संरचना में भी भारी बदलाव आता दिख रहा है. इस बदलाव का साक्ष्य यह तथ्य है कि कृषि और संबंधित क्षेत्रों के उत्पादन में पशुधन का योगदान अनाज को पीछे छोड़ चुका है.

1990-91 से 2010-11 के बीच कुल कृषि पैदावार में अनाज का हिस्सा 27.3 से 21 फीसदी रह गया. पशुधन का हिस्सा 23.7 से बढ़कर 29 फीसदी तक पहुंच गया. यानी कुल कृषि जीडीपी में पशुधन क्षेत्र का योगदान अनाज से भी ज्यादा हो गया है. यहां तक कि बागबानी क्षेत्र का योगदान भी 1990-91 में तीन साल के अंत (टीई) पर 16 फीसदी से बढ़कर टीई 2009-10 में 20 फीसदी पहुंच गया.

इसके मायने यह हुए कि कृषि में बागबानी का हिस्सा अनाज के योगदान के करीब पहुंच गया है और इसके अनाज से आगे बढ़ जाने में अब कुछ समय की ही देर है. यह बदलाव नेशनल सेम्पल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के सुझाए बदलावों की ओर ही इशारा करता—2005 से 2010 के बीच अनाज की प्रति व्यक्ति खपत में गिरावट और अंडों तथा चिकन (दोनों पोल्ट्री उत्पाद) की खपत में दो अंकों की बढ़ोतरी. यह लोगों की बढ़ती आय और शहरीकरण से बढऩे वाली प्रोटीन सहित अन्य पोषक तत्वों की मांग को पूरा करता है.

1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के बाद सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का योगदान 1990-91 के 30 फीसदी से घटकर 2011-12 में 15 फीसदी से भी कम रह गया है. लोगों की बढ़ती आमदनी और शहरीकरण कृषि क्षेत्र की संरचना में बदलाव के मुख्य वाहक हैं.

अंडे का उत्पादन 2006-07 के 50.7 अरब अंडों के मुकाबले 37 फीसदी बढ़कर 2012-13 में 69.73 अरब अंडों तक पहुंच गया है. यह 1950-51 के मुकाबले काफी आगे बढ़ चुका है, जब अंडों का सालाना उत्पादन महज 1.8 अरब था. वैसे तो कृषि जीडीपी में गैर अनाज श्रेणी का योगदान बढ़ रहा है, यह अब भी बढ़ती मांग को पूरा कर पाता नहीं दिख रहा.

एनएसएसओ के सर्वे से पता चलता है कि अंडों की सालाना मांग (2005-10 में) 10 फीसदी से ज्यादा बढ़ी है, इसका उत्पादन सालाना 5 फीसदी ही बढ़ रहा है. इसी वजह से पिछले दो साल में अंडों, मांस-मछली में महंगाई दो अंकों में देखी गई है. मांग-आपूर्ति में इस असंतुलन के अलावा कुक्कुट क्षेत्र भी कृषि और संबंधित क्षेत्रों में बदलाव को रेखांकित करता है.

1950-51 में अंडों की प्रति व्यक्ति सालाना उपलब्धता सिर्फ पांच थी जो 2011-12 में बढ़कर 55 पहुंच गई है. अंडों के उत्पादन के मामले में पांच सबसे बड़े राज्य आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और हरियाणा हैं. खास यह कि हरियाणा ऐसा राज्य है जहां आर्य समाज और शाकाहारवाद का अपना इतिहास रहा है. 

बढ़ती मांग की वजह से कुक्कुट उद्योग खासकर आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्यों में अवैज्ञानिक तरीके से अहातों में देसी नस्ल की मुर्गियां पालने की जगह हाइब्रिड मुर्गी पालन के संगठित वाणिज्यिक उद्यम स्थापित करने को मजबूर हुआ है.

यह मार्के की बात है कि भारतीय पोल्ट्री सेक्टर के दिग्गज खिलाड़ी वेंकी’ज ग्रुप ने कुछ साल पहले ब्लैकबर्न रोवर्स फुटबॉल क्लब खरीदा है. पोल्ट्री सेक्टर ने न सिर्फ ब्रीडिंग, हैचिंग, रीयरिंग और प्रोसेसिंग में बड़े निवेश को आकर्षित किया है, बल्कि छोटे किसानों ने भी हाइब्रिड पालने शुरू किए हैं. वास्तव में पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में मुर्गी पालन फार्म का प्रसार इसका संकेत है कि पिछले दशकों में कृषि क्षेत्र में भारी बदलाव आए हैं.