बंजर हुई जमीन और घटी पैदावार बेबस किसान

सरकारी नीति में हरित खाद सब्सिडी सिस्टम को बढ़ावा देने की जरूरत है जो खेती को पारंपरिक प्राकृतिक पद्धति पर ले जाते हुए क्षरित, खस्ताहाल और बंजर हो चुकी जमीन की दशा सुधारे। केवल इतना ही नहीं बल्कि रासायनिक उर्वरकों के उत्पादन व प्रयोग का सीधा प्रभाव जलवायु परिवर्तन पर पड़ता है। इनके कारण ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। किसान नाइट्रोजन उर्वरक धड़ल्ले से इसलिए इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि उस पर सरकारी छूट है और वह सस्ते दामों में उपलब्ध है। अगर सरकार हरित खाद पर यह छूट दे तो वे उसे इस्तेमाल करेंगे। 

सोडियम-पोटाश-फास्फोरस उर्वरकों के लिए भारत द्वारा पिछले तीन दशक में वर्ष 1966-67 के 60 करोड़ रुपए से बढ़कर सब्सिडी वर्ष 2007-08 में 40,338 करोड़ रुपए हो गई। सरकारी सूत्रों के अनुसार वर्ष 2008-09 में 119,772 करोड़ रुपए की सब्सिडी दी गई। इस सब्सिडी का फायदा भी संपन्न क्षेत्रों के किसानों के ही हाथ लगता है, जिनके पास भरपूर वर्षा होने के कारण सिंचाई का पूरा प्रबंध है।

पिछले पांच दशकों में रसायनों के बेहद इस्तेमाल ने जमीन को बुरी तरह जख्मी कर दिया। नतीजतन मृदा की अम्लीयता व क्षारता का संतुलन गड़बड़ाने और उत्पादन में गिरावट के नतीजे सामने आए हैं। एक तरफ जहां नाइट्रोजन रसायनिक उर्वरकों के प्रयोग को रोक कर भारत के कुल ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन में छह प्रतिशत तक की कटौती संभव है। जो सीमेंट, स्टील, आयरन और ट्रांसपोर्ट जैसे सेक्टरों से होने वाले उत्सर्जन के समकक्ष है। भारत में रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को कम करके हम 10 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन कम करके 3.6 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन तक ला सकते हैं। इससे उर्वरकों के कारण होने वाले ग्रीन हाद्वस गैसों का उत्सर्जन छह प्रतिशत से घटकर दो प्रतिशत हो जाएगा।

वहीं विशेषज्ञों के अनुसार मिट्टी की सेहत उसके रासायनिक, भौतिक व जैविक अवयवों और उनकी आपसी अंतक्र्रिया पर निर्भर करती है। मिट्टी असंख्य सूक्ष्म जीवों के लिए निवास स्थल और जीनीय भंडारण की तरह भी कार्य करती है। पौधे की 90 फीसदी से ज्यादा जीनीय जैव विविधता मिट्टी में पाई जाती है। इसीलिए जो प्रबंध रणनीति मिट्टी के इन बहुआयामी कार्यों पर ज्यादा ध्यान देती है, वह मिट्टी की सेहत सुधारने में ज्यादा कारगर होती है अपेक्षाकृत उस प्रबंध रणनीति से जो मिट्टी के एक कार्य पर ज्यादा जोर देती है।

जीवित माटी के सामाजिक सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले अधिकांश किसानों (88 फीसदी) ने भी माना कि मिट्टी में जीवन है। उन्होंने मिट्टी में जीवित सूक्ष्म जीवों के होने की बात भी स्वीकार की, जबकि उनका ज्ञान नंगी आंखों से दिखने वाले जीवों तक ही सीमित है। जिन किसानों से बातचीत की गई, उनमें से 98.5 फीसदी किसान केंचुओं को मिट्टी में जीवन का संकेतक मानते हैं। मिट्टी के कार्बनिक पदार्थ मिट्टी के कार्यों में, मिट्टी की गुणवत्ता के निर्धारण में, जल संग्रहण क्षमता और मिट्टी को क्षरण से बचाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा मिट्टी के कार्बनिक पदार्थ वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड को कम करने वाले स्रोत के रूप में भी काम करते हैं। 

शैक्षिक, नागरिक समाज और नीति हलकों में रासायनिक उर्वरकों के दुष्परिणामों, विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा, पर बहस और परिचर्चा को अब अन्य बातों के साथ भारत सरकार द्वारा स्वीकार किया गया है। इसके बाद, समय के साथ पुरानी पड़ गई उर्वरक नीति के स्थान पर उर्वरकों के लिए एक पोषक-तत्व आधारित सब्सिडी प्रणाली को लाया गया है। 

केंद्रीय वित्त मंत्री ने उर्वरकों के दुष्परिणामों की बात स्वीकार करते हुए खाद छूट नीति में सुधार के लिए कदम उठाने की शुरुआत की थी। उसी के परिणामस्वरूप पौष्टिकता पर आधारित एक नईनीति बनाई गई, लेकिन यह नीति रासायनिक खादों का अब भी पूरा समर्थन कर रही है। इसीलिए प्रबुद्ध वर्ग और विशेषज्ञों ने अब संकट से निपटने में नई नीति की क्षमता पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। अब यह पूरी तरह स्वीकार कर लिया गया है कि चाहे मात्रा की बात हो या गुणवत्ता की, दोनों ही दृष्टि से कार्बनिक पदार्थ क्षरित हो चुकी मिट्टी में फिर से जान फूंकने के लिए संजीवनी का कार्य कर सकते हैं। हालांकि दूसरी तरफ सरकार भी ऐसी योजनाओं पर मुखर होकर बोलने लगी है, जो कार्बनिक खादों का समर्थन करने वाली हैं। वे यह भी मानते हैं कि पौष्टिकता पर आधारित नईछूट नीति कार्बनिक और जैविक खादों का समर्थन करने वाली इन योजनाओं के साथ मिलकर ही इस संकट का समाधान कर सकती है। 

Author: डॉ. सीमा जावेद

Source: दैनिक भास्कर , 15 फरवरी 2011