उत्तम खेती, मध्यम वान फिर भी क्यों भूखा है किसान
देश की 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और कृषि पर ही निर्भर है। ऐसे में किसानों की खुशहाली की बात सभी करते हैं और उनके लिए योजनाएं भी बनाते हैं किंतु उनकी मूलभूत समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है। किसान की फसल छः माह में तैयार होती है और उस फसल को तैयार करने के लिए आज भी किसान नंगे पांव जाड़ा, गर्मी, बरसात में खुले आकाश के नीचे रात-दिन परिश्रम करके फसल तैयार कर लेता है।दिन-रात एक करके देश की सूरत बदलने वाला किसान और उसका परिवार न केवल भूखा सोने को मजबूर होता है बल्कि सदैव के लिए निराश्रित हो जाता है।विडंबना है कि जब भी कृषि उत्पाद बाजार में आता है तो उसके मूल्य निरंतर गिरने लगते हैं और मध्यस्थ सस्ती दरों पर उसका माल क्रय कर लेते हैं जिससे कृषि घाटे का व्यवसाय बना हुआ है। दुर्भाग्य है कि संबंधित लोग औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादन की दरें लागत, मांग और पूर्ति का ध्यान में रखते हुए निर्धारित करते हैं किंतु किसान की जिंसों का मूल्य या तो सरकार या क्रेता द्वारा निर्धारित किया जाता है उसमें भी तत्काल नष्ट होने वाले उत्पाद की बिक्री के समय किसान असहाय दिखाई देता है।
भारत सहित पूरी दुनिया में पूँजीवाद का प्रभाव बढ़ रहा है। अपने देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है लेकिन किसान और किसानी बेहद खस्ता हालत में है। किसान या तो कर्ज और तंगहाली में जी रहा है या फिर आत्महत्या कर रहा है। आज कोई भी किसानी नहीं करना चाहता। केन्द्रीय खुफिया विभाग द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत कुमार डोवल को 19 दिसम्बर, 2014 को प्रस्तुत एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट में जानकारी दी गई है कि पिछले कुछ महीनों में भारत में किसानों की आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़े हैं। महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब राज्यों में यह तेजी देखी गई है। रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण ऋण की अदायगी न कर पाना, कर्ज में वृद्धि, खाद्यान्न उत्पादन में कमी, खाद्यान्न के विक्रय मूल्य में कमी तथा फसल की लगातार बर्बादी है। इन सभी राज्यों में किसान मूलतः कपास और गन्ना जैसी नगदी फसलें उगाते हैं, जिसमें लागत बहुत अधिक आती है। इन राज्यों में किसान 24 से 50 प्रतिशत ब्याज पर निजी साहूकारों से ऋण लेते हैं, जिसे अदा करने की उनकी क्षमता नहीं होती।राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 1995 से 2013 के दौरान 3 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। इस दौरान मध्य प्रदेश में लगभग 28 हजार किसानों ने आत्महत्याएँ की। भारत के संकटग्रस्त किसानों की स्थिति समय बीतने के साथ-साथ और भी बदहाल होती जा रही है। पिछले 10 वर्षों में भारतीय कृषि परिवारों का कर्ज लगभग चार गुना बढ़ गया है, जबकि खेती से होने वाली आमदनी सिर्फ तीन गुना ही बढ़ी है। कर्ज में डूबे कृषि परिवारों की संख्या में भी पिछले 10 वर्षों में वृद्धि हुई है ।
भारत की जरूरत है किसान अनुकूल और कृषि अनुकूल सरकार जो किसानों की चिंताओं को समझे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘चाय पे चर्चा’ के दौरान यह वक्तव्य था। पर देखना यह है कि किसान की दशा में क्या सुधार आएगा ? खेती को लाभदायक बनाने के लिए दो ही उपाय हैं- उत्पादन को बढ़ाएँ व लागत खर्च को कम करें। कृषि में लगने वाले मुख्य आदान हैं बीज, पौध पोषण के लिए उर्वरक व पौध संरक्षण, रसायन और सिंचाई। खेत की तैयारी, फसल काल में निंदाई-गुड़ाई, सिंचाई व फसल की कटाई-गहाई-उड़ावनी आदि कृषि कार्यों में लगने वाली ऊर्जा की इकाइयों का भी कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण स्थान है। न्याय पंचायत अथवा ग्रामसभा स्तर पर एक कृषि केंद्र होना चाहिए जहां ग्रामीण कृषि क्षेत्र से संबंधित सभी कर्मचारी आवासीय सुविधाओं के साथ कार्यालय में कार्य कर सकें। यहां एक सहकारी समिति भी होनी चाहिए अथवा कृषि सहकारी समिति का विक्रय केंद्र होना चाहिए जिस पर कृषि मानकों के अनुसार बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि की व्यवस्था कराई जाए, जो किसानों को ऋण के रूप में उपलब्ध हो। साथ ही, ऐसे यंत्र/उपकरण जिनकी किसानों को थोड़े समय के लिए आवश्यकता पड़ती है, वह उपलब्ध रहने चाहिए और निर्धारित किराए पर उन्हें उपलब्ध कराया जाना चाहिए। जैसे- निकाई, निराई, गुड़ाई, बुवाई अथवा कीटनाशकों के छिड़काव से संबंधित यंत्र अथवा कीमती यंत्र जिन्हें किसान व्यक्तिगत आय से खरीदने में असमर्थ है, आदि संभव हैं तो ट्रैक्टर, थ्रेशर, कंबाइन हार्वेस्टर आदि की सुविधाएं भी किराए पर उपलब्ध होनी चाहिए ताकि लघु एवं सीमांत वर्ग के किसान बिना किसी बाधा के खेती कर सकें।
जिस देश में 1.25 अरब के लगभग आबादी निवास करती है और देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर आधारित है, उस देश में कृषि शिक्षा के विश्वविद्यालय और कॉलेज नाम-मात्र के हैं, उनमें भी गुणवत्तापरक शिक्षा का अभाव है। किसान ईश्वरीय कृपा पर ही आज भी निर्भर हैं। कृषि शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में होना चाहिए और प्रत्येक शिक्षण संस्थान में न्यूनतम माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा अवश्य होनी चाहिए। उन लोगों का उपयोग कृषि के निचले स्तर के व्यापक प्रचार-प्रसार और उत्पादन वृद्धि में किया जाना चाहिए।
70 वर्ष पहले आजादी की शुरुवात में उजड़े खेत, सूखी नदियाँ, वर्षा के लिये आकाश की ओर निहारती आँखें, अधनंगे बच्चे और भूखी औरतें ही उस युग के भारतीय गाँवों की पहचान थी जो दुर्भाग्य से आज भी बनी हुयी है और हम कल कारखानों में , सुपरमालों में देश का विकास खोज रहे हैं। महात्मा गाँधी ने बहुत पहले कहा था "भारत की आत्मा गाँवों में बसती है।" यह कितना हास्यापद हो गया है अब जब हम एक्सप्रेसवे और मेट्रो की बातें करते हैं। मूल समस्या यह है कि आजादी के तत्काल बाद हमने तीव्र विकास की अपनी लालसा में भारी उद्योगों और शहरी सुविधाओं के विकास पर सारा ध्यान केन्द्रित किया और गाँवों की पूरी तरह उपेक्षा कर दी। औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने के उपाय तो किये गये लेकिन इस बात को भुला दिया गया कि अगर गाँव सम्पन्न नहीं होंगे तो उद्योगों के लिये कच्चा माल कहाँ से मिलेगा और तैयार माल को खरीदेगा कौन? इसी भूल का नतीजा है कि कुछ-कुछ समय बाद उद्योगों में मन्दी का दौर आता रहा है लेकिन मूल कारण पर जाने के बजाए हम ऊपरी और तात्कालिक उपायों से समस्या को सुलझाते रहे हैं।
देश के सुप्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ। आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में ,अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में। बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा ,है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा। देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे ,किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे।
एक कहावत इस देश में कही जाती है 'उत्तम खेती, मध्यम वान करे चाकरी कुकर निदान। उत्तम खेती माने खेती सबसे महत्वपूर्ण व्यवसाय है। मध्यम वान माने बिजनेस है जो व्यापार है वो दूसरे नम्बर पर है। और करे चाकरी कुकर निदान माने नोकरी करना तो कुत्ते के जीवन बिताने जैसा माना जाता है। भारतीय समाज में तो खेती सबसे उन्नत व्यवसाय रहा। दूसरे नम्बर पर व्यापार और तीसरे नम्बर पर नौकरी-चाकरी मानी जाती है।
हमारे पवित्र ग्रंथ ऋग्वेद में कृषि का गौरवपूर्ण उल्लेख मिलता है।अक्षैर्मा दीव्य: कृषिमित् कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमान:। ऋग्वेद- 34-13 अर्थात् जुआ मत खेलो, कृषि करो और सम्मान के साथ धन पाओ। कृषिर्धन्या कृषिर्मेध्या जन्तूनां जीवनं कृषि:।(कृषि पाराशर-श्लोक-8) अर्थात् कृषि सम्पत्ति और मेधा प्रदान करती है और कृषि ही मानव जीवन का आधार है। कृषि के जनक ऋषि पराशर ने लिखा है , अन्न प्राणा बलं चान्नमन्नं सर्वार्थसाधनम्।देवासुरमनुष्याश्च सर्वे चान्नोपजीविनः ॥ अन्नं हि धान्यसंजातं धान्यं कृपया विना न च।तस्मात् सर्वं परित्यज्य कृषिं यत्नेन कारयेत् ॥अन्न ही प्राण है बल है अन्न ही समस्त अर्थ का साधन है। देवता, असुर, मनुष्य सभी अन्न से जीवित हैं तथा अन्न धान्य से उत्पन्न होता है और धान्य बिना कृषि के नहीं होता। इसलिए सभी कर्म छोड़कर कृषि कर्म ही करना चाहिए।
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है ,मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है। आदम गोंडवी ने शायरी में कहा था जो गाँव का सही चित्रण है। फूटे कपड़ों में तन ढाँके गुजरता हो जहाँ कोई,समझ लेना वो पगडण्डी अदम के गाँव जाती है। किसानो के स्थिति खूब कहा था उन्होंने कि आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में,मैं रहूँ या न रहूँ, भूख मेजबां होगी। शहरीकरण पर उनका यह ब्यान कितना वास्तविक है आज के माहौल में कि यूँ खुद की लाश अपने काँधे पर उठाये हैं,ऐ शहर के वाशिंदों ! हम गाँव से आये हैं।
भारत के किसान अब देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और देश का औद्योगिक विकास सीधे तौर पर ग्रामीण विकास के साथ जुड़ा हुआ है। अब वक़्त आ गया की सभी यह सोचें कि कैसे भारत का किसान अब देश की दरिद्रता और दीनता का परिचायक नहीं, देश की खुशहाली और समृद्धि का वाहक बने । शायद देश की गरीबी और बेरोजगारी का हल भी इसी में निकल जाए।
(लेखिका ने किसानो के लिए कई लेख हमारा महानगर में लिखें हैं )