सिंचाई में लवणीय जल की समस्या एवं प्रबंधन

नहरी क्षेत्रों में कई स्थानों पर मिट्टी सदैव नम (तैलीय) सी दिखाई देती है। ऐसी जमीन में फस्ल नहीं होती। ऐसी मिट्टी जब दिखाई दे तो समझ लेना चाहिए कि मिट्टी भूमि ऊसर या सेम की समस्या से ग्रसित हो चुकी है। अतः बिना ऊसरता को समाप्त किए इस जमीन में कोई भी फसल लेना आर्थिक रूप से उपादेय नहीं होगा। तेलिया या सोडिक जल से सिंचाई करने से मिट्टी की भौतिक दशा खराब हो जाती है। अतः इसको सुधारने हेतु कैल्शियम युक्त रासायनिक सुधारक, जैसे कि जिप्सम मिट्टी में डाला जाए तो सोडिक जल का दुष्प्रभाव कम हो जाता है। जिप्सम का उपचार करने से मिट्टी में वर्षा के पानी तथा सिंचाई के जल का रिसाव बढ़ जाता है और मिट्टी में क्षारीयता कम होने लगती है। इस प्रकार जिप्समोपचार के पश्चात् तेलिया या क्षारीय पानी से सिंचाई कर फसल वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।

वस्तुतः कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जो अनेक कारकों पर निर्भर करता है। हमारे देश के शुष्क तथा अर्धशुष्क जलवायु क्षेत्रों में कृषि योग्य मृदाएं कम वर्षा, कम आर्द्रता, उच्च तापमान, उच्च वाष्पीकरण एवं वाष्पोत्सर्जन के कारण लवणीय व क्षारीय हो चुकी हैं, जिसके कारण देश का कृषि उत्पादन प्रभावित हो रहा है। तथा इस मिट्टी को सुखाने पर नमक दिखने लगता है। सेमग्रसित मृदाओं का जल-स्तर सतह से बहुत समीप होता है और जल-स्तर जब सतह से लगभग एक या डेढ़ मीटर पर आ जाता है और जब ऊपरी सतह से पानी उड़ता है तो नीचे से पानी सतह पर आने लगता है। यह पानी अपने साथ लवण भी नीचे से सतह पर लाता है। वाष्पीकरण की क्रिया द्वारा जब यह पानी उड़ जाता है तो अपने साथ लाए लवण सतह पर ही छोड़ जाता है। इस प्रकार इन मृदाओं में लवणों की मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि इनमें सामान्यतया पौधों का अंकुरण नहीं हो पाता है।

1. लवणों का सांद्रणः यह पानी की विद्युत चालकता अथवा ई.सी. द्वारा मापा जाता है और डेसी सीमन प्रति मीटर में (डेसीमोहज) या मिली मोहज प्रति सेंमी. में प्रदर्शित किया जाता है। सामान्यतया जल में पाए जाने वाले धनायन - सोडियम, पोटेशियम, कैल्शियम मैग्नीशियम तथा ऋणायन-कार्बोनेट, बाईकार्बोनेट, क्लोराइड, सल्फेट, नाइट्रेट और फ्लोराइड होते हैं। इसके अतिरिक्त अल्प मात्रा में सिलिका तथा बोरोन आदि आयन भी विद्यमान होते हैं।

2. सोडियम अवरोधः सोडियम अवरोध या समस्या को अवशोषित सोडियम कार्बोनेट (आरएससी) और सोडियम अवशोषण अनुपात (एसएआर) के द्वारा दर्शाया जाता है।
 

लवणीय एवं क्षारीय पानी के हानिकारक प्रभाव

लवणीय पानी से सिंचाई करने से मिट्टी में नमक एकत्रित हो जाता है, जिसके कारण पौधों में पानी की कमी, देरी से अंकुरण, धीमी, वृद्धि मुरझाने तथा सूखने की समस्या उत्पन्न हो जाती है; फलतः कृषि उत्पादन में कमी आ जाती है।

सोडिक या तेलिया पानी के प्रयोग से मिट्टी का विनिमय सोडियम प्रतिशत बढ़ जाता है। इससे मिट्टी के कण छितर जाते हैं और गीले होने पर ये ढेले बनाते हैं, जो सूखने पर कठोर हो जाते हैं। भूमि की ऊपरी सतह पर एक बारीक पपड़ी बन जाती है जिससे पौधों को समुचित पानी नहीं मिल पाता है। तेलिया या क्षारीय पानी के कारण मिट्टी में क्षारीयता उत्पन्न होने के कारण पी. एच. मान बढ़ जाता है तथा इससे कई पोषक तत्व, जैसे-नाइट्रोजन, जिंक, आयरन आदि पौधों को नहीं मिल पाते हैं। इस स्थिति में कैल्शियम तथा मैग्नीशियम की उपलब्घता घट जाती है और सोडियम की आविषालुता बढ़ जाती है। 

लवणीय एवं क्षारीय पानी का प्रबंधन कैसे?

1. मिट्टी की बनावटः मिट्टी में लवणों का एकत्रित होना मिट्टी की बनावट पर निर्भर करता है। सामान्य जल निकास व्यवस्था के रहते मोटे किस्म की मिट्टी में (दोमट, बलुई और बालू) लवणीय पानी की सिंचाई करने से उसमें रहने वाले नमक का आधा भाग मिट्टी में एकत्रित हो जाता है। इसी तरह बलुई दोमट और दोमट में लगभग बराबर भाग तथा बारीक मिट्टी में (मटियार और मटियार दोमट) दुगुना भाग मृदा में एकत्रित हो जाता है। अतः जिस पानी में लवणों का सांद्रण बहुत अधिक हो, उसे मोटी किस्म की मिट्टी में, यदि वहां एक वर्ष में 400 मिमी से कम वर्षा न होती हो, तो लवण सहनशील और मध्यम लवण सहनशील फसलों के उत्पाउन के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।

त्रा मिट्टी में एकत्रित हो जाती है। यदि साथ-साथ निक्षालन नहीं होता है तो धीरे-धीरे जड़मंडल में इतना नमक एकत्रित हो जाता है कि उपज घटनी शुरू हो जाती है। फिर भी यदि सिंचाई के उचित तरीके अपनाकर सामयिक निक्षालन कर लिया जाता है तो जड़मंडल में अतिरिक्त नमक इकट्ठा नहीं हो पाता है। इसके लिए निम्न प्रयास किए जा सकते हैं-

2-जिन क्षेत्रों में 400 मि.मी. वर्षा होती है, वहां वर्षा के पानी से मिट्टी के लवण अपने आप ही निक्षालित होते रहते हैं। ऐसे स्थानों पर परंपरागत तरीके से सिंचाई की जा सकती है। जिस वर्ष सामान्य से कम वर्षा हो, उस वर्ष बुवाई के पहले लवणीय जल से भारी सिंचाई की जानी चाहए जिससे आगामी रबी के मौसम में लवण जड़मंडल के नीचे चले जाएं। लवणीय जल से सिंचाई करते समय किसान भाईयों को कुल सिंचाईयों की मात्रा बढ़ानी चाहिए और प्रति सिंचाई जल की मात्रा का कम प्रयोग करना चाहिए।

3 खाद एवं उर्वरकः गोबर तथा कम्पोस्ट की खाद सर्वाधिक प्रचलित और उपयोगी खाद होती है। इससे न केवल मृदा में पोषक तत्वों की बढ़ोतरी होती है, वरन् मिट्टी के भौतिक गुणों में भी सुधार होता है; लवणों का निक्षालन ही आसानी से होता है और जड़मंडल में लवणों का प्रभाव नहीं हो पाता है। लवणीय जल से सिंचाई करने पर अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए सामान्य से अधिक नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश तथा जिंक उर्वरक की मात्रा मिट्टी परीक्षण करवाकर डालनी चाहिए।

तेलिया या सोडिक जल से सिंचाई करने से मिट्टी की भौतिक दशा खराब हो जाती है। अतः इसको सुधारने हेतु कैल्शियम युक्त रासायनिक सुधारक, जैसे कि जिप्सम मिट्टी में डाला जाए तो सोडिक जल का दुष्प्रभाव कम हो जाता है। वस्तुतः जिप्सम बहुतायत तथा सुगमता से पाया जाने वाला रासायनिक सुधारक है तथा कैल्शियम प्राप्त कराने वाला सस्ता स्रोत भी है। यह सेाडियम-कैल्शियम अनुपात को फसल के अनुकूल बना देता है तथा इससे फसल की बढ़वार में बहुत सुधार होता है।

जिप्सम डालने से सोडिक पानी का अवशोषित सोडियम कार्बोनेट निष्क्रिय हो जाता है तथा पानी का सोडिक कुप्रभाव भी घट जाता है। यदि पानी में अवशोषित सोडियम कार्बोनेट 2.5 या इससे भी कम है तो जिप्सम डालने की आवश्यकता नहीं होती। इसके बाद प्रति मिली तुल्यांक प्रति लीटर अवशोषित सोडियम कार्बोनेट को निष्क्रिय करने के लिए 36 किलो प्रति एकड़ जिप्सम (70 प्रतिशत शुद्ध) 7.5 से.मी. सिंचाई के लिए आवश्यक होता है। जिप्सम की सही मात्रा ज्ञात करने हेतु मिट्टी तथा पानी का रासायनिक परीक्षण करवाना आवश्यक है।

पानी की अपेक्षा मिट्टी में जिप्सम का उपयोग अधिक लाभदायक रहता है। जिप्सम 30 मेस की छननी से छना हुआ होना चाहिए। मिट्टी की आवश्यकतानुसार जिप्सम मई के अंतिम सप्ताह अथवा जून के प्रथम सप्ताह में खेत में 10 से. मी. की गहराई तक मिलाना ठीक रहता है। चूंकि जिप्सम पानी में कम घुलनशील है, अतः खेत में 5 से. मी. पानी 15 दिन तक खड़ा रहना चाहिए। इससे कैल्शियम घुलकर मिट्टी में जाएगा तथा सोडियम बाइकार्बोनेट को विस्थापित करेगा। अंततोगत्वा सोडियम मिट्टी से बाहर जाएगा। जिप्सम मिलाने के बाद यदि हरी खाद की फसल बोकर व पलटकर गेहूं लिया जाए तो बहुत अच्छी उपज प्राप्त होती है।

इन क्षारीय जल से प्रभावित मिट्टियों में सामान्य मिट्टियों की अपेक्षा 15-20 प्रतिशत नाइट्रोजनीय उर्वरक देना श्रेयस्कर रहता है। इसी प्रकार लवणीय व क्षारीय मिट्टियों में बीज की मात्रा भी 25 प्रतिशत अधिक देनी चाहिए।

4. लवण सहनशील फसलें : लवणीय जल से सिंचाई करते समय और इससे अपेक्षित उत्पादन प्राप्त करने में फसलों का चुनाव भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अत्यधिक लवणीय जल से सिंचाई करते समय उच्च लवण सहनशील फसलों की बुवाई करनी चाहिए, न कि लवण संवेदनशील फसलों की। सारणी -1 में विभिन्न फसलों की लवण सहनशीलता वर्णित की गई है। उपर्युक्त तरीके अपनाकर हम लवणीय तथा क्षारीय जल से उत्पादन प्राप्त कर अपने देश की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने में सक्षम हो सकते हैं।