छोटे किसानों की ओर लौटती दुनिया

संयुक्त राष्ट्र ने कृषि को बढ़ावा देने के मकसद से इस साल को फैमिली फार्मिग ईयर के रूप में मनाने की घोषणा की है। इसका सीधा-सा मतलब यह है कि अगर दुनिया के सीमांत और छोटे किसानों की पैदावार पर ध्यान केंद्रित किया जाए, तो विश्व की खाद्यान्न समस्या से बेहतर तरीके से निपटा जा सकता है।

दुनिया भर में, खास तौर से एशिया में छोटे और मंझोले स्तर के किसान सबसे ज्यादा हैं। सिर्फ एशिया में दुनिया के 75 प्रतिशत मंझोले और छोटे किसान कृषि कार्य करते हैं। और यह एक बड़ी सच्चाई है कि ये छोटे और मंझोले किसान खाद्यान्न उत्पादन में बड़ी भूमिका निभाते हैं। अपने ही देश में लगभग 80 प्रतिशत छोटे-मंझोले किसान देश के 55 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन का भार उठाए हुए हैं। दुनिया में भी कुल खाद्यान्न उत्पादन में इनका योगदान 50-60 प्रतिशत तक है। ऐसे में, अगर इन पर केंद्रित कृषि-नीति तैयार हो, तो निश्चित ही खाद्यान्न संकट की बड़ी चुनौती से निपटने में ये अहम योगदान कर सकेंगे। इसी बात को स्वीकारते हुए संयुक्त राष्ट्र ने फैमिली फार्मिग को महत्व दिया। दुनिया भर में इस मसले पर बहस व बातचीत जारी है। अपने देश में भी सीमांत किसानों पर केंद्रित एक बैठक पिछले दिनों चेन्नई में हुई, जिसमें एशिया के सभी प्रमुख देशों ने हिस्सा लिया और अपनी-अपनी बातें रखीं।

असल में कृषि-कर्म की शुरुआत अपना पेट भरने के लिए हुई थी। हजारों साल पहले भोजन के लिए भटकते मनुष्यों ने खेती को जन्म दिया था। यह तो कालांतर बढ़ती जनसंख्या ने कृषि उत्पाद को बाजारी बनाया। खास तौर से अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया आदि में खेती ज्यादा व्यापारिक है। वहां अपने उत्पाद बेचने की होड़ में सभी तरह के कृषि मूल्यों को दरकिनार कर इसका व्यापारीकरण कर दिया गया है। रासायनिक खादों व पानी का जबर्दस्त उपयोग करके खेतों को कारखानों में तब्दील कर दिया गया है। जाहिर है, रासायनिक खादों ने भूमि के उपजाऊपन को मार दिया, तो अत्यधिक जल के दोहन व इस्तेमाल ने पानी की त्रासदी को जन्म दे दिया।

कॉरपोरेट खेती से कुछ हद तक और थोड़े समय के लिए खाद्यान्न की समस्या का निदान जरूर हो सकता है, पर 2050 तक दुनिया को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने को लेकर आशंका भी पैदा होती है, क्योंकि खेती भी पर्यावरण के चारों तरफ घूमती है। कृषि पारिस्थितिकी को न समझने की भूल हमें खाद्य असुरक्षा की तरफ ले जाए या न ले जाए, पर पोषण की असुरक्षा जरूर घेर लेगी। यह भी एक बड़ा कारण है कि संयुक्त राष्ट्र सीमांत किसानी को बढ़ावा देने के पक्ष में है, ताकि खेती में रोजगार बने रहें और साथ में पोषकता भी कायम रहे, क्योंकि छोटी खेती में अत्यधिक रसायनों का इस्तेमाल नहीं होता।

दुनिया भर में सीमांत और छोटे किसान खाद्यान्न सुरक्षा में बड़ा योगदान देते हैं। अकेले अमेरिका में छोटे किसानों की, जो कि लगभग 78 प्रतिशत हैं, खाद्यान्न उत्पादन में 84 प्रतिशत की भागीदारी है। ऐसे ही, ब्राजील में उनकी यह भागीदारी 40 प्रतिशत है, जबकि उनके पास 25 फीसदी से भी कम भूमि है। ऐसे ही, फिजी में खाद्यान्न उत्पादन में छोटे किसानों की हिस्सेदारी 84 प्रतिशत है, जबकि उनके पास 47.4 प्रतिशत भूमि है।

दुनिया में लगभग पचास करोड़ फैमिली फार्म हैं, जो 56 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन के लिए जिम्मेदार हैं। असल में, ये छोटे किसान ही हैं, जिन्होंने कृषि विविधता और खेती की परंपराओं को जीवित रखा है। कॉरपोरेट और व्यावसायिक खेती ने पहला काम विविधता को खत्म करने का किया और व्यापारिक रूप से फायदेमंद एकल फसलों को बढ़ावा दिया। कृषि के बदलते इस चेहरे ने बहुत से स्थानीय बीजों और तरीकों को मिटा दिया। और आज ये कहीं बचे हैं, तो बस छोटे किसानों की खेती में। चूंकि वे घर-बाहर की हर छोटी-बड़ी जरूरतों को ध्यान में रखकर खेती करते हैं। इसके अलावा उनके यहां खेती जंगल, मवेशी, पानी को समावेशित करके होती है, इसलिए ये प्राय: स्थायी और टिकाऊ हैं।

इनकी ज्यादातर व्यवस्थाएं आंतरिक कारकों पर निर्भर होती हैं, इसलिए इनमें एक तरह का स्थायित्व तो है ही, साथ में ये संरक्षित भी हैं। दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती साल 2050 तक एक विशाल जनसंख्या को भोजन मुहैया कराने की है। मौजूदा हालात उस चुनौती को झेलने के कतई मुफीद नहीं हैं। आज के मुकाबले जब 40 प्रतिशत अधिक खाद्यान्न उत्पादन होगा, तब जाकर हम सबका पेट भर पाएंगे। आज जब दुनिया में लगभग 50 करोड़ लोग एक पहर का भी भोजन नहीं कर पाते हैं, तब आने वाले समय के लिए यह समस्या कहीं बड़ी व गहरी होगी। बात केवल भोजन की ही नहीं है, बल्कि पोषण की भी है।

हमारे अपने देश में लगभग 55 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। अफ्रीका के देशों में तो हालात ज्यादा गंभीर हैं। संयुक्त राष्ट्र ने फैमिली फार्मिग को केंद्र में रखकर इन्हीं पहलुओं को उजागर करने की कोशिश की है। हर देश में उसकी पारिस्थितिकी और सीमाओं के अनुसार एक परिवार के आधार पर रणनीति बनाकर कृषि को नए आयाम देने की सोची गई है। यह एक बड़ा सच है कि अगर खाद्यान्न उत्पादन को सही दिशा देनी है, तो सीमांत खेती को ही बड़ा करके हम कई लक्ष्यों की पूर्ति कर पाएंगे।

छोटे-मंझोले किसानों पर ध्यान देना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि समाज का एक बड़ा वर्ग हताशा में खेती-किसानी छोड़ रहा है। हमारे देश के अलावा यह सभी देशों की कहानी है। सभी कठिनाइयों को झेलने के बाद जो उत्पाद हाथों में आते हैं, उनके दाम लागत से भी कम या बराबरी के मिलते हैं। अगर यही गति रही, तो हम दुनिया में और अपने देश में 55 प्रतिशत उत्पादन को एक दिन खो देंगे और साथ ही बेरोजगारों की एक बड़ी फौज भी पैदा कर देंगे। आज अपने लिए ही सही, यह वर्ग अपनी खाद्यान्न जरूरतें तो पूरी कर रहा है। फैमिली फार्मिग के नाम से ही सही, दुनिया ने छोटे किसानों की सुध तो ली। अब यह चाहे खाद्यान्न संकट की चिंता हो या फिर बढ़ती बेरोजगारी या कुपोषण की, अगर हाशिये पर पड़े किसानों की संयुक्त राष्ट्र ने चिंता की है, तो यह स्वागत योग्य कदम है। लेकिन यह कितने कदम चलेगा, इसे हमें देखना होगा।