मॉनसून नहीं रहा भाग्य विधाता

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आजादी के इन साढ़े छह दशकों में देश में रह-रह कर यह सवाल उठता रहा है कि अगर किसी साल मॉनसून की चाल ठीक न रही तो क्या होगा?

देश को एक कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था बताकर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि जून से सितम्बर के बीच चार महीने की अवधि में अगर मॉनसूनी वर्षा में जरा भी ऊंच-नीच हुई, तो हमारी आर्थिक तरक्की ठिठक जाएगी और अनाज के लिए हम विदेशों के मोहताज हो जाएंगे.

इस साल मॉनसून सीजन बीतने के दौर में है. अनुमान है कि इस साल मॉनसूनी वर्षा में 11 फीसद की कमी रह सकती है. लेकिन ऐेसे आसार नहीं है कि देश में अकाल या सूखे की नौबत आ जाए. या अनाज उत्पादन में ऐसी कमी आए जिससे भुखमरी के हालात पैदा हो जाएं. सरकार भी इस बारे में पूरी तरह आस्त है और योजनाकारों को भी यह मानने में कोई समस्या नहीं है. ऐसे में क्या यह माना जाए कि हमारी खेती का मॉनसून से रिश्ता टूट गया है? क्या अब मॉनसून के उतार-चढ़ाव हमारी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने की हैसियत में नहीं रहे और इसलिए मॉनसून से जुड़ी उन भविष्यवाणियों से भयभीत होने की जरूरत नहीं रही, जिन्हें लेकर काफी सनसनी रहती है?

मोटे तौर पर इन सारे सवालों का जवाब एक संक्षिप्त ‘हां’ में दिया जा सकता है. इस परिप्रेक्ष्य में हालिया उदाहरण वर्ष 2009 का है. तब मॉनसून बेहद खराब रहा था. खराब मॉनसून के आधार पर देश में सूखा घोषित किया गया था और इसका भय दिखाकर चीनी व अन्य अनाजों की कीमतों में बढ़ोत्तरी की गई थी. पर सचाई यह थी कि खरीफ की खराब फसल की भरपाई बेहतरीन रबी की पैदावार ने कर दी थी और कुल मिलाकर देश के फसल उत्पादन में एक फीसद की बढ़ोत्तरी भी दर्ज हुई थी. यही नहीं, देश की आर्थिक विकास दर  पर खेतीबाड़ी में कमीबेशी का कोई असर नहीं पड़ा था. इससे साबित होता है कि अब देश एक ऐसे दौर में पहुंच गया है जहां मॉनसूनी बारिश से मौसम सुहावना जरूर हो सकता है, लेकिन उसमें फेरबदल का हमारी अर्थव्यवस्था पर बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा.

सवाल है कि क्या वास्तव में एक खेतीप्रधान अर्थव्यवस्था इस दौर में पहुंच गई है कि हम मॉनसून से अपना रिश्ता खत्म घोषित कर दें? हम इस नतीजे पर एकदम भले न पहुंचना चाहें, पर यह तकरीबन सच है कि मॉनसून में अब पहले की तरह आशंकित करने वाले तत्व नहीं रहे. इसकी कई वजहें हैं. इनमें पहली यह है कि हमारी जीडीपी में खेती का शेयर काफी कम हो गया है. सन् 1950 में जीडीपी में खेती का हिस्सा 52 फीसद था, जो 1990 में घटकर 29.5 प्रतिशत रह गया था. फिलहाल यह गिरकर 13-14 फीसद तक रह गया है. ऐसे में यदि किसी वर्ष सूखे के कारण अनाज उत्पादन में कुछ गिरावट आती भी है तो भी जीडीपी पर उसका प्रभाव एक फीसद से कम ही रहेगा. तथ्य यह भी है कि देश के उद्योग-धंधों और सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) का जीडीपी में हिस्सा नाटकीय ढंग से काफी ज्यादा बढ़ा है. इसलिए फैक्ट्रियों व बैंक अथवा परिवहन क्षेत्र की हड़ताल भले ही अर्थव्यवस्था पर ज्यादा असर डाल दे, लेकिन मॉनसूनी वर्षा में कमी निष्प्रभावी रहेगी.

यहां दूसरा अहम सवाल यह है कि मॉनसूनी बारिश में कमी होने पर यदि अनाज पैदावार घटी तो अकाल और भुखमरी से देश आखिर कैसे निपटेगा? इसका जवाब दो-तीन कारकों में निहित है. पहला तो यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और मनरेगा जैसी योजनाओं के संचालन के कारण अब अनाज गरीबों तक पहुंच पा रहा है और वे जीवनयापन के लिए अनाज खरीदने की हैसियत में हैं. देश के कुछ इलाकों में भुखमरी अब भी कायम है पर अब 1960 जैसी भयावह स्थिति नहीं है. जहां तक अनाज उत्पादन में कमी रह जाने की आशंका का सवाल है, तो इससे निपटने का आसान तरीका यह है कि अब देश दुनिया में कहीं से भी अपनी जरूरत के मुताबिक अनाज खरीद सकता है. आज भारत दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में से एक है. उसकी जीडीपी दो खरब डॉलर का आंकड़ा पार कर चुकी है, उसके विदेशी मुद्रा भंडार में 300 अरब डॉलर जमा हैं. ऐसे में यदि किसी साल हमें एक करोड़ टन गेहूं भी विदेशों से महंगी कीमत पर आयात करना पड़ता है, तो भी सरकार पर तीन अरब डॉलर से ज्यादा का बोझ नहीं पड़ेगा. हालांकि अभी ऐसा करने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमारे गोदामों में पर्याप्त अनाज मौजूद है जहां समस्या उसे सड़ने से बचाने की है.

हालांकि यहां एक पेच यह है कि आज भी देश की खेती के 40 फीसद हिस्से को मॉनसूनी वर्ष पर निर्भर बताया जाता है. ऐसे में यह आशंका बार-बार पैदा होती है कि अल-नीनो या किसी अन्य स्थानीय कारण से मॉनसूनी वर्ष का कम रह जाना खेती को चौपट करने वाला साबित हो सकता है. पर इस बारे में एक सच यह है कि अनाज पैदा करने वाले ज्यादातर उत्तर भारतीय राज्यों- पंजाब, यूपी, हरियाणा, बिहार आदि में सिंचाई के दूसरे विकल्प मौजूद हैं. इससे मॉनसून पर उनकी निर्भरता घटी है.

पहले खेतों की सिंचाई वर्षा और उन नहरों पर टिकी थी जो सूखे की स्थिति में खुद भी सूख जाती थीं. लेकिन 1960 के बाद से ट्यूबवेल के जरिये खेतों को सींचा जाने लगा जिन पर मॉनसून प्राय: कोई असर नहीं डालता. आज समस्या केवल उन्हीं इलाकों में है जहां सिंचाई के लिए ट्यूबवेल जैसे साधनों का उपयोग नहीं किया रहा है और जहां किसान पूरी तरह से नहरों व मॉनसून पर आश्रित हैं. हालांकि ट्यूबवेल से सिंचाई का एक पक्ष यह भी है कि धीरे-धीरे कई इलाकों में भूजल स्तर गिरता जा रहा है, जो मॉनसून में कमी के चलते और संकटपूर्ण स्थिति में पहुंच जाएगा. इसलिए सिंचाई के गैर-परंपरागत विकल्पों पर और काम करने की जरूरत है, जैसे नदी जोड़ो योजनाओं को अमल में लाया जाए ताकि देश का कोई खेत सिंचाई के अभाव में सूखने न पाए. जरूरत ऐसी योजनाओं की है जिनसे देश के किसी एक इलाके में आई बाढ़ से जमा हुए पानी को उन इलाकों में पहुंचाया जाए जहां उसकी जरूरत है.

खराब से खराब मॉनसून में भी 400-500 मिमी बारिश हो ही जाती है. अच्छे मॉनसून के दौरान यह मात्रा बढ़कर 2,000 मिमी तक पहुंच जाती है. इस तरह मॉनसूनी वर्ष से मिलने वाले पानी की मात्रा सिंचाई और पेयजल की हमारी कुल जरूरतों के मुकाबले कई गुना ज्यादा होती है. जैसे, गांवों में जितनी वर्षा होती है, यदि उसका महज 14-15 फीसद हिस्सा पोखरों-तालाबों में जमा कर लिया जाए तो वहां सिंचाई से लेकर पेयजल तक की सारी जरूरतें पूरी हो सकती हैं.

इसलिए मॉनसून पर अपनी निर्भरता कम करने का एक सरल उपाय यह है कि देश में वर्षा जल संग्रहण को प्रोत्साहित किया जाए. गांव और शहर के हर घर में पानी के संरक्षण के लिए वहां की परिस्थितियों के अनुसार जल संग्रहण का काम होना चाहिए. गांव का हर घर अपने एक खेत को पानी के संरक्षण के लिये समर्पित कर पानी की स्थानीय स्तर पर व्यवस्था कर सकता है. तालाबों व कुओं को वर्षा जल से जीवित करने और उन्हें लगातार रिचार्ज करते रहने की भी जरूरत है. शहरों की पानी की जरूरत को आसपास की नदियों के बजाय जल संरक्षण की उन व्यवस्थाओं से जोड़ने की जरूरत है जो वर्षा जल का संग्रह करके पूरे साल पानी की सप्लाई दे सकती है. शहरों में छतों पर वर्षा जल का संग्रह करने वाले इंतजाम किए जा सकते हैं. ऐसे प्रबंध बड़े पैमाने पर हों, तो न तो अल-नीनो का भय सताएगा और न ही सिंचाई व पेयजल का संकट रहेगा.

अभिषेक कुमार

साभार सहारा समय