मखाने की खेती से किसान हुए खुशहाल

मखाने का उत्पादन उत्तरी बिहार के कुछ जिलों में बहुतायत रूप से होता है। इसकी माँग देश और विदेशों में काफी है। इसका उत्पादन तालाबों और सरोवरों में ही होता है। दरभंगा और मधुबनी जिले में मखाना का उत्पादन अधिक होता है। इसका कारण यह है कि वहाँ हजारों की संख्या में छोटे-बड़े तालाब और सरोवर हैं जो वर्षपर्यन्त भरे रहते हैं।

जब देश के अधिकांश हिस्से पानी की कमी का शिकार हैं, उत्तरी बिहार देश के उन कुछ चुनिन्दा अंचलों में है जहाँ पानी की कोई कमी नहींं है। इसलिए यहाँ जरूरत जल आधारित ऐसे उद्यमों को बढ़ावा देने की है जो रोजगार देने के साथ-साथ जल की गुणवत्ता भी बनाए रखें।

दरभंगा के मनीगाछी गाँव के एक किसान नुनु झा चार एकड़ में बने तालाब के मालिक हैं। उनकी मखाना उत्पादन करने में काफी रुचि है। तीन-चार साल पहले वह दूसरों का तालाब पट्टा पर लेकर उसमें मखाना का उत्पादन करते थे। इसी तरह मधुबनी जिला के लखनौर प्रखण्ड के किसान रामस्वरूप मुखिया ने कुछ वर्ष पहले ही खेती छोड़ दी लेकिन उनका ध्यान मखाना की ओर गया और अब वे 3-4 टन मखाने का उत्पादन प्रतिवर्ष कर लेते हैं।

वे मखाना उगाते ही नहींं हैं, बल्कि दूसरे किसानों को मखाना की खेती के गुर भी बताते हैं। राम स्वरूप मुखिया जैसे और भी कई किसान मधुबनी और दरभंगा जिले में हैं, जो मख़ाने की खेती की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छह साल पहले जहाँ लगभग 1, 000 किसान मख़ाने की खेती में लगे थे, वहीं आज मखाना उत्पादकों की संख्या साढ़े आठ हजार से ऊपर हो गई है। इससे मख़ाने का उत्पादन भी बढ़ा है।

पहले जहाँ सिर्फ 5-6 हजार टन मखाने का उत्पादन होता था वहीं आज बिहार में 30 हजार टन से ऊपर मखाने का उत्पादन होने लगा है। यहाँ कुछ वर्षों में केवल उत्पादन ही नहींं बढ़ा है, बल्कि उत्पादकता भी 250 किलोग्राम प्रति एकड़ की जगह अब 400 किलोग्राम प्रति एकड़ हो गई है।

पहले किसानों के सामने मखाना बेचने की समस्या थी। इसकी ख़रीद के लिए कोई एजेंसी नहींं थी। नतीजतन मखाना उत्पादकों को औने-पौने दाम में अपने उत्पाद को बेचना पड़ता था। तकनीक के अभाव में मखाना उत्पादक अधिक दिनों तक इसे अपने घर में रख भी नहींं सकते थे। लेकिन अब स्थिति बदल गई है।

मखाने की ख़रीद के लिए विभिन्न शहरों में 40 केन्द्र खुल गए हैं। इस कारण किसानों को अब मखाने की अच्छी कीमत मिल रही है। ख़रीद एजेंसियाँ किसानों को समय पर भुगतान भी कर रही हैं। अब बैंक भी मखाना उत्पादकों को ऋण देने को तैयार हो गए हैं।

पिछले दिनों ईद के मौके पर 100 टन मख़ाने का निर्यात पाकिस्तान को किया गया था। यूरोपियन देशों से भी मखाने की माँग आ रही है। मखाने के औषधीय गुण मखाना में कम वसा होने के कारण यह सुपाच्य है और इसीलिए वृद्ध, बीमार व हृदय रोगियों के लिए यह अत्यन्त लाभकारी है। 

यह श्वास व धमनी के रोगों तथा पाचन एवं प्रजनन सम्बन्धी शिकायतें दूर करने में उपयोगी है। इसके बीज का अर्क कान के दर्द में आराम पहुँचाता है। इसके प्रयोग से बेरी-बेरी बीमारी ठीक होती है। पेचिश की रोकथाम में भी इसका उपयोग करना रोगी के लिए लाभदायक माना जाता है।

मखाने के प्रसंस्करण एवं आधुनिक तरीके से रखरखाव के लिए पाटलिपुत्र औद्योगिक क्षेत्र में स्थापित शक्ति सुधा मखाना के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सत्यजीत सिंह बताते हैं कि वर्ष 2012 तक मखाने के उत्पादन का लक्ष्य 1 लाख 20 हजार टन निर्धारित किया गया है। फिलहाल माँग के अनुसार मखाने की आपूर्ति नहींं हो रही है। इस स्थिति को देखते हुए यह लगता है कि मखाना उत्पादकों का भविष्य उज्ज्वल है।

देश के अन्दर भी बड़े शहरों जैसे- कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई में 300 से लेकर 400 रुपए प्रति किलोग्राम मखाना बिक रहा है। हालांकि अभी भी मखाना व्यवसाय में बिचैलिए ज्यादा मुनाफा ले लेते हैं। मखाना उत्पादक बिचैलिए के कारण भी ठगे जाते हैं। यहाँ किसानों को बिचैलिए से बचाने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत है।

मखाने की खेती की विशेषता यह है कि इसकी लागत बहुत कम है। इसकी खेती के लिए तालाब होना चाहिए जिसमें 2 से ढाई फीट तक पानी रहे। पहले सालभर में एक बार ही इसकी खेती होती थी। लेकिन अब कुछ नई तकनीकों और नए बीजों के आने से मधुबनी-दरभंगा में कुछ लोग साल में दो बार भी इसकी उपज ले रहे हैं। मख़ाने की खेती दिसम्बर से जुलाई तक ही होती है।

खुशी की बात यह है कि विश्व का 80 से 90 प्रतिशत तक मखाने का उत्पादन बिहार में ही होता है। विदेशी मुद्रा कमाने वाला यह एक अच्छा उत्पाद है। अतः सरकार को भी मखाना उत्पादकों पर ध्यान देना चाहिए। सरकारी पहल यह सही है कि मखाना उत्पादन की ओर सरकार का ध्यान गया है।

सरकार भी चाहती है कि मखाना का उत्पादन बढ़े और मखाना उत्पादकों की आमदनी में वृद्धि हो। लेकिन मछुआरा महासंघ के सहदेव सहनी का मानना है कि अभी भी मखाना उत्पादन पर साहूकारों की काली छाया पड़ रही है। जब तक मखाना उत्पादकों को साहूकारों के चंगुल से नहींं बचाया जाएगा तब तक किसी सुधार की आशा नहींं है। हालांकि सरकारी प्रयास के रूप में ही सन् 2002 में भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद की पहल पर दरभंगा में मखाना अनुसन्धान केन्द्र की स्थापना की गई।

इस संस्थान में प्रधान वैज्ञानिक के रूप में रहे डाॅ. जर्नादन स्वीकार करते हैं कि अमरीका से लेकर यूरोपीय देशों में मखाना निर्यात की बहुत बड़ी सम्भावनाएँ हैं। इसके लिए जरूरी है कि मखाना की ख़ेती में आमूल परिवर्तन लाया जाए। अधिक उपज देने वाली अथवा कांटा रहित पौधों की नयी किस्म का विकास या गूड़ी बटोरने, लावा निर्माण प्रक्रियाओं को सरल बनाने के दृष्टिकोण से नई मशीनों का आविष्कार करना होगा। हालांकि इस काम में कृषि प्रौद्योगिकी से जुड़े कई संस्थान जैसे- राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा, आईआईटी खड़गपुर, सेंट्रल इंस्टीट्यूट आॅफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एण्ड टेक्नोलाॅजी, लुधियाना लगे हैं।

सरकार का ध्यान मखाने की खेती की ओर गया है। इसी का नतीजा है कि पहले जहाँ सरकार मखाने की ख़ेती के लिए पानी वाली जमीन केवल 11 महीने के लीज पर देती थी वहीं अब ऐसी पानी वाली जमीन मख़ाने की ख़ेती के लिए 7 सालों के लिए पट्टे पर दी जाने लगी है। इससे मखाना उत्पादक निश्चित होकर मख़ाने की ख़ेती करते हैं और तालाब के रखरखाव पर भी पूरा ध्यान देते हैं। 

कुछ किसानों की शिकायत रहती है कि कुछ कारणों से सरकारी तालाबों की बन्दोबस्ती किसानों के साथ नहींं हो पाती है। इसके लिए उनकी माँग है कि बन्दोबस्ती की शर्तों को आसान बनाया जाए। राज्य के लिए यह अच्छा संकेत है कि सहरसा, मधेपुरा, सुपौल, अररिया, कटिहार और पूर्णिया जिलों में भी किसान इसकी खेती शुरू कर चुके हैं। यह नकदी फसल है।

मखाना एक पौष्टिक आहार है तथा पूर्ण रूप से जैविक उत्पाद है। मखाना विदेशी मुद्रा कमाने का एक अच्छा जरिया है। मखाना उत्पादकों के लिए यह खुशी की बात है कि मखाना, नारियल फल की तरह पूजा-पाठ में इस्तेमाल होता है। पर्व-त्योहारों में इसकी बहुत माँग होती है।

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