जैविक कीटनाशक अपनाकर पानी प्रदूषण से बचाएं

हम जिस गाँव में रहते हैं वैसे ही लगभग एक लाख गाँव पूरे उत्तर प्रदेश में है जिनमें तेरह करोड़ से भी ज्यादा लोग रहते हैं और इनमें से दस करोड़ से ज्यादा लोगों का जीवन पूर्णत: खेती पर ही आधारित है। इनमें से अधिकांश किसान तथा खेतिहर मजदूर हैं हमारे सारे किसान मिलकर पूरे देश की आवश्यकताओं का एक बटे पाँचवाँ भाग तो खुद ही पूरा करते हैं। 

हमारे किसानों में से तीन चौथाई से ज्यादा तो छोटे और सीमांत किसान है। जो बीघा दो बीघा से लेकर पाँच एकड़ तक की खेती करते है। बहुत सारे लोग मानते हैं कि हमारी जोते छोटी होने के कारण खेती फायदेमन्द नहीं रह गई है लेकिन ये तो सोचना ही चाहिए कि छोटी-छोटी जोत वाले बहुत सारे किसान मिलकर पूरे प्रदेश में लाखों टन से ज्यादा पैदा करते हैं और पूरे देश के लोगों की खाने की जरूरत को पूरा करने में अपना योगदान करते हैं। हॉ, यह बात सही है कि खेती से जुड़ी समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही है। देश मे सुरक्षित अन्न भण्डार तो बढ़ रहे हैं और खाद्यान्न उत्पादन में हमारा देश आत्म निर्भर भी हो गया है किन्तु अनाज पैदा करने वाले किसान के घर में साल भर खाने का अन्न नही है। फसल की पैदावार बढ़ाने के प्रयासों में खेती की लागत बढ़ी है और मिट्टी की गुणवत्ता भी खराब हो रही है तथा रसायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुन्ध प्रयोग से हमारा पानी, मिट्टी और पर्यावरण सब खराब (दूषित ) होता जा रहा है। 

हमारे खेतों में कहीं सिंचाई के साधन नहीं है तो कहीं नहर है किन्तु पानी नहीं है। सिंचाई के साधनों की कमी के चलते हमारे छोटी जोत के किसान भी साठ से अस्सी रूपये प्रति घण्टे का पानी खरीदकर फसल पैदा करते हैं। और ऐसा करने से हमारी खेती की लागत और बढ़ जाती है। 

बढ़ती हुई महँगाई का असर खेती की लागत पर भी पड़ा है। पिछले १0-१५ वर्षों में ही खाद, बीज, दवाई, डीजल, पानी भाड़ा आदि के भावों में दो से चार गुना तक की बढ़ोत्तरी हो गई है। सच तो यही है कि किसान के पैदा किये अनाज को छोड़कर बाकी सब चीजों के दामों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। खेती में लगने वाली लागत लगातार बढ़ने और उपज का वास्तविक मूल्य नहीं मिल पाने के कारण खेती नुकसान देने वाली लगने लगी है। 

विकास की अंधी दौड़ में हमने अपनी परम्परागत खेती को छोड़कर आधुनिक कही जाने वाली खेती को अपनाया। हमारे बीज- हमारी खाद- हमारे जानवर सबको छोड़ हमने अपनाये उन्नत कहे जाने वाले बीज, रसायनिक खाद और तथाकथित उन्नत नस्ल के जानवर। नतीजा, स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर किसान खाद, बीज, दवाई बेचने वालों से लेकर पानी बेचने वालों और कर्जा बांटने वालों तक के चँगुल में फंस गये। यहां तक की उन्नत खेती और कर्ज के चंगुल में फँसे कई किसान आत्म हत्या करने तक मजबूर हो गये । खेती में लगने वाले लागत और होने वाला लाभ भी बड़ा सवाल है, किन्तु खेती केवल और केवल लागत और लाभ ही नहीं है हमारे समाज और बच्चों का पोषण, मिट्टी की गुणवत्ता, पर्यावरण, जैव विविधता, मिट्टी और पानी कर संरक्षण, जानवरों का अस्तित्व तथा किसानों और देश की सम्प्रभुता भी खेती से जुड़े हुए व्यापक मसले है। हम तो परम्परागत तौर पर मिश्रित और चक्रीय खेती करते आये हैं। जिसमें जलवायु, मिट्टी की स्थिति और पानी की उपलब्धता के आधार पर बीजों का चयन होता रहा है। हमारे खेतों में हरी खाद एवं गोबर की खाद का उपयोग होता था। हमारे पूर्वज पूर्ण जानकार थे पानी वाली जगहों पर पानी वाली और कम पानी वाली जगहों पर कम पानी वाली फसल करते थे। हमारे खेतों में खेती के अलावा, फल वाले पौधे, इमारती और जलाऊ लकड़ी के पेड़, जानवरों के लिये चारा सब कुछ तो होता था । किन्तु एक फसली उन्नत और आधुनिक कही जाने वाली खेती के चक्रव्यूह में हमने अपनी परम्परागत और उन्नतशील खेती को छोड़ दिया । 

हमारी खेती केवल अनाज पैदा करने का साधन मात्र नहीं है बल्कि हमारी संस्कृति से जुड़ी हुयी है। हमारी खेती, जल-जमीन-जंगल, जानवर, जन के सहचर्य- सहजीवन और सह-अस्तित्व की परिरचायक है। ये पॉचों एक दूसरे का पोषण करने वाले और एक दूसरे को संरक्षण देने वाले है सबका जीवन और अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है और ये भी सही है कि जन के ऊपर स्वयं के विकास के साथ-साथ बाकी सबके भी संतुलित संरक्षण और संवर्धन की जिम्मेदारी है। हमारी परम्परागत खेती पद्वति सहजीवन और सह अस्तित्व की परिचायक रही है, जबकि आधुनिक खेती संसाधनों के बेहतर प्रयोग के स्थान पर उनके अधिकतम दोहन में विश्वास करती है। अब तो अधिकतर कृषि वैज्ञानिक, जानकार आदि भी मानने लगे है कि हमारी परम्परागत फसल पद्वति ही बेहतर और टिकाऊ है। 

यह बात तो सही है कि आबादी-बढ़ने के कारण जमीने बँट गयी है और जोत का आकार छोटा हो गया है। किन्तु छोटी जोत का मतलब अलाभकारी खेती तो नही है। खेती का लाभ फसल के उत्पादन के साथ उसमें लगने वाली लागत और फसल पद्वति के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के रूप में ही नापा जा सकता है। हमारी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से एक ओर तो हमें जमीनों उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास करने है और दूसरी ओर खेती में लगने वाली लागत को कम करते हुए पर्यावरण संतुलन को बनाये रखना होगा । हम सब को मिलकर "छोटी जोत अलाभदायक हैं," जैसे दुष्प्रचारों से निपटने के कारगर उपाय भी ढूंढ़ने होंगे । 

हम सब मिलकर वैज्ञानिक सोच, परम्परागत ज्ञान, और फसल पद्वतियों के संयोजन से लागत कम करते हुये लाभकारी और पर्यावरण हितैषी खेती को अपना कर अपनी फसल, खेत पानी आदि की गुणवत्ता को बढ़ा सकते हैं। 

अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये हमें अपनी खेती को बेहतर बनाना होगा । रसायनिक खादों, कीटनाशकों, पानी और बीज के अनियंत्रित उपयोग को रोकते हुये एवं टिकाऊ खेती पद्वतियों को अपनाते हुए खेती की लागत कम और उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास करने होंगे । 

टिकाऊ खेती में ऐसा कुछ नही है जो हम पहले से नहीं जानते हैं- हमें रासायनिक खादों और कीटनाशकों का मोह त्याग कर जैविक खाद (हरी खाद, गोबर की खाद) जैविक कीटनाशक (गोबर, गौमूत्र, नीम, गुड़, तुलसी, खली आदि) का उपभोग बढ़ाना होगा, आवश्यकता के अनुसार कूडवार खेती अपनानी होगी । जिससे न केवल खेती की लागत में कमी आयेगी अपितु कुल उत्पादन में वृद्वि के साथ मिट्टी और पानी का सरंक्षण भी होगा । हम अपनी छोटी जोत की खेती की योजना बनाकर मिश्रित, चक्रिय, जैविक खेती अपनाकर लाभदायक और पर्यावरण हितैषी जोत में परिवर्तित कर सकते है । 

साभार – श्रमिक भारती