सूखे का संकट स्थायी क्यों है
पिछले कुछ सालों से किसानों को बार-बार सूखे से जूझना पड़ रहा है और अब लगभग यह हर साल बना रहने वाला है। वर्ष 2009 में सबसे बुरी स्थिति रही है। पहले से ही खेती-किसानी बड़े संकट के दौर से गुज़र रही है। कुछ सालों से किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला रुक नहीं रहा है। इस साल भी सूखा ने असर दिखाया है, एक के बाद एक किसान अपनी जान दे रहे हैं।
सूखा यानी पानी की कमी। हमारे यहाँ ही नहीं बल्कि दुनिया में नदियों के किनारे ही बसाहट हुई, बस्तियाँ आबाद हुईं, सभ्यताएँ पनपीं। कला, संस्कृति का विकास हुआ और जीवन उत्तरोत्तर उन्नत हुआ।
आज बड़ी नदियों को बाँध दिया गया है। औदयोगीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा दिया गया। पहाड़ों पर खनन किया जा रहा है, जो नदी-नालों के स्रोत हैं। नदियों में प्रदूषण बढ़ रहा है। बड़े बाँधों के पानी का किसानों का फायदा नहीं हुआ है, क्योंकि जो नदियाँ उनके खेतों से जाती हैं, उनके खेत प्यासे-के-प्यासे रह गए। जबकि विस्थापन उनको ही झेलना पड़ा है।
सवाल उठता है कि आखिर पानी गया कहाँ? धरती पी गई या आसमान निगल गया? नहीं। लगातार जंगल कटते जा रहे हैं, ये जंगल पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते थे। वो नहीं रहे तो पानी कम हो गया। मध्य प्रदेश में मालवा के इन्दौर से लेकर जबलपुर तक बहुत अच्छा जंगल हुआ करता था, अब सफाचट हो गया है। मालवा के पहाड़ इस तरह हो गए हैं जैसे सिर पर उस्तरा फेर दिया गया हो।
यह तो हुई भूपृष्ठ की बात। भूजल का पानी हमने अंधाधुंध तरीके से नलकूपों, मोटर पम्पों के जरिए उलीचकर खाली कर दिया। हरित क्रान्ति के प्यासे बीजों की फ़सलों ने हमारा काफी पानी पी लिया। पर अब हमारे नीति निर्धारकों ने इससे कोई सबक नहीं लिया। उलटे गन्ना जैसी नकदी फसलें जो ज्यादा पानी माँगती हैं, उन्हें लगाने के लिये प्रोत्साहित किया जा रहा है।
आज जो दाल का संकट सामने आ रहा है, वह हरित क्रान्ति का नतीजा है। हरित क्रान्ति के प्यासे बीजों ने हमारे कम पानी में होने वाले देशी बीजों की जगह ले ली। हमने हरित क्रान्ति से गेहूँ और चावल की पैदावार बढ़ा ली, जो ज्यादा पानी माँगती हैं लेकिन दालों के मामले में फिसड्डी हो गए। जो लगभग असिंचित और कम पानी में होती थी।
पशुओं पर भी सूखे की मार पड़ती है। चारे-पानी के अभाव में लोगों ने या तो मवेशी बेच दिये या फिर खुला छोड़ दिये। बुन्देलखण्ड के महोबा इलाके में लोगों ने मवेशियों को घर पर रखना छोड़ दिया है जिससे सड़क आवागमन भी बाधित होता है, क्योंकि शाम के समय मवेशी सड़कों पर बैठते हैं। कई बार दुर्घटनाओं के शिकार भी हो जाते हैं।
अगला सवाल है कि हम सूखे से कैसे बचें? यहाँ हम दो ऐसे उदाहरण रखना चाहूँगा जिसमें मिट्टी-पानी दोनों का संरक्षण हो सकता है। देश में जीरो बजट प्राकृतिक खेती के प्रणेता सुभाष पालेकर ने आधुनिक रासायनिक कृषि पद्धति का विकल्प पेश कर रहे हैं, जिससे पानी का संकट भी खत्म हो सकता है और किसान आत्मनिर्भर बन सकते है। पिछले कुछ सालों से पालेकर ने एक अनूठा अभियान चलाया हुआ है- जीरो बजट प्राकृतिक खेती का।
पालेकर कहते हैं कि हम धरती माता से लेने के बाद उसके स्वास्थ्य के बारे में भी हमें सोचना होगा। यानी बंजर होती ज़मीन को कैसे उर्वर बनाएँ, इस पर ध्यान देना जरूरी है। उपज के लिये मित्र जीवाणुओं की संख्या बढ़ाना चाहिए। खेतों में नमी बनी रहे, इसके लिये ही सिंचार्इ करें। हरी खाद लगाएँ। देशी बीजों से ही खेती करें। इसके लिये बीजोपचार विधि अपनाएँ। फ़सलों में विविधता जरूरी है। मिश्रित खेती करें।
द्विदली फ़सलों के साथ एकदली फसलें लगाएँ। खेत में आच्छादन करें, यानी खेत को ढँककर रखें। खेत को कृषि अवशेष ठंडल व खरपतवार से ढँक देना चाहिए। खेत को ढँकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और ज़मीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। इससे नमी भी बनी रहती है।
खेत का ढकाव एक ओर जहाँ ज़मीन में जल संरक्षण करता है, उथले कुओं का जल स्तर बढ़ता है। वहीं दूसरी ओर फसल को कीट प्रकोप से बचाता है क्योंकि वहाँ अनेक फसल के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं। जिससे रोग लगते ही नहीं है। इसी प्रकार रासायनिक खाद की जगह देशी गाय के गोबर-गोमूत्र से बने जीवामृत व अमृत पानी का उपयोग करें।
यह उसी प्रकार काम करता है जैसे दूध को जमाने के लिये दही। इससे भूमि में उपज बढ़ाने में सहायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ेगी और उपज बढ़ेगी। एक गाय के गोबर- गोमूत्र से 30 एकड़ तक की खेती हो सकती है।
इसी प्रकार उत्तराखण्ड के बीज बचाओ आन्दोलन ने बदलते मौसम में किसानों को राह दिखाई है। पिछले कुछ सालों से बदलते मौसम की सबसे बड़ी मार किसानों पर पड़ रही है। इससे किसानों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह एक बड़ी समस्या है। लेकिन उत्तराखण्ड के किसानों ने अपनी परम्परागत पहाड़ी खेती व बारहनाजा (मिश्रित) फ़सलों से यह खतरा काफी हद तक कम कर लिया है।
यहाँ मौसम परिवर्तन से किसान कुछ सीख भी रहे हैं। और उसके हिसाब से वे अपने खेतों में फसल बोते हैं। जहाँ जलवायु बदलाव का सबसे ज्यादा असर धान और गेहूँ की फसल पर हुआ है वहीं बारहनाजा की फसलें सबसे कम प्रभावित हुई हैं। मंडुवा, रामदाना, झंगोरा, कौणी की फसलें अच्छी हुई।
2009 में सूखे के बावजूद रामदाना की अच्छी पैदावार हुई और मंडुवा, झंगोरा भी पीछे नहीं रहे। मध्यम सूखा झेलने में धान और गेहूँ की अनेक पारम्परिक किस्में भी धोखा नहीं देती हैं।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएँ और चुनौतियाँ आएँगी, उनसे निपटने में बारहनाजा खेती और जीरो बजट प्राकृतिक खेती जैसी पारम्परिक पद्धतियाँ कारगर हैं।
कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में सबसे उपयुक्त है। ऐसी खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इसमें कम खर्च और कम कर्ज होता है। लागत भी कम लगती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलम्बी है।
बाबा मायाराम
लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं