किसानों की हालत
एक समय भारत दुनिया के कृषि प्रधान देशों का सिरमौर हुआ करता था. यहां के किसान खाद्य व नकदी फसलों के बादशाह थे.किसानों की जो आज देश में स्थिति है वह किसी से छिपी नहीं है।आज इस देश के खेती और किसानों की बर्बादी हमको चारों तरफ दिखार्इ देती है । किसानों की इस हालत के लिए कौन जिम्मेदार है? और इसमें सुधार को लेकर सरकार कितनी गंभीर हैं ?
क्या हो रहा इस देश में किसान की फसल छः माह में तैयार होती है और उस फसल को तैयार करने के लिए आज भी किसान नंगे पांव जाड़ा, गर्मी, बरसात में खुले आकाश के नीचे रात-दिन परिश्रम करके फसल तैयार कर लेता है। खेतों में रात-दिन कार्य करते जब भी कृषि उत्पाद बाजार में आता है तो उसके मूल्य निरंतर गिरने लगते हैं और मध्यस्थ सस्ती दरों पर उसका माल क्रय कर लेते हैं जिससे कृषि घाटे का व्यवसाय बना हुआ है।। यह विडंबना ही है कि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। किसानों को परंपरागत प्राकृतिक पद्धति को त्याग कर आधुनिक खेती करने मजबुर को कर रहे है हाइब्रिड बीज और रासायनिक खादों पर फसलों की उपज अनिर्धारित होती है. मशीनीकरण और पारंपरिक पद्धति से महंगा साबित हो रहीं है। किसानों को सोचने का मौका भी नहीं मिला. किसान कर्ज के तले दबने लगे। उन्हें मुनाफा कम और लागत ज्यादा लगने लगी। परिणामस्वरूप किसानों की स्थिति बदतर होने लगी।
भूमि अधिग्रहण नीति
केन्द्र/राज्य सरकारों अथवा राज्यान्तर्गत गठित विभिन्न विकास प्राधिकरणों द्वारा भूमि अधिग्रहण की नीति में कृषि योग्य भूमि के मद्देनजर परिवर्तन किया जाना परमावश्यक है। औद्योगिक विकास, आधारभूत संरचना विकास व आवासीय योजनाओं हेतु ऐसी भूमि का अधिकरण किया जाना चाहिए जो कृषि योग्य नहीं है। ऊसर बंजर तथा जिसमें अत्यधिक कम फसल पैदावार होती है, ऐसी भूमि का अधिग्रहण हो। कृषि उपयोग में लाए जाने वाली भूमि का अधिग्रहण और उस पर निर्माण प्रतिबंधित कर देना चाहिए। आवासीय औद्योगिक एवं ढांचागत निर्माणों के लिए कृषि योग्य भूमि का अंधाधुंध अधिग्रहण किए जाने से कृषि योग्य भूमि अत्यधिक संकुचित होती चली जाएगी जो तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के भरण हेतु कृषि उत्पादन के लिए अक्षम होगी। सरकारी एजेंसियां उन समर्थन मूल्यों पर खरीद करती हैं। पहली नजर में यह नीति किसानों के लिए लाभदायक लगती है, किन्तु हकीकत बिल्कुल उलट है चना, मूंग, उड़द आदि दलहनी फसलों के लिए भी समर्थन मूल्य घोषित तो किए जाते हैं, किन्तु उनकी खरीद की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। आश्चर्य तो तब होता है जब यही दालें विदेशों से आयात करली जाती हैं और किसान को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाता है।