धान के प्रमुख रोग

1. भूरी चित्ती रोग(Brown Spot)

यह रोग देश के लगभग सभी हिस्सों मे फैली हुई है, खासकर पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु इत्यादि।  उत्तर बिहार का यह प्रमुख रोग है। यह एक बीजजनित रोग है।

इस रोग मे धान की फसल को जड़ से लेकर दानों तक को नुकसान पहुँचाता है। इस रोग के कारण पत्तियों पर गोलाकार भूरे रंग के धब्बें बन जाते है। यह रोग फफॅूंद जनित है। पौधों की बढ़वार कम होती है, दाने भी प्रभावित हो जाते है, जिससे उनकी अंकुरण क्षमता पर भी प्रभाव पड़ता है। पत्तियों पर तिल के आकार के भूरे रंग के काले धब्बें बन जाते है। ये धब्बें आकार एवं माप मे बहुत छोटी बिंदी से लेकर गोल आकार का होता है। धब्बों के चारो ओर हल्की पीली आभा बनती है। पत्तियों पर ये पूरी तरह से बिखरे होते है। धब्बों के बीच का हिस्सा उजला या बैंगनी रंग की होती है। बड़े धब्बों के किनारे गहरे भूरे रंग के होते है, बीच का भाग पीलापन लिए, गेंदा सफेद या घूसर रंग का हो जाता है। उग्रावस्था मे पौधों के नीचे से ऊपर पत्तियों के अधिकांश भाग धब्बों से भर जाते है। ये धब्बें आपस मे मिलकर बड़े हो जाते है, और पत्तियों को सुखा देते है। आवरण पर काले धब्बे बनते है। इस रोग का प्रकोप उपराऊ धान मे कम उर्वरता वाले क्षेत्रों मे मई-सितम्बर माह के बीच अधिक दिखाई देते है। यह रोग ज्यादातर उन क्षेत्रों मे देखने को मिलता है, जहाँ किसान भाई खेतों मे उचित प्रबंधन की व्यवस्था नही कर पाते है। इसमे जड़ के अलावे पौधे के सभी रोगी हो सकते है। इस रोग मे दानों के छिलको पर भूरे से काले धब्बें बनते है, जिससे चावल बदरंग हो जाता है।

रोग नियंत्रण:-

1. बीजों को थीरम एवं कार्बेन्डाजिम (2:1) की उग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए।

  1. रोग सहनशी किस्मों जैसे- बाला, कृष्णा, कुसुमा, कावेरी, रासी, जगन्नाथ और आई आर 36, 42, आदि का व्यवहार करें।
  2. रोग दिखाई देने पर मैन्कोजैव के 0.25 प्रतिशत घोल के 2-3 छिड़काव 10-12 दिनों के अन्तराल पर करना चाहिए।
  3. अनुशंसित नेत्रजन की मात्रा ही खेत मे डाले।
  4. बीज को बेविस्टीन 2 ग्राम या कैप्टान 2.5 ग्राम नामक दवा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से बुआई से पहले उपचारित कर लेना चाहिए।
  5. खड़ी फसल में इण्डोफिल एम-45 की 2.5 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी मे घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव 15 दिनों के अन्तर पर करें।
  6. रोगी पौधों के अवशेषों और घासों को नष्ट कर दें।
  7. मिट्टी मे पोटाश, फास्फोरस, मैगनीज और चूने का व्यवहार उचित मात्रा मे करना चाहिए।

2. झोंका (ब्लास्ट) रोग/ प्रध्वंस (Blast)

यह रोग पिरीकुलेरिया ओराइजी नामक कवक द्वारा फैलता है। धान का यह ब्लास्ट रोग अत्यंत विनाशकारी होता है। पत्तियों और उनके निचले भागों पर छोटे और नीले धब्बें बनते है, और बाद मे आकार मे बढ़कर ये धब्बें नाव की तरह हो जाते है। बिहार में मुख्यत: इस रोग का प्रकोप सुगंधित धान मे पाया जाता है। इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों पर दिखाई देते है, लेकिन इसका आक्रमण पर्णच्छद, पश्पक्रम, गांठो तथा दानों के छिलको पर भी होता है। मुख्यत: पत्ती ब्लास्ट, पर्वसंधि ब्लास्ट और गर्दन ब्लास्ट के रूप मे इस रोग को देखते है। यह फफूँदजनित है। फफूंद पौधे के पत्तियों, गांठो एवं बालियों के आधार को भी प्रभावित करता है। धब्बों के बीच का भाग राख के रंग का तथा किनारें कत्थई रंग के घेरे की तरह होते है, जो बढ़कर कई सेन्टीमीटर बड़ा हो जाता है। जब यह रोग उग्र होता है, तो बाली के आधार भी रोगग्रस्त हो जाते है, और बाली कमजोर होकर वही से टूट कर गिर जाती है। भूरे धब्बों के मध्य भाग मे सफेद रंग होता है। इस अवस्था मे अधिक क्षति होती है। गांठ का भूरा-काला होना एवं सड़न की स्थिति मे टूटना, दानों का खखड़ी होना एवं बाली के आधार पर फफूंद का सफेद जाल होना 'नेक राट' कहलाता है। क्षत स्थल के बीच का भाग घूसर रंग का हो जाता है। अनुकूल वातावरण मे कई क्षतस्थल बढ़कर आपस मे मिल जाते है, जिसके फलस्वरूप पत्तियां झूलसकर सूख जाती है। गाँठो पर भी भूरे रंग के धब्बें बनते है, जिससे समुचित पौधे को नुकसान पहुँचता है। तनो की गांठों पूर्णतया या उसका कुछ भाग काला पड़ जाता है, कल्लों की गांठो पर कवक के आक्रमण से भूरे धब्बें बनते है, जिससे गांठ के चारो ओर से घेर लेने से पौधे टूट जाते है। बालियों के निचले डंठल पर घूसर बादामी रंग के क्षतस्थल बनते है, जिसे 'ग्रीवा विगलन' कहते है। रोगी बालियों मे दाने नही बनते है, और बालियाँ सड़े भाग से टूट कर गिर जाती है। लीफ ब्लास्ट में पत्तियों पर राख के समान स्लेटी रंग का केन्द्रीय भाग एवं भूरे रंग के किनारों वाले बड़े शंक्वाकार अथवा ऑंखों की आकृति वाले धब्बें बनतें है।

पुष्पन के समय पर्वसंधि ब्लास्ट मे पर्वसंधि वाला भाग काला हो जाता है, और उस स्थान से पौधा टूट जाता है। रोग की वजह से डंढल बालियों के भार से टूटने लगते है, क्योंकि निचला भाग ग्रीवा संक्रमण से कमजोर हो जाता है। जिससे धान की उपज पर काफी असर देखने को मिलता है। गर्दन ब्लास्ट में, पुष्पगुच्छ के आधार भाग पर भूरे से लेकर काले रंग के धब्बें बन जाते है, जो मिलकार चारो ओर से घेर लेते है, और प्राय: पुष्पगुच्छ वहाँ से टूटकर गिर जाता है। रोग का गंभीर प्रकोप पाये जाने पर द्वितीयक टैकिली और दाने भी संक्रमित हो जाते है। परिणामस्वरूप शतप्रतिशत फसल की हानि होती है।

रोग नियंत्रण:-

  1. बीज को बोने से पहले बेविस्टीन 2 ग्राम या कैप्टान 2.5 ग्राम दवा को प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लें।
  2. नेत्रजन उर्वरक उचित मात्रा मे थोड़ी-थोड़ी करके कई बार मे देना चाहिए।
  3. खड़ी फसल मे 250 ग्राम बेविस्टीन +1.25 किलाग्राम इण्डोफिल एम-45 को 1000 लीटर पानी मे घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
  4. हिनोसान का छिड़काव भी किया जा सकता है। एक छिड़काव पौधशाला मे रोग देखते ही, तथा दो-तीन छिड़काव 10-15 दिनों के अन्तर पर बालियाँ निकलने तक करना चाहिए।
  5. बीम नामक दवा की 300 मिली ग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव किया जा सकता है।
  6. रोग रोधी किस्मों जैसे- आई आर 36, आई आर 64, पंकज, जमुना, सरजु 52, आकाशी और पंत धान 10 आदि को उगाना चाहिए।

3. पर्णच्छंद अंगमारी/ सीथ/ बैण्डेड ब्लास्ट रोग/ आच्छंद झुलसा/ पर्ण झुलसा/ शीथ झुलसा/ आवरण झुलसा रोग (Sheath Blight)

धान आच्छद झुलसा जो अब तक साधारणतया एक रोग माना जाता है, भारत के धान विकसित क्षेत्रों मे यह एक प्रमुख रोग बनकर सामने आया है। इस रोग के कारक राइजोक्टोनिया सोलेनाई नामक फफूँदी है, जिसे हम थेनेटीफोरस कुकुमेरिस के नाम से भी जानते है। पानी की सतह से ठीक ऊपर पौधें के आवरण पर फफूँद अण्डाकार जैसा हरापन लिए हुए स्लेट/उजला धब्बा पैदा करती है। पत्तियों के आधार तथा पत्तियों पर बड़े-बड़े धारीदार हरे-भूरे या पुआल के रंग के रोगी स्थान बनते है। बाद मे ये तनो को चारो ओर से घेर लेते है, क्षतों का केन्द्रीय भाग स्लेटीपन लिए सफेद होता है, तथा किनारों पर रंग भूरा लाल होता है और ये क्षत धान के पौधों पर दौजियाँ बनते समय एवं पुष्पन अवस्था मे बनते है। इस रोग के लक्षण मुख्यत: पत्तियों एवं पर्णच्छद पर दिखाई पड़ते है। अनुकूल परिस्थितियों मे फफूँद छोटे-छोटे भूरे काले रंग के दाने पत्तियों की सतह पर पैदा करते है, जिन्हे स्कलेरोपियम कहते है। ये स्कलेरोपिया हल्का झटका लगने पर नीचे गिर जाता है। रोग की उग्रावस्था मे आवरण से ऊपर की पत्तियों पर भी लक्षण पैदा करती है। सभी पत्तियाँ आक्रांत हो जाती है। पौधा झुलसा हुआ प्रतीत होता है, और आवरण से बालियाँ बाहर नही निकल पाती है। बालियों के दाने भी बदरंग हो जाते है। वातावरण मे आर्द्रता अधिक तथा उचित तापक्रम रहने पर, कवक जाल तथा मसूर के दानों के तरह स्कलेरोशियम दिखाई पड़ते है। रोग के लक्षण कल्लें बनने की अंतिम अवस्था मे प्रकट होते है। लीफ शीथ पर जल सतह के ऊपर से धब्बे बनने शुरू होते है। पौधों मे इस रोग की वजह से उपज मे 50% तक का नुकसान हो सकता है।

रोग नियंत्रण :-

  1. जेकेस्टीन या बेविस्टीन 2 किलोग्राम या इण्डोफिल एम-45 की 2.5 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी मे घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
  2. खड़ी फसल मे रोग के लक्षण दिखाई देते ही भेलीडा- माइसिन कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम या प्रोपीकोनालोल 1 मि.ली. का 1.5-2 मिली प्रति लीटर पानी मे घोल बनाकर 10-15 दिन के अन्तराल पर 2-3 छिड़काव करें।
  3. धान के बीज को स्थूडोमोनारन फ्लोरेसेन्स की 1 ग्राम अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बुआई करें।
  4. घास तथा फसल अवशेषों को खेत मे जला देना चाहिए। गर्मी मे खेत की गहरी जुताई करें।
  5. प्रारम्भ मे खेत मे रोग से आक्रांत एक भी पौधा नजर आते ही काट कर निकाल दें।
  6. अधिक नेत्रजन एवं पोटाश का उपरिनिवेशन न करें।
  7. रोगरोधी किस्में जैसे- पंकज, सवर्नधान और मानसरोवर आदि को उगावें।

4. जीवाणुज पत्ती अंगमारी रोग/ जीवाणुज पर्ण झुलसा रोग (Bacterial Leaf Blight)

जीवाणुज पर्ण झुलसा रोग लगभग पूरे विश्व के लिए एक परेशानी है। भारत मे मुख्यत: यह रोग धान विकसित प्रदेशाें जैसे- पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश, छत्तीशगढ़, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटका, तमिलनाडु मे फैली हुई है। इसके अलावे अन्य कई प्रदेशों मे भी यह रोग देखी गई है। भारत वर्ष मे यह रोग सबसे गंभीर समस्या बन गया है। यह रोग बिहार मे भी बड़ी तेजी से फैल रहा है। यह रोग जैन्थोमोनास ओराइजी पी.वी. ओराइजी नामक जीवाणु से होता है।

मुख्य रूप से यह पत्तियों का रोग है। यह रोग कुल दो अवस्थाओं मे होता है, पर्ण झुलसा अवस्था एवं क्रेसेक अवस्था। सर्वप्रथम पत्तियों के ऊपरी सिरे पर हरे-पीले जलधारित धब्बों के रूप मे रोग उभरता है। पत्तियों पर पीली या पुआल के रंग कबी लहरदार धारियाँ एक या दोनो किनारों के सिरे से शुरू होकर नीचे की ओर बढ़ती है और पत्तियाँ सूख जाती हैं। ये धब्बें पत्तियों के किनारे के समानान्तर धारी के रूप मे बढ़ते हैं। धीरे-धीरे पूरी पत्ती पुआल के रंग मे बदल जाती है। ये धारियां शिराओं से धिरी रहती है, और पीली या नारंगी कत्थई रंग की हो जाती है। मोती की तरह छोटे-छोटे पीले से कहरूवा रंग के जीवाणु पदार्थ धारियों पर पाये जाते है, जिससे पत्तियाँ समय से पहले सूख जाती है। रोग की सबसे हानिकारक अवस्था म्लानि या क्रेसक है, जिससे पूरा पौधा सूख जाता है। रोगी पत्तियों को काट कर शीशे के ग्लास मे डालने पर पानी दुधिया रंग का हो जाता है। जीवाणु झुलसा के लक्षण धान के पौधे मे दो अवस्थाओं मे दिखाई पड़ते है। म्लानी अवस्था (करेसेक) एवं पर्ण झुलसा (लीफ ब्लास्ट) जिसमें पर्ण झुलसा अधिक व्यापक है। झुलसा अवस्था: पत्ती की सतह पर जलसिक्त क्षत बन जाते है, और इनकी शुरूआत पत्तियों के ऊपरी सिरों से होती है। बाद मे ये क्षत हल्के पीले या पुआल के रंग के हो जाते हैं, और लहरदार किनारें सहित नीचे की ओर इनका प्रसार होता है। ये क्षत उत्तिक्षयी होकर बाद मे तेजी से सूख जाते है। म्लानी या क्रेसेक अवस्था: रोग की यह अवस्था दौजियाँ बनना आरम्भ होने के दौरान नर्सरी मे दिखाई पड़ती है। पीतिमा एवं अचानक म्लानी इसके सामान्य लक्षण है। म्लानि वस्तुत: लक्षण की दूसरी अवस्था है। ये लक्षण रोपाई के 3-4 सप्ताह के अन्दर प्रकट होने लगते है। इस अवस्था मे ग्रसित पौधो की पत्तियाँ लम्बाई मे अन्दर की ओर सिकुड़कर मुड़ जाती है। जिसके फलस्वरूप पूरी पत्ती मुरझा जाती है, जो बाद मे सूख कर मर जाती है। कभी-कभी क्षतस्थल पत्तियों के बीच या मध्य शिरा के साथ-साथ पाये जाते है। ग्रसित भाग से जीवाणु युक्त श्राव बूंदों के रूप मे निकलता है। ये श्राव सूखकर कठोर हो जाते है। और हल्के पीले से नारंगी रंग की कणिकाएॅ। अथवा पपड़ी के रूप मे दिखाई देता है। आक्रांत भाग से जीवाणु का रिसाव होता है। यदि खेत मे पानी का जमाव हो तो धान की फसल से दूर से बदबू आती है। पर्णच्छद भी संक्रमित होता है, जिस पर लक्षण पत्तियों के समान ही होते है। रोग के उग्र अवस्था मे ग्रस्त पौधे पूर्ण रूप से मर जाते है।

रोग नियंत्रण:-

  1. एक ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या 5 ग्राम एग्रीमाइसीन 100 को 45 लीटर पानी घोल कर बीज को बोने से पहले 12 घंटे तक डुबो लें।
  2. बुआई से पूर्व 0.05 प्रतिशत सेरेसान एवं 0.025 प्रतिशत स्ट्रेप्टोसाईक्लिन के घोल से उपचारित कर लगावें।
  3. बीजो को स्थूडोमोनास फ्लोरेसेन्स 10 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित कर लगावें।
  4. खड़ी फसल मे रोग दिखने पर ब्लाइटाक्स-50 की 2.5 किलोग्राम एवं स्ट्रेप्टोसाइक्लिन की 50 ग्राम दवा 80-100 लीटर पानी मे मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
  5. खड़ी फसल मे एग्रीमाइसीन 100 का 75 ग्राम और काँपर आक्सीक्लोराइड (ब्लाइटाक्स) का 500 ग्राम 500 लीटर पानी मे घोलकार प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
  6. संतुलित उर्वरको का प्रयोग करे, लक्षण प्रकट होने पर नेत्रजन युक्त खाद का छिड़काव नही करना चाहिए।
  7. धान रोपने के समय पौधे के बीज की दूरी 10-15 से.मी. अवश्य रखें।
  8. खेत से समय-समय पर पानी निकालते रहें तथा नाइट्रोजन का प्रयोग ज्यादा न करें।
  9. आक्रांत खेतों का पानी एक से दूसरें खेत मे न जाने दें।
  10. स्वस्थ प्रमाणित बीजों का व्यवहार करें।
  11. रोग रोधी किस्मों जैसे- आई. आर.-20, मंसूरी, प्रसाद, रामकृष्णा, रत्ना, साकेत-4, राजश्री और सत्यम आदि का चयन करें।
organic farming: 
जैविक खेती: