कर्ज और जहर के बगैर खेती

कर्ज और जहर के बगैर खेती

वैकल्पिक खेती है क्या? इस तरह की खेती के कई रूप और नाम हैं- वैकल्पिक, जैविक, प्राक तिक, जीरो-बजट खेती इत्यादि। इन सब पद्धतियों में कुछ-कुछ फर्क तो है परन्तु इन सब में कुछ तत्त्व एक जैसे भी हैं। वैकल्पिक खेती में रासायनिक खादों, कीटनाशकों और बाहर से खरीदे हुए पदार्थों का प्रयोग या तो बिलकुल ही नहीं किया जाता या बहुत ही कम किया जाता है। परन्तु वैकल्पिक खेती का अर्थ मात्र इतना ही नहीं है कि यूरिया की जगह गोबर की खाद का प्रयोग हो। इस के अलावा भी इस खेती के अनेक महत्वपूर्ण तत्त्व हैं जिन की चर्चा हम आगे करेंगे। न ही वैकल्पिक खेती अपनाने का अर्थ केवल हरित क्रांति से पहले के तरीकों पर वापिस जाना नहीं है बल्कि पारम्परिक तरीकों को अपनाने के साथ-साथ पिछले ४०-५० वर्षों में हासिल किए गए ज्ञान से भी उन्हें पुष्ट करना है।

वैकल्पिक खेती क्यों? इस तरह की खेती अपनाने के पीछे 3 मुख्य कारण हैं। एक तो रसायन एवं कीटनाशक आधारित खेती टिकाऊ नहीं है। समय के साथ पहले उतनी ही पैदावार लेने के लिए लगातार पहले से ज्यादा रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ रहा है। इसके चलते मिट्टी और पानी खराब हो रहे हैं। दूसरा प्रभाव यह है कि स्वास्थ्य खराब हो रहा है, यहाँ तक कि माँ के दूध में भी कीटनाशक पाये गये हैं। तीसरा कारण यह है कि रासायनिक खादों का निर्माण मूलत: पेट्रोलियम-पदार्थों पर आधारित है और वे देर-सबेर खत्म होने वाले हैं। इसलिए नये विकल्पों की तलाश है।

असल में वर्तमान में प्रचलित रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों से लगभग सब परिचित हैं। बढ़ती बीमारियों, खास तौर पर कैंसर इत्यादि में, हमारे खान-पान की महत्वपूर्ण भूमिका को वैज्ञानिक और आमजन सब रेखांकित करते हैं- हालाँकि इन बीमारियों के होने में अकेले खान-पान की ही भूमिका नहीं है। एक और बात पायी गयी है कि वैकल्पिक खेती अपनाने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले बहुत से किसान ऐसे हैं जिन्होंने पहले रासायनिक खेती भी जोर-शोर से अपनाई थी, अनेक पुरस्कार प्राप्त किये परन्तु जब उसमें बहुत नुकसान होने लगा तब उन्होंने नये रास्ते तलाशने शुरू किये और अंतत: वैकल्पिक खेती के किसी रूप पर पहुँचे। इससे वर्तमान पद्धति की सीमाएँ स्पष्ट होती हैं। यह भी महसूस किया गया कि बड़ी कम्पनियों पर निर्भरता से भी किसान को नुकसान होता है। इसलिए आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों, जैसे बीटी कपास या बैंगन इत्यादि को हम वैकल्पिक खेती में नहीं गिन रहे हैं क्योंकि अन्य बातों के अलावा ये बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर आधारित हैं।

वैकल्पिक खेती कैसे? वैकल्पिक खेती के कुछ मूल सिद्धान्त हैं। मिट्टी का स्वास्थ्य, उस में जीवाणुओं की मात्रा, भूमि की उत्पादकता का महत्वपूर्ण अंग है। ये जीवाणु मिट्टी, हवा और कृषि-अवशेषों में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पोषक तत्त्वों को पौधों के प्रयोग लायक बनाने हैं। इसलिये मुख्यधारा के कृषि-वैज्ञानिक भी मिट्टी में जीवाणुओं की घटती संख्या से चिन्तित हैं। 

1 - तो सब से पहला काम मिट्टी में जीवाणुओं की संख्या बढ़ाना है इस के लिए जरूरी है कि कीटनाशकों तथा अन्य रसायनों का प्रयोग न किया जाए क्योंकि कीटनाशक फसल के लिये हानिकारक कीटों के साथ-साथ मित्र कीटों को भी मारते हैं तथा मिट्टी को जीवाणुओं के अनुपयुक्त बनाते हैं।
2- दूसरा तत्त्व है खेत में अधिक से अधिक बरसात का पानी इकट्ठा करना। अगर खेत से पानी बह कर बाहर जाता है तो उस के साथ उपजाऊ मिट्टी भी बह जाती है इसलिये पानी बचाने से मिट्टी भी बचती हैं दूसरी ओर जैसे-जैसे मिट्टी में जीवाणुओं की संख्या बढ़ती है, मिट्टी की पानी सोखने की क्षमता भी बढ़ती है यानी मिट्टी बचाने से पानी भी बचता है। इसके अलावा पानी बचाने के लिये मेड़ों और छोटे तालाबों का सहारा लिया जाना चाहिये।
3- तीसरा मूल सिद्धान्त यह है कि खेत में जैव-विविधता होनी चाहिये क्योंकि यह मिट्टी की उत्पादकता बढ़ाने और कीटों का नियन्त्रण करने, दोनों में सहायक सिद्ध होती है। इसलिए एक समय पर कई तरह की फसलों और एक ही फसल की भिन्न-भिन्न किस्मों का उत्पादन किया जाना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो हर खेत में फली वाली या दलहनी (दो दाने वाली) एवं कपास, गेहूँ या चावल जैसी एक दाने वाली फसलों को एक साथ बोयें (दलहनी या फली वाली फसलें नाइट्रोजन की पूर्ति में सहायक होती हैं)। फसल-चक्र में भी समय-समय पर बदलाव करना चाहिये। एक ही तरह की फसल बार-बार लेने से मिट्टी से कुछ तत्त्व खत्म हो जाते हैं एवं कुछ विशेष कीटों को लगातार पनपने का मौका मिलता है।
4- चौथा, बिक्री और खाने में प्रयोग होने वाली सामग्री को छोड़ कर खेत में पैदा होने वाली किसी भी सामग्री को खेत से बाहर नहीं जाने देना चाहिए। उस का वहीं पर भूमि को ढकने के लिये और खाद के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए। किसी भी तरह के कृषि अवशेषों को जलाना तो बिल्कुल भी नहीं चाहिये। शुरू में पड़ोसी किसान से कृषि-अवशेष और गौशाला से गोबर लिया जा सकते हैं बाद में मिट्टी में जीवाणु बढ़ने और अपने ही खेत में कृषि-अवशेष बढ़ने से बाहरी सामग्री और गोबर की भी ज्यादा मात्रा की जरूरत नहीं पड़ती।
5- पांचवां, खेत में प्रति एकड़ 5-6 वृक्ष जरूर होने चाहिये, खेत के बीच में तो ऐसे वृक्ष हों जो बहुत ऊँचे न जाते हों और उन के नीचे ऐसी फसलें उगानी चाहियें जो कम धूप में भी उग जाती हैं। (ध्यान रहे, हमें जैव-विविधता बनानी है, इसलिये ऐसी फसलों का मिश्रण आसानी से हो सकता है) खेत के किनारों पर ऊँचे वृक्ष हो सकते हैं, खेत में वृक्ष होने से मिट्टी की पानी सोखने की क्षमता बढ़ती है, मिट्टी का क्षरण नहीं होता, वृक्षों की गहरी जड़ें धरती की निचली परतों से आवश्यक तत्त्व लेती हैं और टूटे हुए पत्तों के माध्यम से ये तत्त्व अन्य फसलों को मिल जाते हैं, और उन पर बैठने वाले पक्षी कीट-नियन्त्रण में भी सहायक सिद्ध होते हैं। (जानकार यह बताते हैं कि ज्यादातर पक्षी अन्न तभी खाते हैं जब उन्हें कीट खाने को न मिले। इसलिए जहाँ कीटनाशकों का प्रयोग होता है, वहां कीट न होने से ही पक्षी अन्न खाते हैं वरना तो वे कीट खाना पसन्द करते हैं)।
6- छठा, कोशिश यह रहे कि भूमि नंगी न रहे। इसके लिये उस में विभिन्न तरह की लम्बी, छोटी, लेटने वाली और अलग-अलग समय पर बोई और काटे जाने वाली फसलों का उत्पादन किया जाना चाहिए। इससे एक तो जमीन में नमी बनी रहती है और दूसरा इससे मिट्टी के जीवाणुओं को लगातार उपयुक्त वातावरण मिलता है, वरना वे ज्यादा गर्मी, सर्दी इत्यादि में मर जाते हैं। खेत में लगातार फसल बने रहने से सूरज की रोशनी, जो धरती पर भोजन का असली स्रोत है, का पूरा प्रयोग हो पाता है। 
7- सातवाँ, फसल को पानी की नहीं बल्कि नमी की जरूरत होती है। बेड बना कर बीज बोने और नालियों से पानी देने से पानी की खपत काफी घट जाती है। 
8- आठवाँ, बीज बोने के समय और किस्म के चुनाव का भी कीट-नियन्त्रण में योगदान पाया गया है। स्थानीय परन्तु सुधरे हुए बीजों और पशुओं की देशी लेकिन अच्छी नस्ल का प्रयोग किया जाना चाहिये। 
9- नौवाँ, बीजों के बीच की परस्पर दूरी वैकल्पिक खेती और प्रचलित खेती में अलग हो सकती है। इसलिये इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।
10- दसवाँ, इस तरह की खेती में खर-पतवार की समस्या भी कम रहती है। रासायनिक खाद के प्रयोग से मिट्टी में बड़ी मात्रा में सहज उपलब्ध पौष्टिक तत्त्व एकदम से मिल जाते हैं जिस से खरपतवार ज्यादा बढ़ते हैं। परन्तु वैकल्पिक खेती में मिट्टी को इस तरह से यूरिया जैसा ग्लूकोज नहीं मिलता इसलिये खरपतवार की समस्या कम रहती है। खरपतवार तभी नुकसान करता है जब वह फसल से ऊपर जाने लगे तभी उसे निकालने की जरूरत है। निकाल कर भी उस का खाद या भूमि ढकने में प्रयोग करना चाहिये।

जरूरत तो यह है कि सरकार वैकल्पिक खेती को प्रोत्साहन दे। कम से कम शुरुआत में होने वाले सम्भावित नुकसान की भरपाई में सहयोग दे। परन्तु अगर इतना न कर पाये तो कम से कम ऐसी खेती अपनाने वाले को रासायनिक खेती के बराबर सहायता तो दे। परन्तु जब तक सरकार ऐसा नहीं करती तब तक जागरूक उपभोक्ता मिल कर किसान के प्रारम्भिक जोखिम में हाथ बंटा सकते हैं और अपने लिए बेहतर भोजन भी सुनिश्चित कर सकते हैं।

यह हो सकता है कि इस लेख में दी हुई जानकारी से काम न चले, तो और किताबें भी उपलब्ध हैं परन्तु शायद किताबों से बेहतर होगा ऐसे किसानों से मिलना जो इस किस्म की खेती कर रहे हैं या समय-समय पर लगने वाले प्रशिक्षण शिविरों में भाग लेना। इस की व्यवस्था भी की जा सकती है परन्तु सबसे जरूरी यह निश्चय करना है कि हमें अपनी खेती और जीवन के तरीके को बदलना है। 

भारत और विश्वभर के बहुत से किसानों का अनुभव दिखाता है कि वैकल्पिक खेती एक विश्वसनीय विकल्प है जो सामान्य कीमतों पर (न कि दुगनी या तिगुनी कीमतों पर) पर्याप्त उत्पादन कर सकती है। इस के साथ ही इस में सामाजिक क्रान्ति के बीज छिपे हैं क्योंकि यह आत्मनिर्भर और रोजगार सम्पन्न देहात की रीढ़ बन सकती है, छोटे किसान को नया जीवन दे सकती है और हम सब को स्वस्थ भोजन और सुरक्षित पर्यावरण। कुल मिलाकर वैकल्पिक खेती अपनाने से लागत कम हो जाती है परन्तु न तो उत्पादन में कमी आती है और न किसान की आय में बल्कि यह खेती उत्पादन और आय, दोनों में ज्यादा स्थिरता लाती है और ज्यादा महंगी भी नहीं पड़ती। ``