हरितक्रांति की होड़ में उपेक्षित हो गई पीत क्रांति

हरितक्रांति की होड़ में उपेक्षित हो गई पीत क्रांति

 हरितक्रांति से खाद्यान्न क्षेत्र में देश भले ही आत्मनिर्भर हो गया हो, लेकिन दलहन व तिलहन की खेती का दिवाला निकल गया। हरितक्रांति को सफल बनाने की होड़ में पीत क्रांति उपेक्षा की शिकार हो गई। लिहाजा घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए दाल व खाद्य तेलों के आयात पर लगभग एक लाख करोड़ रुपये खर्च करना पड़ रहा है।

हरितक्रांति ने गेहूं व चावल की खेती को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है, जिससे गरीबों के पेट तो भरे। लेकिन गरीबी जहां की तहां ठहर गई। हरितक्रांति के बाद से वर्षों में कृषि क्षेत्र के अन्य पक्षों को नजरअंदाज करना अब भारी पड़ने लगा है। गरीबों के प्रोटीन का एक मात्र साधन दालें आम लोगों की पहुंच से दूर होने लगी हैं। उपलब्धता के अभाव में प्रति व्यक्ति दालों की खपत घट गई है।

क्षेत्र विशेष में ही हरितक्रांति का नारा बुलंद किया गया, जो पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहा। लिहाजा, बाकी देश की खेती नजरअंदाज हुई। नतीजा सामने है, असिंचित खेती को रकबा कम नहीं हो सका। दलहन, तिलहन और अन्य बागवानी फसलों की खेती पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। गेहूं व चावल की भारी पैदावार की खुशफहमी में कृषि क्षेत्र के नीति नियामकों को कुछ और याद ही नहीं रहा।

सत्तर के दशक में शुरू हुई हरितक्रांति के दुष्परिणाम पर किसी की नजर नहीं गई, गेहूं व चावल की पैदावार बढ़ाने के चक्कर में जलाशयों, ताल-तलैया और पोखर पाटकर खेती होने लगी। देश के चारागाह भी इसी क्रांति की भेंट चढ़ते गए। लिहाजा भेंड़-बकरी, गाय और अन्य पशुपालन बुरी तरह प्रभावित हुआ है।

जिन राज्यों में हरितक्रांति हुई, वहां भी पैदावार बढ़ाने की सनक में मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई है। अंधाधुंध दोहन से भूजल रसातल को पहुंच गया है। इन राज्यों के तमाम क्षेत्र डार्क एरिया घोषित कर दिए हैं। कृषि उपज की वृद्धि दर ठहर गई, जिसे बढ़ाना अब आसान नहीं होगा। किसानों की उपज को उचित मूल्य दिलाने में भी सरकारें विफल रही हैं।

मौजूदा सरकार ने इसमें सुधार की कोशिश जरूर शुरू की है। खेत की सेहत, प्रधानमंत्री सिंचाई योजना, जैविक खेती और राष्ट्रीय मंडी बनाने की शुरुआत कर दी गई है। देश के पूर्वी राज्यों में कृषि उपज बढ़ाने के लिए दूसरी हरितक्रांति को और प्रोत्साहन की जरूरत है

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