काजू की लाभकारी एवं उन्नत खेती

भूमि:
काजू को विभिन्न प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है आमतौर पर इसे ढलवाँ भूमि में भूक्षरण रोकने के लिए उगाया जाता है वैसे इसके सफल उत्पादन के लिए गहरी दोमट भूमि उपयुक्त रहती है अधिक क्षारीय मृदाएँ इसके सफल उत्पादन में बाधक मानी गयी है पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्रों में यह बालू के ढूहों पर भी अच्छी तरह उगता पाया गया है जिसमें कोई अन्य फसल नहीं उगाई जा सकती है

जलवायु:
काजू का वृक्ष सदाबहार होता है जो विभिन्न प्रकार की कृषि जलवायु में उगाया जा सकता है इसे उगाने के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु उत्तम रहती है समुद्रतट से १००० मीटर की ऊँचाई तक इसकी खेती की जा सकती है इसके लिए आर्द्र और मध्यम जलवायु बहुत आवश्यक है दक्षिणी भारत का तटवर्ती इलाका इसके लिए बहुत उपयुक्त है

उपज:
विभिन्न क्षेत्रों में इसकी उपज में विभिन्नता पाई जाती है अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में कम उपज होती है अच्छी देखभाल करके इसकी उपज में काफी वृद्धि की जा सकती है प्रति वृक्ष १२ किग्रा० तक उपज मिल जाती है अब इसकी उन्नत किस्में उपलब्ध हैं जिनसे १९-२० किग्रा० प्रति वृक्ष प्रति वर्ष तक उपज सुगमता से ली जा सकती है

प्रजातियाँ:
पूर्वी तट से विमोचित किस्में-
बी.पी.पी. १, बी.पी.पी. २, बी.पी.पी. ३, बी.पी.पी. ४, बी.पी.पी. ५, बी.पी.पी. ६, बी.पी.पी. ८ (एच २/१६)
तमिलनाडु कृषि वि०वि० से विकसित किस्में-
वी.आर.आई १, वी.आर.आई २, वी.आर.आई ३
पश्चिमी तट से विमोचित किस्में-
वेंगुर्ला १, वेंगुर्ला २, वेंगुर्ला ३, वेंगुर्ला ४, वेंगुर्ला ५, वेंगुर्ला ६, वेंगुर्ला ७, गोआ-१ (बाली २)
केरल कृषि वि०वि० से विकसित किस्मे-
अनकायम १ (बी.एल.ए. १३९-१), मडक्कतरा-१ (बी.एल.ए. ३९-४), मडक्कतरा-२ (एन.डी.आर २-१), धना (एच. १६०८), प्रियंका (एच. १५९१), कनका (एच. १५९८)
कर्नाटक के लिए विमोचित किस्में-
चिन्तामणि -१, उल्लाल-१, उल्लाल- २, उल्लाल-३, उल्लाल-४, एन.आर.सी.सी. सलेक्शन-१, एन.आर.सी.सी. सलेक्शन-२

बीज-बुवाई / पौधरोपण-:
काजू का प्रवर्धन निम्न प्रकार से किया जाता है-
बीज द्वारा- आमतौर पर इसका प्रवर्धन बीज द्वारा किया जाता है बीज लगाने से पहले गड्ढे खोदकर तैयार कर लिये जाते है फिर प्रत्येक गड्ढे में दो बीज बो दिये जाते हैं आरम्भ में बीज जून में बोये जाते हैं और लगभग ३-४ सप्ताह में जम जाते हैं जमने के पश्चात एक स्थान पर एक ही पौधा रखा जाता है पाँच साल के बाद कुछ पौधों को निकाल दिया जाता है यदि मिट्टी उर्वर हो तो पौधों को १२ मीटर की दूरी पर लगाना उचित रहता है
सोप्टावुड ग्राफटिंग- इस विधि में पौधे मात्र दो साल में तैयार हो जाते है इन्हें रोपने का उत्तम समय जुलाई-अगस्त होता है इसके अलावा भेंट कलम और लेयरिंग विधियों का उपयोग भी किया जाता है
रोपण- काजू के उच्च घनत्व वाला रोपण ५०० वृक्ष प्रति हे० अधिक लाभप्रद पाया गया है

खाद एवं उर्वरक:
काजू की अधिक उपज लेने के लिए उचित मात्रा में व उचित समय पर खाद एवं उर्वरकों का उपयोग नितान्त आवश्यक है आमतौर पर काजू उत्पादक इस ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देते हैं परीक्षणों से पता चला है    . |
 

कीट-नियंत्रण:
इस पर कुछ कीट जैसे तना छेदक, थ्रिप्स, सूँडी आदि का प्रकोप हो जाता है तो उसकी रोकथाम के लिए कीटनाशी दवाइयों का उपयोग करना चाहिए इनके लिए  नीम का काढ़ा या गौ मूत्र का छिड़काव करना चाहिए |

रोग-नियंत्रण:
इसके पौधों को कुछ रोग भी लग जाते है जिसके कारण उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पङता है रोगों में चूर्णी फफूंदी प्रमुख है जो एक फफूंदी के कारण होती है इसकी रोकथाम के लिए  नीम का काढ़ा पानी में मिलाकर  छिङकाव करना चाहिए

तुङाई:
परागण की क्रिया के बाद फलों को पकने में लगभग ६२ दिन लग जाते है फल पकने के उपरान्त इसकी तुङाई कर ली जाती है

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organic farming: 
जैविक खेती: