कीट-पतंग

कीट 
कीट अर्थोपोडा संघ का एक प्रमुख वर्ग है। इसके 10 लाख से अधिक जातियों का नामकरण हो चुका है। पृथ्वी पर पाये जाने वाले सजीवों में आधे से अधिक कीट हैं।[1][2] ऐसा अनुमान लगाया गया है कि कीट वर्ग के 3 करोड़ प्राणी ऐसे हैं जिनको चिन्हित ही नहीं किया गया है अतः इस ग्रह पर जीवन के विभिन्न रूपों में कीट वर्ग का योगदान 90% है।[3] ये पृथ्वी पर सभी वातावरणों में पाए जाते हैं। सिर्फ समुद्रों में इनकी संख्या कुछ कम है। आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण कीट हैं: एपिस (मधुमक्खी) व बांबिक्स (रेशम कीट), लैसिफर (लाख कीट); रोग वाहक कीट, एनाफलीज, क्यूलेक्स तथा एडीज (मच्छर); यूथपीड़क टिड्डी (लोकस्टा); तथा जीवीत जीवाश्म लिमूलस (राज कर्कट किंग क्रेब) आदि।
कीट प्राय: कोई भी छोटा, रेंगनेवाला, खंडों में विभाजित शरीरवाला और बहुत सी टाँगोंवाला प्राणी कीट कह दिया जाता हैं, किंतु वास्तव में यह नाम विशेष लक्षणोंवाले प्राणियों को दिया जाना चाहिए। कीट अपृष्ठीवंशियों (Invertebrates) के उस बड़े समुदाय के अंतर्गत आते है जो सन्धिपाद (Anthropoda) कहलाते हैं। लिनीयस ने सन्‌ 1735 में कीट (इनसेक्ट=इनसेक्टम्‌=कटे हुए) वर्ग में वे सब प्राणी सम्मिलित किए थे जो अब संधिपाद समुदाय के अंतर्गत रखे गए हैं। लिनीयस के इनसेक्ट (इनसेक्टम्‌) शब्द को सर्वप्रथम एम. जे. ब्रिसन ने सन्‌ 1756 में सीमित अर्थ में प्रयुक्त किया। तभी से यह शब्द इस अर्थ में व्यवहृत हो रहा है। सन्‌ 1825 में पी. ए. लैट्रली ने कीटों के लिये षट्पाद (Hexapoda) शब्द का प्रयोग किया, क्योंकि इस शब्द से इन प्राणियों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण लक्षण व्यक्त होता है।
पतंग
आखेटि पतंग (Ichneumon wasp या इक्नुमन फ़्लाइ) छोटे, बहुधा चटकीले रंगोंवाले, क्रियाशील कीट (इंसेक्ट) हैं। चीटियों, मधुमक्खियों तथा बर्रों से इनका निकट संबंध है। प्राय: इन्हें धूप से प्रेम होता है। इनके पूर्वोक्त संबंधियों और इनमें यह भेद है कि प्रौढ़ होने पर ही ये स्वतंत्र जीवन व्यतीत करते हैं। अपरिपक्व अवस्था में ये पूर्णत: परजीवी होते हैं। तब तक विविध प्रकार के कीटों के शरीर के ऊपर या भीतर रहकर, उन्हीं से भोजन और आश्रय पाते हैं तथा अंत में उनके प्राण ले लेते हैं। प्रौढ़ स्त्री आखेटि पतंग अंडे या तो आश्रयदाता कीट के शरीर के ऊपर देती है या अपने अंडरोपक (ओविपॉज़िटर) की सहायता से इन्हें उसकी त्वचा के नीचे घुसेड़ देती है। अंडरोपक एक प्रकार का रूपांतरित डंक होता है जो आश्रय देनेवाले कीट की चमड़ी को छेदकर उसके भीतर अंडे डालने में सहायता देता है। आश्रय देनेवाले कीट के शरीर के भीतर आखेटिपतंग डिंभ (लार्वी) प्राय: सैकड़ों की संख्या में होते हैं।; ये शनै:-शनै: उसके शरीर के कोमल पदार्थ को खा जाते हैं तथा अंत में केवल उसकी खाल रह जाती है और इस तरह वह मर जाता है। इन डिंभों में प्राय: टाँगें नहीं होतीं तथा ये श्वेत या पीले रंग के होते हैं। जब ये पूरे बड़े हो जाते हैं तो आश्रय देनेवाले जीव की मृत देह पर अपने चारों ओर एक रेशमी कोवा (कोकून) बना लेते हैं तथा आखेटि पतंग बनकर निकलने के पूर्व वे शंखी (प्यूपा) की अवस्था में रहते हैं।यह कृषि के हानिकारक कीड़ों के शरीर में अंडे देता है, जिससे वे शीघ्र ही मर जाते हैं। आखेटि पतंग अनेक प्रकार के कीटों की अपरिपक्वता में ही उन पर आश्रित होना आरंभ कर देते हैं, विशेषकर तितलियों और पतंगों की इल्लियों (कैटरपिलर्स) पर, गुबरैलों (कोलिओप्टरा) के जातकों (ग्रब्स) पर, मक्खियों (डिप्टेरा) के ढोलों (मैगॉट्स) पर तथा मकड़ियों और कूटबिच्छुओं (फ़ाल्स स्कॉरपियंस) पर। इनमे से पैनिस्कस जाति के समान कुछ आखेटि पतंग तो बाह्य परजीवी हैं, परंतु अन्य जातियों के आखेटि पतंग अधिकतर आंतरिक परजीवी होते हैं। आखेटि पतंग साधारणतया पृथ्वी के प्रत्येक भाग में पाए जाते हैं। समस्त भूमंडल पर अभी तक इनकी 2,000 जातियाँ ज्ञात हुई हैं, जो 24 वर्गों में विभाजित की गई हैं। भारत, ब्रह्मदेश (बर्मा) लंका तथा पाकिस्तान में पाई जानेवाली इनकी लगभग 700 जातियों का वर्णन अभी तक किया गया है। यूरोप तथा अमरीका में ग्रैवनहार्स्ट, वेसमील और ऐशमीड के समान अनेक कीटवैज्ञानिकों ने इन कीटों का अध्ययन किया है। इनकी अधिकांश भारतीय जातियों का वर्णन यूरोप के लिनीआस, फ़ाब्रिशिअयस, वाकर, कैमरन तथा मॉरली ने किया है। अंतिम लेखक ने भारत के स्वतंत्र होने के पूर्व भारत के सेक्रेटरी ऑव स्टेट द्वारा प्रकाशित ""फ़ॉना ऑव ब्रिटिश इंडिया"" (ब्रिटिश भारत के प्राणी) नामक पुस्तकमाला में एक संपूर्ण पुस्तक इन कीटों के वर्णन को अर्पित कर दी है।
बहुत से कीट, जिनपर परजीवी आखेटि पतंग आक्रमण करते हें, बहुधा खेती और जंगलों को हानि पहुँचानेवाले हैं। इसलिए आखेटि पतंगों को मनुष्य का हितकारी मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है। ये उन हानिकारक इल्लियों, गुबरैलों, ढोलों इत्यादि को, जो हमारी खेती नष्ट करने के सिवाय जंगल के वृक्षों की पत्तियाँ खा जाते या उनकी बहुमूल्य लकड़ी के भीतर छेद कर देते हैं, बड़ी संख्या में नष्ट कर डालते हैं।
एवानिआ नामक आखेटि पतंग काले रंग का होता है, जो बहुधा घरों में पाया जाता है। यह साधारणतया घरों में पाए जानेवाले घृणित तिलचट्टे (कॉकरोच) के अंडधानों (एकसैक) की तत्परता से खोज कर उन्हीं में अपने अंडे रख देते हैं। एवानिआ के डिंभ तिलचट्टे के अंडों को खा जाते हैं। पीतपीटिका (ज़ैंथोपिंप्ला) पीला और काले धब्बोंवाला एक अन्य आखेटि पतंग है, जो सुगमता से मिलता है, यह अनेक हानिकारक इल्लियों का परजीवी है। माइक्रोब्रैकन लेफ़्रेाई नामक आखेटि पतंग भारत और मिस्र में पाए जानेवाले रुई के कुख्यात कर्पासकीट (बोलवर्म) की इल्लियों का प्रसिद्ध परजीवी है और इसलिए हमारा हितकारी है।
कुछ जातियों को, जैसे माइक्रोब्रैकन ज़िलीकिआ को, प्रयोगशालाओं मे बड़ी संख्या में प्रजनित करा और पालकर भारत तथा संयुक्त राज्य, अमरीका में आलू को हानि पहुँचानेवाली कंदपतंग की इल्लियों (ट्यूबर मॉथ कैटरपिलर) की रोक के लिए खेतों और भांडारों में छोड़ दिया जाता है। ओपिअस जाति की अनेक उपजातियाँ बहुमूल्य फलों को नष्ट करनेवाली फलमक्खियों के ढोलों पर आक्रमण करती हैं। इसलिए अमरीका ने अपने फलों की रक्षा के लिए भारत से इन आखेटि पतंगों का आयात किया है।

गोमूत्र और नीम तेल फसलों का बना रक्षा कवच

गोमूत्र और नीम तेल फसलों का बना  रक्षा कवच

बारिश के मौसम में फसलों पर कीटों और फफूंद का प्रकोप बढ़ जाता है। इन्हें खत्म करने की बाजार में सैकड़ों रासायनिक कीटनाशक उपलब्ध हैं लेकिन आप चाहे तो घर पर भी इसका इंतजाम कर सकते हैं। इससे न सिर्फ आपके पैसे बचेंगे बल्कि फसल पर भी बुरा असर नहीं पड़ेगा।

खरीफ मौसम में जो भी सब्जियां और फसलें बोई जाती हैं उसमे कीट-पतंग,इल्ली और फफूंद का प्रकोप हो जाता है, जिससे फसल और उपज दोनों पर असर पड़ता है। प्रकोपित पौधे बेहतर उत्पादन नहीं दे पाते हैं। बाजार में मौजूद रसायन एक तो काफी महंगे हैं, जो किसान के लिए खेती का खर्च बढ़ा देते हैं दूसरे कई बार इनका फसलों पर असर भी पड़ता है।'