पेठा (कद्दूवर्गीय सब्जी) की उन्नत खेती

एक बेल पर लगने वाला फल है, जो सब्जी की तरह खाया जाता है। यह हल्के हरे वर्ण का होता है और बहुत बड़े आकार का हो सकता है। पूरा पकने पर यह सतही बालों को छोड़कर कुछ श्वेत धूल भरी सतह का हो जाता है। इसकी कुछ प्रजातियां १-२ मीटर तक के फल देती हैं पेठा दरअसल कद्दू की वह वेरायटी है जिससे पेठा बनता है। इसे भूरा कद्दू ,कुष्मांड या कूष्मांड का फल पेठा, भतुआ, कोंहड़ा आदि नामों से भी जाना जाता है इसकी अधिकांश खेती भारत सहित दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में होती है। इससे भारत में एक मिठाई भी बनती है, जिसे पेठा (मिठाई) ही कहते हैं।

जलवायु

इसके लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है |कददू की खेती के लिए शीतोषण एवम समशीतोषण जलवायु उपयुक्त होती है इसके लिए 18 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापक्रम होना चाहिएI इसको गर्म एवम तर दोनों मौसम में उगाया जाता है  उचित बढ़वार के लिए पाले रहित 4 महीने का मौसम अनिवार्य हैI  इसे पाले से तरबूज और खरबूजे की तुलना में कम हानी होती है I

भूमि

इसके लिए दोमट एवम बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम होती हैI यह 5.5 से 6.8 पी एच तक की भूमि में उगाया जा सकता हैI हालाँकि मध्यम अम्लीय में भी इसे उगाया जा सकता है चूँकि यह उथली जड़ वाली फसल है अत: इसके लिए अधिक जुताइयों की आवश्यकता नहीं होती 2-3 बार कल्टीवेटर चलाकर पाटा लगाएं | 

प्रजातियाँ

इसमे बहुत सी प्रजातियाँ पाई जाती है जैसे की पूसा विशवास, पूसा विकास, कल्यानपुर पम्पकिन-1, नरेन्द्र अमृत, अर्का सुर्यामुखी, अर्का चन्दन, अम्बली, सी एस 14, सी ओ1 एवम 2, पूसा हाईब्रिड 1 एवम कासी हरित कददू की प्रजाति पाई जाती हैI

विदेशी किस्मे

भारत में पैटीपान , बतर न्ट, ग्रीन हब्बर्ड , गोल्डन हब्बर्ड , गोल्डन कस्टर्ड, और यलो स्टेट नेक नामक किस्मे छोटे स्तर पर उगाई जाती है |

बोने का समय

बोने का समय इस बात पर निर्भर करता है की इसे कहाँ पर उगाया जा रहा है मैदानी क्षेत्रों में इसे साल में निम्न दो बार बोया जाता है फ़रवरी-मार्च, जून-जुलाई

पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी बुवाई मार्च-अप्रैल में की जाती है नदियों के किनारे इसकी बुवाई दिसंबर में की जाती है |

बीज की मात्रा

7-8 किलो ग्राम बीज हे. के लिए पर्याप्त होता है |

खाद और उर्वरक

आर्गनिक खाद

कद्दू की फसल और अधिक पैदावार लेने के लिए उसमे कम्पोस्ट खाद का होना बहुत जरुरी है इसके लिए एक हे. भूमि में लगभग 40-50 क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद और 20 किलो ग्राम नीम की खली वजन और 30 किलो अरंडी की खली इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर खेत में बुवाई के पहले इस खाद को समान मात्रा में बिखेर दें और फिर अच्छे तरीके से खेत की जुताई कर खेत को तैयार करें इसके बाद बुवाई करें |

और जब फसल 20-25 दिन की हो जाए तब उसमे नीम का काढ़ा और गौमूत्र लीटर मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें और हर 10-15 दिन के अंतर पर छिडकाव करें |

रासायनिक खाद

250 से 300 कुन्तल सड़ी गोबर की खाद आखरी जुताई के समय खेत में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए इसके साथ ही 80 किलोग्राम नत्रजन, 80 किलोग्राम फास्फोरस एवम 40  किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में देना चाहिएI नत्रजन की आधी मात्रा फास्फोरस एवम पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय तथा नत्रजन की आधी मात्रा दो भागो में  टाप ड्रेसिंग में देना चाहिए पहली बार 3 से 4 पत्तियां पौधे पर आने पर तथा दूसरी बार फूल आने पर नत्रजन देना चाहिएI

सिचाई एवं खरपतवार नियंत्रण

जायद में कददू की खेती के लिए प्रत्येक सप्ताह सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है लेकिन खरीफ अर्थात बरसात में इसके लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है पानी न बरसने पर एवं ग्रीष्म कालीन फसल के लिए 8-10 दिन के अंतर पर सिचाई करें | फसल को खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिए फसल में 3-4 बार हलकी निराई- गुड़ाई करें गहरी निराई करने से पौधों की जड़ें कटने का भय रहता है |

कीट एवं रोग नियंत्रण

लालड़ी

पौधों पर दो पत्तियां निकलने पर इस कीट का प्रकोप शुरू हो जाता है यह कीट पत्तियों और फूलों को खाता है इस कीट की सुंडी भूमि के अन्दर पौधों की जड़ों को काटती है |

रोकथाम

इम से कम 40-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए |

फल की मक्खी

यह मक्खी फलों में प्रवेश कर जाती है और वहीँ पर अंडे देती है अण्डों से सुंडी बाहर निकलती है वह फल को वेकार कर देती है यह मक्खी विशेष रूप से खरीफ वाली फसल को अधिक हानी पहुंचाती है |

रोकथाम

इम से कम 40-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए |

सफ़ेद ग्रब

यह कीट कद्दू वर्गीय पौधों को काफी क्षति पहुंचाती है यह भूमि के अन्दर रहती है और पौधों की जड़ों को खा जाती है जिसके कारण पौधे सुख जाते है |

रोकथाम

इसकी रोकथाम के लिए खेत में नीम का खाद प्रयोग करें |

चूर्णी फफूदी

यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नमक फफूंदी के कारण होता है पत्तियों एवं तनों पर सफ़ेद दरदरा  और गोलाकार जल सा दिखाई देता है जो बाद में आकार में बढ़ जाता है और कत्थई रंग का हो जाता है पूरी पत्तियां पिली पड़कर सुख जाती है पौधों की बढ़वार रुक जाती है |

रोकथाम

इसकी रोकथाम के लिए देसी गाय का मूत्र 5 लीटर लेकर 15 ग्राम के आकार के बराबर हींग लेकर पिस कर अच्छी तरह मिलाकर घोल बनाना चाहिए प्रति 2 ली. पम्प के द्वारा तर-बतर कर छिडकाव करे ।

मृदु रोमिल फफूंदी

यह स्यूडोपरोनोस्पोरा क्यूबेन्सिस नामक फफूंदी के कारण होता है रोगी पत्तियों की निचली सतह पर कोणाकार धब्बे बन जाते है जो ऊपर से पीले या लाल भूरे रंग के होते है |

रोकथाम

इम से कम 40-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए |

मोजैक

 यह विषाणु के द्वारा होता है पत्तियों की बढ़वार रुक जाती है और वे मुड़ जाती है फल छोटे बनते है और उपज कम मिलती है यह रोग चैंपा द्वारा फैलता है |

रोकथाम

इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र  तम्बाकू मिलाकर पम्प के द्वारा तर-बतर कर छिडकाव करे ।

एन्थ्रेक्नोज

यह रोग कोलेटोट्राईकम स्पीसीज के कारण होता है इस रोग के कारण पत्तियों और फलो पर लाल काले धब्बे बन जाते है ये धब्बे बाद में आपस में मिल जाते है यह रोग बीज द्वारा फैलता है |

रोकथाम

बीज क़ बोने से पूर्व गौमूत्र या कैरोसिन या नीम का तेल के साथ उपचारित करना चाहिए |

तुड़ाई

कद्दू के फलो की तुड़ाई बाजार मांग पर निर्भर करती है आम तौर पर बोने के 75-90 दिन बाद हरे फल तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है फल को किसी तेज चाकू से अलग करना चाहिए .|

उपज

सामान्य रूप से 250 से 300 कुंतल प्रति हेक्टर उपज प्राप्त होती हैI

organic farming: 
जैविक खेती: