गैहूं फसल में खीरा-ककड़ी वर्गीय सब्जियों की अंतर-रिले फसल उगाने की तकनीक

सब्जियों का भारतीय कृषि में महत्वपूर्ण स्थान है। ये बहुत सी दूसरी फसलों की तुलना में प्रति ईकाई क्षेत्र में अधिक पैदावार देती है और कम समय में तैयार हो जाती है। भारत में खीरा-ककड़ी वर्गीय कुल की लगभग 20 प्रकार की सब्जियों की खेती की जाती है। इनमें धीया/लौकी, तोरी, करेला, खीरा, तरबूज, खरबूज, ककड़ी, कद्दू /सीताफल, चप्पनकद्दृ, टिण्डा, परवल आदि मुख्य है। ये सभी बेलवाली फसलें होती हैं जो कम कैलोरी व सरलता से पचने वाली होने के साथ-साथ विटामिन्स, अमीनो अम्ल एवं खनिज लवणों का अच्छा स्त्रोत है ।

ये सब्जियां उत्तर भारत के मैदानी भागों में फरवरी से जून तथा जुलाई से नवबंर तक उगाई जाती है।

उत्तर भारत में गैंहू, की फसल एक बड़े भू-भाग में उगाई जाती है। मार्च-अप्रैल माह में गैंहू की कटाई उपरांत अधिकाशं खेत खाली रहते है जिनमें जून-जूलाई माह में खरीफ फसल की बुवाई की जाती है। मार्च-अप्रैल से जून-जूलाई तक 80-90 दिन की इस अवधि के दौरान किसान भाई गैहूं में खीरा-ककड़ी वर्गीय सब्जियों की रिले फसल उगाकर अपनी आमदनी बढा सकते है। उत्तर भारत मेंसाघारणत्या आलू , मटर, सरसों, तोरिया आदि फसल लेने के उपरातं अधिकतर किसान जनवरी के अंत से लेकर मार्च के प्रथम पखवाडे तक खीरा-ककड़ी वर्गीय सब्जियों की बुआई बीज द्वारा करते है तथा फसल की पैदावार अप्रैल के अतं से जून तक चलती है। दिसंबर या जनवरी माह में पॉलीथीन घर में थैलियों में तैयार किये गए पौधों को फरवरी के अतं में (पाला पड़ने का खतरा समाप्त होने पर) रोप कर इन फसलों की अगेती फसल ली जाती है। कई किसान भाई गैहू की कटाई उपरांत थैलियों में तैयार किये गए पौधों को खेत में रोपकर या बीज लगाकर इन फसलों की खेती करते है परंतु जून-जूलाई में बरसात आने के कारण खरबूज, तरबूज, पेठा, टिडां आदि सब्जियों की गुणवत्ता में कमी आने से आर्थिक हानि होने की सभंावना बनी रहती है। प्रयोगों में पाया गया है कि अंतर-रिले फसल उत्पादन विधि द्वारा किसान भाई जून के प्रथम पखवाड़े तक गैहूं की फसल कटने के बाद खेत का उपयोग ककड़ी वर्गीय सब्जियों के फल एवं बीज उत्पादन हेतु सफलतापूर्वक कर सकते है।

रिले फसल उत्पादन विधि:

रिले फसल उत्पादन की इस पध्दति में गैहूं (आघार फसल) की बुआई के समय ही खीरा-ककड़ी वर्गीय सब्जियों (उत्तेरा फसल) के लिए भी योजना बना ली जाती है। गैहूं की बीजाई हेतु खेत तैयार करते समय 3.0 से 4.0 मीटर की दुरी पर 45 सै. मी. चौड़ी व 30-40 सै.मी. गहरी नालियां बना कर छोड़ देतें है। नालियों के बीच में गैहूं की बीजाई की जाती है। गैहूं की बीजाई (अक्टुबर-दिसंबर) से लेकर फरवरी तक इन नालियों को खाली रखते है। इस अवधि के दौरान इन नालियों का उपयोग तोरीया, सरसों, पालक, मेथी मूली, गाजर आदि अंतर-फसल उगाकर भी किया जा सकता है। जनवरी-फरवरी माह में नालियों के किनारों पर 50-60 सै.मी. की दूरी पर थावले बना लेते है तथा नालियों को खरपतवार रहित कर लिया जाता है। नालियों में तैयार किए गए इन थावलों में गैहूं की कटाई से 30-35 दिन पहले (पाला पड़ने का खतरा समाप्त होने पर)  बीज लगाते है। अगर बेल वर्गीय सब्जियों की पौध पॉलीथीन बैग मेें तैयार की गई है तो नालियों में पौध का रोपण गैहूं की कटाई से 20-25 दिन पहले करते है। पॉलीथीन बैग मेें पौध तैयार करने हेतु 15 से.मी. लम्बे तथा 10 से.मी. चौड़ाई वाले पॉलीथीन (100-200 गॉज) के थैलों में मिटटी, रेत व खाद का मिश्रण बनाकर भर लेते है। प्रत्येक पॉलीथीन बैग की तली में 4-5 छोटे छेद कर लिए जाते है तथा मिश्रण  भरते समय यह घ्यान रखते है कि प्रत्येक पॉलीथीन बैग के किनारे पर 2-3 से.मी. जगह पानी देने के लिए खाली रहे। इन थैलों में बीज बोने से पहले बीज को फफुंुदी नाशक से उपचारित कर लें। प्रत्येक थैले में 2-3 उपचारित बीज जनवरी-फरवरी माह में लगाए जाते है। बीजों की बुआई के बाद थैलों में हल्की सिचांई फव्वारे की मदद से करते है। बीज अंकुरित होने पर प्रत्येक थैले में एक स्वस्थ पौधा छोड़कर बाकी पौधे निकाल देते है। पॉलीथीन बैग में तैयार किये जाने वाले पौधों को ठंड से बचाने हेतु आवश्यकतानूसार  पॉलीथीन घर का प्रयोग किया जाता है। गैहूं की कटाई से 20-25 दिन पहले  खेत की नालियों में थैलों की पोलीथीन को ब्लेड से काटकर व पौधों को मिटटी सहित निकालकर उचित दुरी पर तैयार गड्डों/थालों में रोप दिया जाता है। पौध रोपाई के तुरंत बाद हल्की सिचांई करना आवश्यक होता है। अगर खेत में गैहूं छिटक कर बोया जाना है तो भी खेत तैयार करते समय  3.0 से 4.0 मीटर की दुरी पर 45 सै. मी. चौड़ी व 30-40 सै.मी. गहरी नालियां बना कर छोड़ देतें है। गैहूं की कटाई से 45-50 दिन पहले नालियों के अंदर व उपर उगे हुए गैहूं को काट लेते है तथा नालियों के किनारों पर 50-60 सै.मी. की दूरी पर थावले बना लेते है तथा नालियों को खरपतवार रहित कर लिया जाता है। पाला पड़ने का खतरा समाप्त होने पर ( फरवरी के अतं में ) नालियों में तैयार किए गए थावलों में पौध रोपण या 2-3 उपचारित बीज लगाए जाते है। खेत में पौधे लगाने की इस विधि में खाद व उर्वरकों का प्रयोग, निराई-गुड़ाई व सिंचाई आदि क्रियाएं नालियों के अंदर ही की जाती है। इस विधि में नालियों के बीच की जगह में सिंचाई नहीं की जाती जिससे फल गीली मिट्टी के सम्पर्क में नहीं आते तथा खराब होने से बच जाते है।

सुरेश चंद राणा, राजेन्द्र सिहं छौक्कर1, विनोद कुमार पंडिता एवं भोपाल सिंह तोमर