टमाटर की जैविक उन्नत खेती
जलवायु :-
टमाटर उष्ण कटीबंधीय जलवायु की फसल है वैसे टमाटर को गर्मियों और सर्दियों में दोनों मौसमों में उगाया जाता है इसके पौधे पाले से शीघ्र नष्ट हो जाते है यद्यपि टमाटर के बीज २१.४४ -२४.२२ डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी अंकुरित हो जाते है परन्तु अंकुरण के लिए इष्टतम तापमान २०.२२-४४.२२ डिग्री सेल्सियस है पौधों की उचित वृद्धि ३४.२२-३९.२२ डिग्री सेल्सियस तापमान पर होती है यह पाया गया है की लाइकोपिन की मात्रा २०-२५ डिग्री सेल्सियस के बिच सर्वाधिक होती है २७ डिग्री से ऊपर लाइकोपिन का निर्माण लगभग कम हो जाता है टमाटर में सुखा सहने की क्षमता भी होती है अधिक वाष्पीकरण होने के कारण बहुत गर्म और शुष्क मौसम में टमाटर के कच्चे फल गिरने लगते है तापक्रम और प्रकाश की तीब्रता का टमाटर के फलों के लाल रंग और खट्टेपन पर काफी प्रभाव पड़ता है यही कारण है की सर्दियों में फल मीठे और गहरे लाल रंग के होते है जबकि गर्मियों में कुछ कम लाल और खट्टेपन लिए होते है अधिक़ वर्षा वाले क्षेत्र टमाटर की खेती के लिए उपयुक्त रहते है |
भूमि :-
वैसे तो टमाटर की खेती बिभिन्न प्रकार की भूमियों में की जाती है किन्तु उचित जल निकास वाली दोमट भूमि इसकी खेती के लिए अच्छी रहती है अगेती फसल के लिए हलकी भूमि अच्छी रहती है जबकि अधिक उपज लेने के लिए चिकनी दोमट और दोमट अच्छी रहती है इसकी खेती ६-७ पी.एच. मान वाली भूमि में अच्छी होती है |
प्रजातियाँ :-
टमाटर की उगाई जाने वाली किस्मे मुख्य रूप से लाइकोपर्सिन वंश की दो प्रजातियों एसंकूलेन्टम एवं पिम्पिनेफोलिया के अंतर्गत आती है बाद वाली प्रजातियों के फल छोटे-छोटे होते है इसलिए अधिकांशतया उसे ग्रहवाटिकाओं में ही उगाया जाता है वृद्धि करने की प्रकृति के अनुसार टमाटर की किस्मों को प्रमुख दो वर्गों में विभक्त किया जाता है -
निर्धारित वृद्धि वाली :-
इनमे प्रत्येक पर्वांतर (इण्टरनोड ) पर तब तक फुल निकलते रहते है जब तक शीर्ष पर फुल न आ जाएँ इस समय पौधों का लम्बाई में बढ़ना रुक जाता है दुसरे शब्दों में मुख्य अक्ष के अंत में फुल आते है एच.एस. १०२ , स्वीट -७२ , पूसा गौरव , पंजाब केसरी , पूसा अर्लीडुवार्फ और को. ३ इस वर्ग के अच्छे उदाहरण है |
अनिर्धारित वृद्धि वाली :
इसमें मुख्य अक्ष निरंतर वृद्धि करती रहती है और प्रत्येक तीसरी पर्वांतर (इण्टर नोड ) पर पुष्प क्रम उत्पन्न होते रहते है पूसा रूबी , सेलेक्शन १२० पन्त बहार , पन्त टाइप १-३ किस्मे इसी वर्ग में आती है |
(अ) भारतीय किस्मे :-
भारत के बिभिन्न कृषि वि.वि. भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली, क्षेत्रीय कृषि अनुसन्धान संस्थान ग्वालियर , भारतीय बागवानी अनुसन्धान संस्थान बंगलौर , द्वारा टमाटर की अनेक उन्नत किस्मों का विकास किया गया है प्रमुख किस्मों के चारित्रिक गुणों का उल्लेख नीचे किया गया है -
एच.एस. १०१ :-
यह किस्म चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि वि.वि. हिसार द्वारा विकसित की गई है इसके फल पूसा रूबी की अपेक्षा १०-१५ दिन पहले पकने शुरू कर देते है फलों का गुदा कुछ मोटा होता है इसलिए पूसा रूबी की अपेक्षा इसकी भण्डारण क्षमता अधिक होती है यह प्रति हे. २५०-३०० क्विंटल तक उपज मिल जाती है |
एच.एस १०२ :-
यह किस्म भी चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि वि.वि. हिसार द्वारा विकसित की गई है इस किस्म के पौधे बौने रह जाते है फल चपटे गोल मध्यम आकार वाले और हलके धारीदार होते है रोपाई के ८५-९० दिनों बाद फल पकने शुरू हो जाते है फलों का छिलका मोटा और लाल होता है यह प्रति हे. २५०-२७५ क्विंटल तक उपज दे देती है |
एच. एस. ११० :-
यह किस्म भी चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि वि.वि. द्वारा विकसित की गई है इस किस्म को शीत कालीन और बसंत ऋतु दोनों मौसमों में उगाया जा सकता है यह एक पछेती किस्म है इसके फल अन्य किस्मों की अपेक्षा तीन गुने भारी होते है जिसके कारण इसकी अधिक पैदावार मिलती है इसके फूलों का गुदा गहरे लाल रंग का होता है इस किस्म के फल खाने में अधिक मीठे होते है प्राय: इस किस्म के पौधों में रोग व कीड़े-मकोड़े कम लगते है |
सेलेसक्शन १२ :-
इस किस्म का विकास पंजाब कृषि वि.वि. लुधियाना द्वारा विकसित किया गया है इसके फल गोल सुडौल रस दार , मध्यम आकार के , हलके और पतले छिलके वाले होते है प्रति हे. २५०-२७५ क्विंटल तक उपज मिल जाती है |
कैकरुथ :-
इस किस्म का विकास भी पंजाब कृषि वि.वि. द्वारा किया गया है इस किस्म के फल बड़े व गोल होते है इस किस्म के अधिकांश फल मई के अंतिम सप्ताह में पक़ जाते है गुदा गहरे लाल रंग का होता है यह किस्म टमाटर का रस निकालने के लिए सर्वोत्तम पाई गई है यह प्रति हे. ५५० क्विटल तक उपज दे देती है |
कल्याण पुर कुबेर :-
इस किस्म का विकास चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगोक वि.वि. कानपूर द्वारा किया गया है यह एक अगेती किस्म है इसके टमाटर गोल और लाल रंग के होते है यह अधिक उपज देने वाली किस्म है |
कल्याण पुर नं. १ :-
इस किस्म का विकास भी चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगोक वि.वि. कानपूर द्वारा किया गया है यह मध्य कालीन किस्म है इसके टमाटर गहरे लाल रंग के और गोल होते है |
अंगूर लता :-
इस किस्म का विकास चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगोक वि.वि. कानपूर द्वारा किया गया है यह एक पछेती किस्म है यह गृह वाटिका में लगाने के लिए उत्तम किस्म है फल मध्यम आकार के और गुच्छों में लगते है प्रत्येक गुच्छे में ८-१० फल लगते है अक्टूम्बर में रोपाई करने के लगभग १०० दिन बाद फल देना शुरू कर देती है जो मई के अंत तक मिलते रहते है |
पन्त - टी १ :-
इस किस्म का विकास गो. ब. पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक वि.वि. पंतनगर द्वारा किया गया है इसके फल बड़े और गूदेदार होते है यह किस्म गर्मी और सर्दी दोनों मौसमों में उगाने के लिए उपयुक्त है यह अधिक फैलने वाली किस्म है सर्दियों में यह ३८६.४० क्विंटल प्रति हे. उपज देती है |
पन्त टी २ :-
इस किस्म का विकास भी गो.ब. पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक वि.वि.पन्त नगर द्वारा किया गया है यह किस्म पर्वतीय क्षेत्रों और रामगढ में उगाने के लिए सर्वोत्तम पाई गई है इस किस्म के फल नाशपाती की शक्ल के होते है फल का छिलका मोटा होता है जिसके कारण दूरस्थ मैदानी क्षेत्रों में सुगमता से पहुँचाया जा सकता है |
पूसा रूबी :-
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है यह एक अगेती किस्म है जिसके फल रोपाई के ६०-६५ दिन में तैयार हो जाते है इसके पौधे लम्बे और थोड़े फैले होते है फल चपटे , गोल , मध्यम आकार के और पकने पर लाल रंग के हो जाते है फल अधिक रस दार और थोडा खट्टापन लिए होते है जिसके कारण जल्दी ख़राब हो जाते है यह किस्म रस निकालने और चटनी बनाने के लिए अच्छी है उत्तरी भारत में उगाई जाने वाली यह प्रमुख किस्म है इसकी उपज २००-२५० क्विंटल / हे. होती है |
पूसा अर्ली डुआरफ : -
इसका विकास भी भारतीय कृषि संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है इस किस्म के पौधे थोड़े बौने होते है किन्तु घने झाड़ वाले होते है पत्तियां हरी और कटावदार होती है इसके फल चपटे , गोल . गहरी धारी दार , मध्यम आकार के पुरे लाल और पतले छिलके वाले होते है रोपाई के ५५-६० दिन बाद फल तोड़ने योग्य हो जाते है यह किस्म बसंत ऋतु के लिए उत्तम है |
सेलेक्शन १२० :-
यह किस्म भी भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली द्वारा विकसित की गई है इस किस्म के पौधे आधे फैले हुए होते है जिनकी पत्तियां गहरी हरी व सघन होती है रोपाई के ६५-७० दिनों बाद इसके फल पकने शुरू हो जाते है फल गोल से चटपटापन लिए हुए , मध्यम आकार के, चिकने , समान रूप से लाल , कम खट्टे , और कम बीज वाले होते है यह सूत्र कृमियों की प्रतिरोधी किस्म है इसकी उपज २५०-२७५ क्विंटल प्रति हे. है |
सेलेक्शन १५२ :-
यह किस्म भी भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली द्वारा विकसित की गई है इस किस्म के पौधे थोड़े बौने होते है रोपाई के ९०-९५ दिनों बाद फल पकने शुरू हो जाते है फल छोटे, मध्यम , गूदेदार और नाशपाती के आकार के होते है दूरस्थ बाजारों में भेजने और पेस्ट के लिए एक अच्छी किस्म है सर्दियों की तुलना में गर्मियों में अधिक पैदावार होती है यह प्रति हे. ३०० क्विंटल उपज देती है |
स्वीट ७२ :-
इस किस्म को क्षेत्रीय अनुसन्धान संस्थान ग्वालियर द्वारा विकसित किया गया है फल बड़े गोल, सुडौल ,डंठल की भांति हरापन लिए रस दार और अन्य किस्मों की तुलना में अधिक मीठे होते है इसके रोपाई के ९५-१०५ दिनों में पकने शुरू हो जाते है यह किस्म गर्मी और सर्दी दोनों मौसमों में उगाने के लिए उपयुक्त है इसकी उपज ३००-३२५ क्विंटल तक दे देती है |
अर्का विकास :-
इस किस्म का विकास भी भारतीय बागवानी अनुसन्धान संस्थान बंगलौर द्वारा किया गया है इसके फल बड़े होते है यह दक्षिण भारत में उगाने के लिए जारी कर दी गई है |
पी.एन.आर. ७ :-
इस किस्म का विकास पंजाब कृषि वि.वि. लुधियाना से किया गया है यह नेमाटोड प्रतिरोधी किस्म है इसकी उपज ३००-३५० क्विंटल प्रति हे. है |
ए. सी १४२ :-
यह बहुत जल्दी पकने वाली किस्म है इसके फल रोपाई के ५५-६० दिन बाद पहली तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है इसकी प्रति हे. २००-२५० तक उपज मिल जाती है |
हिसार अरुण (सेलेक्शन ७ ) :-
यह किस्म चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि वि.वि. द्वारा पूसा अर्ली डुआर्फ और के. १ के संकरण से किस्म का विकास किया गया है इसके पौधे छोटे होते है पौधों पर फल काफी मात्रा में लगते है ऐसे फल सामान्यतया लगभग एक ही समय पर पकते है जो मध्यम से बड़े आकार के होते है यह काफी अगेती किस्म है यह एच.एस. ११० किस्म से लगभग १२ प्रतिशत से अधिक उपज देती है इस किस्म को बसंत व वर्षा ऋतु में उगाने के लिए सिफारिश की गई है |
हिसार ललित (एन.टी. ८ ) :-
यह किस्म चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि वि.वि.द्वारा आर.बी. और एच.एस. १०१ के संस्करण से तैयार की गई है इस किस्म में रुट नाट नेमा टोड (जड़ गांठ सूत्र कृमि ) नामक रोग नहीं लगता है इस किस्म को ऐसे रोग ग्रसित खेतों में उपजाने पर भी औसत उपज १०० क्विंटल प्रति हे. तक मिल जाती है |
हिसार लालिमा (सेलेक्शन १८ ):-
यह एक अगेती व उपयोगी किस्म है पौधे कम बढ़ते है फल आकार में बड़े , गोल , लाल, गूदेदार और आकर्षक होते है रोपाई के ६५-७० दिन में फल तोड़ने योग्य हो जाते है यह प्रति हे. ३०० क्विंटल तक उपज देती है |
हिसार अनमोल (एच. २४ ):-
यह विषाणु रोधी लिस्म है इसके फल छोटे मध्यम आकार के गोल लाल व गूदेदार होते है पौधों का विकास ठण्ड में भी अच्छा होता है यह किस्म जुलाई से दिसंबर तक लगाई जा सकती है |
पूसा गौरव :-
इस किस्म के फल चिकने मध्यम आकार के और पूरी तरह लाल रंग के होते है फलों का छिलका मोटा होता है अत: इन्हें दूर बाजारों में बिक्री हेतु भेजा सकता है इस किस्म के फल डिब्बा बंदी के लिए भी उपयुक्त होते है इसे बसंत गर्मी और खरीफ के मौसम में उगाया जा सकता है और इसकी औसत उपज ४०० क्विंटल प्रति हे. होती है
पूसा शीतल :-
इस किस्म की यह विशेषता है की यह कम तापमान पर भी फल बना लेती है और इसी कारण इसकी खेती मैदानी भाग में ठण्ड में भी की जा सकती है इसके फल फ़रवरी के अंत और मार्च में पककर तैयार होने लगते है बाजार में फलों को अगेते भेजने से कृषकों को बहुत अच्छा लाभ मिलता है इस किस्म के फल मध्यम आकार के और सुन्दर लाल रंग के होते है यह किस्म ३०० क्विंटल प्रति हे. उपज देती है |
पन्त बिहार :-
इस किस्म के फल पूसा रूबी से आकर्षक एवं आकार में बड़े होते है यह रूबी से अधिक उपज देने वाली किस्म है रोपाई के ८० दिन बाद पहली तुड़ाई केलिए तैयार हो जाते है यह वर्ती सीलीयम व फ्यूजेरियम मुरझान के लिए प्रति रोधी किस्म है |
एन. डी. टी. ५ :-
यह एक अधिक बढ़ने वाली किस्म है यह रोपाई के लगभग ८०-९० दिन बाद फल देने शुरू कर देती है फल गोल, लाल. चमकीले मध्यम से बड़े एवं गूदेदार होते है यह प्रति हे. २५०-३०० क्विंटल उपज मिल जाती है |
एन.डी.टी. १२० :-
यह एक बौनी किस्म है रोपाई के लगभग ७५-८० दिन बाद फल मिलने शुरू हो जाते है फल बड़े लाल गुदेदार एवं आकर्षक होते है फल पत्तियों के नीचे गुच्छों में लगते है यह प्रति हे. २७५-३०० क्विंटल तक उपज मिल
जाती है|
एन. डी. टी. २१ :-
यह एक अगेती किस्म है रोपाई के ८०-९० दिन बाद फल मिलने शुरू हो जाते है |
नवीनतम किस्मे :-
नरेंद्र टमाटर १,२,३,डी.वि.आर.टी. , बी.टी., ११६-३-२,आजाद टी. ५, एन. डी.टी. ३ , आजाद टी ६ , के.एस. ११८., बी.टी २०-२-१, एन. डी. टी. ९
दिव्या संकर :-
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है यह किस्म रोपाई से ७५-९० दिन में फल देने लगती है यह किस्म पछेता झुलसा एवं आँख सडन रोग रोधी किस्म है इसके फल लम्बे समय तक ख़राब नहीं होते है उपज प्रति हे. ४०-५० टन तक प्राप्त होती है |
अन्य संकर किस्मे :-
आइ. ए.एच.एस. ८८.२
रश्मि टमाटर सेंचुरी १,२
आइ. ए.एच.एस.८८.३
रुपाली टमाटर सुमन मंगला
शीतल टमाटर मनमोहन
रजनी, वैशाली
टमाटर स्वर्ण
आइ. ए.एच.एस.८८.१
कर्नाटक
टमाटर सोनाली
नवीन
पूसा नं. १
टमाटर सुप्रिया
परिक्षण संकर नं. १४ व १५
पूसा नं . २
पूसा नं.४
बी.एस.एस २०(अनियमित )
डी.एच.टी. ४
अविनाश २
एच. आई ३०३
अर्का अभिजित
विदेशी उन्नत किस्मे :-
भारत में अनेक विदेशी उन्नत किस्मे
काफी समय से उगाई जा रही है और काफी लोकप्रिय हो गई है उनके नाम नीचे दिए गए है
रोमा, गैमेड , सु, एस.सी. 238, एस.सी. १४२, इटेलियन रेड पियर बाल्कन
बीज बुवाई :-
टमाटर की बुवाई मैदानों में दो बार की जाती है -
जून-जुलाई
नवम्बर-दिसंबर
पहाड़ी क्षेत्रों में मार्च अप्रैल
बीज की मात्रा :-
८५-९० % अंकुरण क्षमता वाला ४००-५०० ग्राम बीज प्रति हे. के लिए पर्याप्त होता है एक ग्राम बीज में ३०० बीज होते है टमाटर के बीज ४ वर्ष तक होते है |
पौधशाला :-
एक हे. की रोपाई करने के लिए १००-१२५ वर्ग मीटर में तैयार की गई पौध पर्याप्त है पौधशाला भूमि में पर्याप्त मात्रा में गोबर की खाद डालकर उसकी भली-भांति जुताई कर लें ताकि मिटटी भुरभुरी हो जाए दोनों मौसमों में ५ गुणा १ मीटर की १५-२० से.मि. जमीन से उठी क्यारियां बनानी चाहिए क्यारियों की लम्बाई इच्छानुसार रखी जा सकती है दो क्यारियों के मध्य ४५ - ६० से.मि. की नाली छोडनी चाहिए बीज को बोने से पहले गोमूत्र या नीम का तेल से उपचारित कर लेना चाहिए बीज तैयार क्यारियों में छिड़ककर या पंक्तियों में बोए जाते है पंक्तियों में १५ से.मि. की दुरी पर १ से.मि. गहरी नाली बनाकर बोए जाते है दूसरी विधि में बीज छिड़क दिए जाते है उसके बाद गोबर की सड़ी खाद से उन्हें ढक दिया जाता है फिर तुरंत सिचाई की जाती है |
रोपाई :-
शरद कालीन की रोपाई के लिए पंक्तियों और पौधों की आपसी दुरी ७५ व ६० और गर्मी के लिए ७५ व ४५ से.मि. रखे अंगूर लता नामक जाति के लिए यह दुरी ९० व ६० से.मि. रखें रोपाई के तुरंत बाद सिचाई कर दें |
आर्गनिक खाद :-
टमाटर की फसल में अधिक पैदावार लेने के लिए उसमे आर्गनिक खाद , कम्पोस्ट खाद की उपस्थिति होना बहुत अनिवार्य है इसके लिए एक हे. भूमि में ३५-४० क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद और आर्गनिक खाद - : २ बैग भू-पावर वजन ५० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो फर्टी सिटी कम्पोस्ट वजन ४० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो नीम वजन २० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो भू-पावर वजन १० किलो ग्राम , २ बैग सुपर गोल्ड कैल्सी फर्ट वजन १० किलो ग्राम , और ५० किलो अरंडी की खली इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर खेत में बुवाई से पूर्व समान मात्रा में बिखेर दें इसके बाद खेत की अच्छी तरह जुताई करके खेत तैयार करें उसके बाद बुवाई करें |
और जब फसल २५ -३० दिन की हो जाए तब उसमे २ बैग सुपर गोल्ड मैनिशियम और माइक्रो झाइम ५०० मि.ली. को ४०० ली. पानी में घोलकर तर-बतर कर छिडकाव करें और दूसरा व तीसरा छिडकाव हर १५-२० दिन के अंतर से करें |
सिचाई :-
टमाटर की फसल के लिए सिचाई का विशेष महत्व है इसमें अधिक और कम सिचाई हानी करक होती है गर्मी की फसल में प्रति सप्ताह और सर्दी में १० वें दिन सिचाई करें |
खरपतवार :-
टमाटर जल्दी-जल्दी व उथली निराई-गुड़ाई चाहने वाली फसल है इसमें गहरी गुड़ाई न करें अन्यथा जड़े कट सकती है क्योंकि टमाटर एक उथली जड़ वाली फसल है |
कीट नियंत्रण :-
तम्बाकू की सुंडी :-
यह कीट पत्तियों और तनों को खाती है जिससे उपज पर प्रति कुल प्रभाव पड़ता है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
फल छेदक :-
इस कीट के लार्वा फल के अन्दर घुस जाती है और गुदा खाते रहते है जिसके कारण फल बिलकुल बेकार हो जाता है उपज में भारी कमी हो जाती है इस कीट का प्रकोप मार्च - अप्रैल में अधिक होता है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
इपीलैचना :-
यह कीट पत्तियों को खाता है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
कटुआ कीट :-
मटमैले रंग की गिडार रात को निकलकर पौधों को जमीन की सतह से काटकर गिरा देती है और दिन में भूमि की दरारों और मिटटी के ढेलों के नीचे छिप जाती है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
जैसिड्स :-
यह हलके फुदकने वाले कीट होते है ये पत्तियों का रस चूसते है और पत्तियां मुड़ जाती है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
रोग नियंत्रण :-
आद्र विगलन :-
यह टमाटर का भयंकर रोग है जो phthium Spp. या Rhizoctinia spp. या phytopthora spp. के कारण होता है रोगी पौधे के तने सड़ जाते है जिसमके कारण पौधे मर जाते है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
पर्ण कुंचन :-
यह रोग विषाणु द्वारा फैलता है जिसे सफ़ेद मक्खी फैलाती है जिसके कारण पत्तियां मुड़ जाती है पौधा छोटा रह जाता है उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है पतियों का खुरदरा और मोटा होना इस रोग का मुख्य लक्षण है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
अगेता झुलसा :-
यह रोग आल्टरनेरिया सोलेनाई , आल्टरनेरिया अल्टरनेटा , तथा आल्टरनेरिया लाइको पारसी नामक कवकों के द्वारा होता है निचले पत्ते इस रोग से पहले शिकार होते है इन पत्तों पर छोटे-छोटे पीले से भूरे रंग के गोलाकार या कोणीय धब्बे बन जाते है जो बाद में अपना विष फैलाकर पत्तों को सुखा देते है अधिक नमी में यह रोग अधिक फैलता है |
रोकथाम
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
बैक्टीरियल विल्ट
यह रोग रालस्टोनिया सोलेनेशीयश नामक जीवाणु से होता है इस रोग का मुख्य लक्षण पौधों का पीले हुए बिना ही मुरझाना यह रोग नमी और गर्म जल वायु में अधिक लगता है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
गुच्छा मुच्छा रोग :-
टमाटर का यह सबसे भयंकर रोग है यह भी विषाणु का रोग है रोगी पौधों की बढ़वार रुक जाती है पत्तियां मोटी हो जाती है और उनकी आकृति बिगड़ जाती है तथा उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
पछेता झुलसा :-
यह रोग phytopthora infectans नामक फफूंदी के कारण होता है पत्तियों पर गहरे रंग के धब्बे बन जाते है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
जड़ गांठ सूत्र कृमि :-
यह सूत्र कृमि के द्वारा होता है इस रोग के कारण पौधों की जड़े फुल जाती है जिसके कारण पौधों का विकास एवं बढ़वार रुक जाता है पौधे बौने रह जाते है|
रोकथाम :-
खेत में नीम की खली या लकड़ी का बुरादा २५ किलो ग्राम /हे. की दर से डालें या मक्का , ज्व़ार , बाजरे के साथ फसल चक्र अपनाएं |
बक आईराट :-
यह phytopthora parasitika के कारण होता है यह रोग निचले फलों पर पहले लगता है यह गुच्छे में १-२ फलों पर ही लगता है इससे पत्रा वली पर कोई क्षति नहीं होती है फलों पर भूरे धब्बे पड़ जाते है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली. प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
कटाई / बुवाई / खुदाई :-
टमाटर के पकने की अवस्था उसके उगाये जाने के उद्देश्य एवं एक स्थान से दुसरे स्थान से भेजे जाने दुसरे स्थान के ऊपर निर्भर करता है टमाटर के फलों की तुड़ाई निम्न चार अवस्थाओं में की जाती है |
हरी अवस्था - दूरस्थ बाजारों में भेजने के लिए |
गुलाबी अवस्था - स्थानीय बाजारों में भेजने के लिए
पूर्ण पकी अवस्था - आचार और डिब्बा बंदी के लिए
पकी अवस्था - घर के पास तुरंत सब्जियों के उपयोग के लिए
उपज :-
टमाटर की उपज उसकी किस्मों, फसल की देखभाल पर निर्भर करती है वैसे प्रति हे. १५०-२५० क्विंटल उपज मिल जाती है |
अन्य :-
पलवार :-
पहली निराई के बाद खेत में पलवार (गन्ने की पत्ती बांस या बगीचे की पत्ती ) बिछाने से अधिक उपज मिलती है पलवार की ५ से.मि. मोटी परत होनी चाहिए |
सहारा देना :-
फलों के उत्तम रंग और सड़ने से बचाने के लिए पौधों को सहारा देना अत्यंत आवश्यक है सहारा देने के लिए अरहर या ढेंचा की लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को १५ से. मि. की दुरी पर भूमि में गढ़ाकर पौधों को उनसे बांधकर चढ़ा देना चाहिए गुड़ाई करने के बाद पौधों के तनों के नीचे मिटटी चढ़ा देनी चाहिए जिससे पौधे मजबूती के साथ खड़े रहे |
फलों का बनना :-
फल निर्माण के लिए पादप नियंत्रकों का उपयोग करना चाहिए और माइक्रो झाइम और सदा बहार का छिडकाव करना चाहिए ऐसा करने से फसल जल्दी मिलती है दूसरी फसल पर पर्ण कुंचन रोग का आक्रमण भी नहीं होता है |
अधिक ठण्ड व गर्मियों के समय टमाटर काफी महंगे बिकते है क्योंकि इस समय हमारे क्षेत्र में टमाटर की फसल लेना संभव नहीं है गर्मियों के समय एक टमाटर के पौधों पर जब काफी फुल आ जाएँ इसके लिए माइक्रो झाइम या सदा बहार या माइक्रो स्टीम का उपयोग करना चाहिए इससे पौधों पर काफी टमाटर लगते है और फसल जल्दी पकती है माइक्रोझाइम के प्रयोग के लिए प्रति हे. में ५०० मि.ली. में ४०० लीटर पानी के साथ अच्छी तरह से मिश्रण तैयार करके फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |